Sunday, November 29, 2009

शेर कुत्ते बने

शेर कुत्ते बने
शेर कुत्तों के समान लड़ रहे हैं। एक दूसरे पर भोंक रहे हैं और जिस तिस को काटने को दौड़ रहे हैं। शेर चुनाव हार चुका है। शेर का भतीजा भी चुनाव हार चुका है। पर वो गर्व से फूल कर फटा जा रहा है। मीडिया ने उसे ऐसा हीरो बनाया जैसे उसकी सरकार बन गई हो। 13 सीटें जीतकर वो ऐंठ रहा है। जिनने सैकड़ों सीटें जीतीं और जो सरकार बना रहे हैं या बिगाड़ रहे हैं उनकी कोई पूछ नहीं है। जिनने शेर की पूंछ मरोड़ी उसकी पूछ है।
मीडिया के युवा उत्साही बता रहे हैं कि पिछले चालीस सालों से शेर का एकछत्र राज्य है। पहली बार यह छिन्न भिन्न हुआ है। ये एक छत्र राज्य कैसा है ? ये छत्रपति कहां से शेर बन गये ? ये मुम्बई के कपड़ा मजदूरों के विशाल और अजेय संगठन को तोड़ने के पैदा किये गये गंुडे थे। उस समय टेªड यूनियन का जमाना था। बम्बई से कामरेड एस ए डांगे ने अधिकतम मतों से संासद बनने का रिकार्ड बनाया था। बम्बई का कपड़ा मजदूर अपने हितों के लिये भी लड़ा और अंग्रेजों के खिलाफ भी लड़ा। ऐसे कपड़ा मिल मजदूर आंदोलन को तोड़ना था। इसके लिये बहुत कमीने आंदोलन की जरूरत थी। मुम्बई मराठियों की, दक्षिण भारतीयों को मारो, कपड़ा मिल मजदूरों के नेताओं की हत्या कर दो, कपड़ा मिल मजदूरों के आंदोलन को तोड़ो, कपड़ा मिल मालिकों से पैसा उलीचो और उनका काम करो इसके लिये शिवसेना बनाई गई थी। इसीलिये ये चुनाव नहीं लड़ती थी। जिनने बनवाई थी उनके खिलाफ ये चुनाव कैसे लड़ते ? आज भी इनका यही काम है। दुकानें, मकान जमीन खाली कराना, उनपर कब्जा करना, हर सौदे में कमीशन खाना। ये पवित्र राष्ट्रवादी कार्य ये करते हैं। ये अपनी मांद में घुसे बैठे रहते हैं। वहीं से दहाड़ते रहते हैं। इनसे डरता कौन है ? वो लोग जो सबसे डरते हैं। इनसे भी डरते हैं। सीधे सादे नौकरीपेशा लोग। काम धंधे से लगे लोग। रोजी रोटी कमाने में लगे लोग। जब तक सिर पर न आ जाये तब तक झगड़ा बरकाते हैं। सड़क पर यदि पत्थर पड़ा हो तो बरका कर चले जाते हैं। सामान्य मध्यमवर्गीय आचरण है। इससे मुम्बई के शेरों को ये लगता है कि मुम्बई में वे बहुत लोकप्रिय हैं। मुम्बई में किसी तरह जी रहे हिन्दी प्रदेशों के मजदूरों पर हमला करके ये शूरवीर बनते हैं। ये महाराष्ट्र तो दूर मुम्बई से भी बाहर नहीं निकलते। मुम्बई में बैठकर कश्मीर के उग्रवादियों को चुनौती देते हैं। हम तो उस दिन की राह देख रहे हैं जिस दिन ये शूरवीर श्रीनगर जाकर उग्रवादियों को चुनौती देंगे। मगर ये दिन कभी नहीं आएगा। मुम्बई के चुनाव परिणाम बार बार बताते हैं कि ये वहां चुनाव नहीं जीतते। अपनी गुंडागिरी को ये अपनी लोकप्रियता मानते हैं।
बहुत बार गंुडों डकैतों के गिरोहों में विद्रोह हो जाता है। कोई नौजवान उठ खड़ा होता है और कहता है कि अब मैं गद्दी सम्हालूंगा। अब तुम बूढ़े हो गये हो। जब हम कमाते हैं तो हम ही सरदार बनेंगे। बाल ठाकरे को चुनौती दी उसी के भतीजे ने। उसने कहा मैं सरदार बनूंगा। बाल ठाकरे का कहना था कि सरदार मेरा लड़का बनेगा। भतीजे का कहना था कि गुंडो की सरदारी भला आदमी नहीं कर सकता। उद्धव शरीफ आदमी है। उसके बस का नहीं है नंगों की सरदारी करना। मैं पैदायशी गुंडा हूं। मैं बनूंगा सरदार। बात नहीं मानी गई तो उसने अपना गिरोह अलग बना लिया।
हमारे देश में गंुडो से डरकर उनकी इज्जत करने का पुराना रिवाज है। फिर गुंडों के इलाके में रहने वाले पुलिस की अपेक्षा गुंडों की फीस चुकाना बेहतर समझते हैं। इसीलिये अमिताभ बच्चन भी बाल ठाकरे के घर हो आते हैं। करण जौहर जाकर गुंडे के पंाव पकड़ लेते हैं। भैया हमें धंधा करने दो बदले में अपनी फिरौती ले लो। अशोक चव्हाण कहते हैं कि करण जौहर हमारे पास क्यों नहीं आए। आते तो हम पूरी तरह से रक्षा करते। करण जौहर ही नहीं मुम्बई के बच्चे को भी पता है कि अशोक चव्हाण के भरोसे उनकी कितनी रक्षा होती। जब यूपी के लोग मुम्बई में गली गली हमलों का शिकार हो रहे थे, जब पूना और नासिक में लाइब्रेरी जलाई जा रहीं थीं और लेखक हमलों का शिकार हो रहे थे तब भी यही सरकार थी। इनने कितनी रक्षा की यह सबको पता है।
महाराष्ट्र का खेल पूरे देश को समझ में आ गया। पहले पिटवाओ फिर मरहम लगाओ। पीटने वाला बुरा बनेगा। मरहम लगाने वाला भला कहलायेगा। फिर महाराष्ट्र मंे तो जनता के पास कोई विकल्प भी नहीं था। उसे तो मरहम लगाने वाले को जिताना ही पड़ेगा। पीटने वाले को हराना ही पड़ेगा। मरहम वाले का काम बन गया। ये चुनाव तो निपट गया। अब पांच साल बाद देखेंगे। बहुत क्रू्र और बेशर्म राजनीति है।
-सुखनवर

Saturday, September 26, 2009

बाघ घट रहे हैं



बाघ घट रहे हैं ये लोगों के लिये बड़ी चिन्ता का विषय है। अखबारों में संपादकीय लिखे जा रहे हैं। टी वी चैनल में सुंदर और सुंदरियां विलाप कर रही हैं और बाघोें के माता पिताओं को कोस रही हैं कि आप लोग परिवार नियोजन को इतनी गंभीरता से क्यों ले रहे हैं। वो मनुष्यों के लिये चलाया जा रहा है। आप लोग अपने ऊपर क्यों ले रहे हैं। मनुष्य पशु बन रहा है। ये चिन्ता का विषय नहीं है। पशु मनुष्य बन रहा है। ये चिन्ता का विषय है। यदि सभी बाघ भेड़िये मनुष्य हो गये तो मनुष्यों का क्या होगा। वे कहां जायेंगे।
मनुष्य इस मुगालते में बरसों से रहा है कि वह पशुओं से श्रेष्ठ है। आज तक कभी किसी पशु ने चुनौती नहीं दी कि मनुष्य तू हमसे श्रेष्ठ नहीं है। किसी वाद विवाद प्रतियोगिता में आजतक कोई पशु नहीं आया। मनुष्य अविजेय है। हर आदमी दूसरे आदमी को पशु कहता है पर कोई पशु किसी दूसरे पशु को मनुष्य नहीं कहता। इसीलिये तो वो पशु है। उसमें मनुष्य का एक भी गुण नहीं है। मार्क ट्वेन ने कहा कि यदि तुम किसी कुत्ते को रोटी दोगे तो वह तुम्हें काटेगा नहीं। आदमी और कुत्ते में यही फर्क है। फिर भी कुत्ते कुत्ते हैं और आदमी आदमी। कुत्ते आदमी नहीं हैं और आदमी कुत्ते नहीं हैं।
बाघ के लिए मनुष्य जाति में कोई इज्जत तो है नहीं। कभी अकेले में मिल जाए तो डर जरूर लगता है। मनुष्यों में डर के कारण इज्जत करने की प्रवृत्ति देख्ी गई है। इस लिहाज से यदि बाघ के लिए कोई इज्जत है तो भी वो कोई बड़ी गर्व की बात नहीं है। आप बाघ से डरते हैं उससे आपको जान का खतरा है इसीलिए आप उसकी इज्जत करते हैं आपको बड़ा खतरा है कि हाय ये बाघ इस दुनिया में नहीं रहेगा तो हम किससे डरेंगे।
बाघ के डरावनेपन में भी एक खूबसूरती तो है इसीलिए हम बाघ को बहुत सुंदर जानवर मानते हैं और उससे डरते हैं। मुहल्ले में कोई गुंडा रहता है तो उसे गुंडा नहीं कहते। उसे बड़े भाई कहते हैं। उसकी इज्जत करते हैं। और उसकी चिरौरी करते हैं। उसे निरंतर आभास दिलाते रहते हैं हम उसकी इज्जत करते हैं। वो भी समझता है कि ये मेरी इज्जत नहीं करते ये मुझसे डरते हैं। गुंडा मुहल्ले का बाध है और बाघ जंगल का गंुडा है। जैसे मुहल्ले में गुंडा नहीं होता तो मुहल्ला सूना लगता है वैसे जंगल में बाघ न रहे तो जंगल जंगल नहीं लगता।
इस जंगल के गंुडे के घटने से देश चिन्तित है। ये बाघ घट न पायें इसके लिए खास जंगल बनाये गये हैं। ये बाघ मर न पायें इसीलिये जंगल महकमा तैनात है जो दिन रात इनकी रक्षा में लगा है। इस महकमे में बड़े और छोटे तरह तरह के साहब हैं जो टी ए, डी ए, भोपाल, तबादला, इन्क्वायरी, चार्जशीट, साहब की विजिट, रेस्ट हाउस, सस्पेंशन, डांट डपट, ब्लड प्रेशर, डायबिटिज, बैडमिंटन, योगा, रामदेव, रविशंकर, इत्यादि के बीच बाघों की रक्षा का दायित्व सम्हाले हंै। वो लगातार इनकी आबादी बढ़ाने के लिए तरह तरह के तरीके अपना रहा है। हर रोज बाघ लाइन हाजिर होते हैं और अपनी गिनती करवाते हैं। वो निगरानी में रहते हैं। ये सब चल रहा था तभी किसी विघ्न संतोषी ने खबर फैला दी है कि पन्ना टाइगर रिजर्व में तो एक भी टाइगर नही है। एक भी यानी एक भी टाइगर नहीं है। तो टाइगर रिजर्व क्या है और उसमें तैनात लोग किसको रिजर्व कर रहे हैं। जंगल के जंगली अधिकारियों ने आश्चर्य प्रकट किया । आश्चर्य तो उन्हें भी नहीं हुआ पर उनने आश्चर्यचकित होने का लगभग विश्वसनीय अभिनय किया। साहबों की बैठकें हुईं। बैठकों में वनमंत्री ने बाघों के विलुप्त हो जाने पर चिन्ता प्रकट की। गुस्सा प्रकट किया कि जंगल केवल लकड़ी चोरी और आदिवासियों को बेदखल करने के लिए नहीं है। वरन् उनका एक और उपयोग है कि वहां बाघ को रोके रखना है। बाघ की जगह जंगल में है। बाघ जंगल मंे रहे शहर न आने पाये। यदि बाघ शहरों में रहने लगे तो मनुष्यों का रहना दूभर हो जायेगा। अस्तु बाघ भले मर जाये पर शहर न आने पाये। शहरों में हम मनुष्य रहते हैं। हम भी पहले जंगलों में रहते थे। बाघ के गले में हाथ डालकर घूमते थे। वो भी क्या दिन थे। अब तो सिर्फ याद बाकी है। उस याद को अब याद रहने दो। उसकी याद न दिलाओ। बाघ मरे या जिये उसके कारण हम न मरें। मंत्री जी के वचनों का पालन हुआ। कुछ तबादले हुए। कुछ लाइन अटैच हुए। फिर सब कुछ सब कोई भूल गये।
.............................................सुखनवर
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Friday, June 5, 2009

कानून और व्यवस्था

बिहार में कुछ ट्रेनों के स्टाॅप कम कर दिये गये तो उससे ’गुस्साए’ ( ये टी वी के विद्वानों द्वारा उत्पादित शब्द है ) लोगों ने उत्साहपूर्वक अनेक बोगियों का दहन किया। स्टेशन को नष्ट कर दिया। उन्हें कोई रोकने वाला नहीं था। वहां टी वी चैनल वाले थे जो उसे पूरा शूट करते रहे। और जल्द ही पूरे देश में नेताओं की टिप्पणियों के साथ इस घटना का सचित्र उत्साहवर्धक प्रसारण कर दिया गया। पर क्योंकि वो मीडिया के लोग थे इसीलिए वे इस राष्ट्र के नागरिक तो थे नहीं कि इस गुंडागर्दी को रोकने की कोशिश करते। पूरे बिहार के उन सभी स्टेशनों में मातम छा गया जहां आग नहीं लगाई जा सकी। उप-द्रवियांे ( जी हां टी वी की न्यूज वाचिका यही उच्चारण कर रही थीं ) को भी बड़ा दुख हुआ कि वो अकर्मण्य माने गये। उनमें भी दम खम था। वो भी कुछ कर दिखा सकते थे। मगर समाचार के अभाव में चूक गये। उप द्रवियों के जो दृश्य दिखाये गये उनमें जो प्रेरणा और उत्साहवर्धन का भाव था वो देखते ही बनता था। छोटे छोटे लड़के तोड़ फोड़ और आगजनी में लगे थे। उनके अपने देश की संपत्ति स्वाहा कर रहे थे और आनंदित थे।
जिन लोगों की प्रतिक्रिया ली गई वे सभी रेल मंत्री हैं या रह चुके हैं। नितीश कुमार ने कहा कि सबको समझ लेना चाहिये कि कोई बिहार को हाथ न लगाए। लालू का कहना तो साफ था कि इसके लिए नितीश कुमार दोषी हैं। ममता बनर्जी जो अखिल बंगाल राष्ट्र की रेल मंत्री हैं उन्होंने ठीक ही कहा कि पहली बात तो मुझे बताया नहीं दूसरी बात की मैंने यह स्टाॅप बंद नहीं करवाये और तीसरी बात की जिसने ये स्टाॅप बंद करवाये हैं उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जायेगी। इस तरह राष्ट्रनेताओं ने अपना कर्तव्य पूरा किया। बाकी किसी ने प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। जरूरत भी क्या है ? ये बिहार का मामला है। जिस प्रदेश का है उसके नेता बोलें। हम क्यों बोलें? ये बात अलग है कि सभी प्रादेशिक पार्टियां और उनके नेता राष्ट्रीय हैं। जब अमेरिका से परमाणु समझौता हो रहा था तो भी सभी राष्ट्रीय नेता चुप थे। हो सकता है उनको लगा हो कि ये समझौता तो अन्तर्राष्ट्रीय है। हम तो राष्ट्रीय हैं। हम लोग क्या बोलें?
खास बात ये है कि किसी जिला स्तरीय नेता से लेकर किसी राष्ट्रीय नेता ने यह नहीं कहा कि ये आगजनी तोड़ फोड़ गलत है। पुलिस को उप द्रवियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करना चाहिये। लालू नितिश के बोलने में जो बिहारी गौरव रक्षा का भाव था वो तो देखते ही बनता था। ममता बनर्जी ने बंगाल से बाहर पड़ोस के बिहार राज्य के बारे में सोचा वही बहुत है। यदि उनमें थोड़ी भी राष्ट्रीय बुद्धि होती तो वे सबसे पहले अपने विभाग की ओर से नीतिगत बात कहतीं। ये किसी बाबू द्वारा लिया गया निर्णय नहीं है। रेलवे के अधिकारियों को यह विचार करना पड़ता है कि किस रेलगाड़ी को किस समय चलाया जाए। कहां स्टेशन बनाया जाए। किस स्थान पर बनाया गा स्टेशन अनुपयुक्त है इसीलिए उसे बंद कर दिया जाए। कहां स्टाॅप रखा जाए और कहां न रखा जाए। जो लेाग बिहार और उत्तर प्रदेश में यात्रा कर चुके हैं वे जानते हैं कि रेलवे के कितने नियमों का पालन होता है और इन प्रदेशों से गुजरने वाली ट्रेनों में यात्रियों की सुरक्षा की क्या स्थिति है।
पिछले वर्ष राजस्थान में गुर्जरों को आरक्षण दिये जाने के लिये जो आंदोलन किया गया उसमें निर्दयता से रेलवे की पटरियां उखाड़ी गईं। पुलिस को कुछ न करने के निर्देश मुख्यमंत्री ने दिये थे। अंत में सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देना पड़े कि इस आंदोलन के नेताओं पर राष्ट्रीय संपत्ति के विनाश के लिए मुकदमा चलाया जाए। गुर्जरों के नेता बैंसला जी ने करोड़ों रूपये स्वाहा करवाये और फिर भाजपा की टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़कर हारे। इस बहाने उन्होंने ये भ्रम दूर कर दिया कि वे गुर्जरों के नेता हैं। वे राष्ट्रवादियों के नेता हैं। कलई खुल गई। बिहार में भी जब सुप्रीम कोर्ट कहेगा तभी उप द्रवियों पर मुकदमा चलेगा। ये वही मंत्री गण और भूतपूर्व मंत्री गण हैं जिन पर कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी है।
राजनीति आज जिस मोड़ पर आ खड़ी हुई है वहां नेता नेतृत्व नहीं करता। वो उप द्रवियों के पीछे चलता है। उप द्रवियों तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं। तुम चलो हम आते हैं। गलत को गलत बोलने वाला कोई नहीं है। बीच सड़क में कोई घर बनाये तो उसे मना नहीं किया जाएगा। जब घर तोड़ा जायेगा तो अंादोलन होगा कि गरीब का घर तोड़ा जा रहा हैै। उसे दूसरा घर दो। ऐसे ही छुटभैये नेता विधायक बनते हैं और फिर मंत्री बनाये जाते हैं। ऐसे ओछे लोग ओछा ही काम करेंगे।
..........सुखनवर
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Wednesday, May 27, 2009

मंत्री पद की वासना

चुनाव हो चुके हैं। मंत्रिमंडल बनना है। पार्टियों की शक्ति देखिये। कांग्रेस के 200, बीजेपी के 150 और उसके बाद सीधे समाजवादी पार्टी के तीसरे नंबर पर 23 चैथे नंबर पर मायावती 20 और तृणमूल कांग्रेस पांचवें नंबर पर 19 सांसदों के साथ। द्रमुक और राष्ट्रवादी कंाग्रेस पार्टी के केवल 8 सांसद हैं। मगर गठबंधन सरकार है तो मंत्री पद के लिए रूठना मनाना चल रहा है। द्रमुक में तो बहुत ही अंदरूनी संघर्ष चल रहा है। वे करूणानिधि हैं। उन्होंने तीन महिलाओं पर तरस खाया और उन्हें अपनी पत्नी बनाया। अब उनके बाल बच्चों पर तरस खाने के दिन आ गये हैं। तीनों केा बराबरी का हिस्सा चाहिए संपत्ति में। दुर्भाग्य से यह संपत्ति भारत सरकार है। तृणमूल कांग्रेस के लिए यह देश प बंगाल है। वे भारत सरकार की रेल मंत्री बनेंगी पर रेल चलेगी बंगाल में। इस समय विजय का दर्प इस कदर सिर पर सवार है कि बस चले तो प बंगाल सरकार को तोप से उड़ा दें। राष्ट्रवादी कांगे्रस क्यों बनीं ? ये सभी कांग्रेसी हैं। पवार ने किसी गणित में सोनिया गंाधी के विदेशी मूल के होने का मुद्दा उठाया। फिर राष्ट्रवादी हो गये। झगड़ा महाराष्ट्र का था। कालचक्र घूमा तो उन्हीं सोनिया जी के साथ मिलकर यूपीए में कृषि मंत्री बने बैठे हैं। इनसे कोई पूछ नहीं सकता कि क्यों महाशय जब सोनिया जी के साथ हैं तो फिर आपकी अलग से कांग्रेस क्यों ?
हमारे देश में मंत्री पद योग्यता का सूचक नहीं है। कौन किसका कितना और क्या बिगाड़ सकता है इसका पैमाना है। शरद पवार या द्रमुक या तृणमूल सरकार का बहुत कुछ बिगाड़ सकते हैं इसीलिए इन्हें 200 सांसद वाली कांग्रेस पार्टी से ज्यादा मंत्री पद चाहिये। आप देखेंगे कि कोई पार्टी ये नहीं कहती कि हमें गृहमंत्री या रक्षा मंत्री या वित्त मंत्री बनाया जाये। इन्हें रेल, कृषि , कोयला, पेट्रोलियम, जैसे विभाग चाहिए। इन विभागों के बारे में कहा जाता है कि इनमें सात पुश्तों तक के कल्याण की व्यवस्था हो जाती है। किसी विभाग का मंत्री बनने के लिए किसी विशेष योग्यता की जरूरत नहीं है। आपकी पार्टी को दस मंत्री पद दिये गये हैं। बन जाइये मंत्री। मंत्री बनते ही सांसद को कारें, बंगला, आॅफिस, एसी हवाई यात्रा, इत्यादि सुविधायें मिल जाती हैं जो सामान्य भारतीय आदमी के लिए एक सपना है। कुछ साहब मिल जाते हैं जो सर सर करते रहते हैं। जीवन सफल हो जाता है।
अधिकांश मंत्रियों का मंत्रित्व काल सुविधाओं को भोगने में चला जाता है। अधिकारी भी यही चाहते हैं कि आप देशाटन कीजिये और उद्घाटन ,सम्मान वगैरह करिये कराइये। विभाग के कामों में टांग मत अड़ाइये। विभाग में यदि ऊपरी कमाई है तो आपको भरपूर हिस्सा मिलेगा ताकि आप अगला चुनाव लड़ सकें और पिछले चुनाव की लागत निकाल सकें। बाकी चुप रहें। खुद खायें और दूसरों को खाने दें।
यदि कोई मंत्री वास्तव में कुछ करना चाहता है तो उसे अनुभव चाहिये, ज्ञान चाहिये और अपने मातहत अधिकारियों से ज्यादा बुद्धि और विवेक चाहिये। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी यही चाहते हैं कि इस तरह से थोक में बने मंत्री अपनी दुनिया में रहें और सत्ता की दुनिया में टांग न अड़ायें। इसीलिए मंत्रीगण झूठे वादे करने वाले बेदर्दी बालमा कहलाते हैं। वे झूठे वादे न करें तो और क्या करें ? वो तो पार्टी में अपनी ताकत के कारण अपने कोटे में से मंत्री बने हैं। यदि योग्य होते तो किसी अच्छे काम में न लग गये होते।
हमारे देश में एक जादू और होता है। समय समय पर मंत्रिमंडल में फेरबदल होता है। इसके कारण तरह तरह के होते हैं। पर परिणाम एक ही होता है। एक विभाग के अयोग्य मंत्री को दूसरे विभाग का मंत्री बना दिया जाता है। वो वहां भी कुछ नहीं करते थे। यहां भी कुछ नहीं करंेगे। बड़ा हास्यास्पद लगता है ये सुनना कि कल तक जो कपड़ा मंत्री थे आज आदिवासी कल्याण के मंत्री हो गये। रातोंरात उनकी विद्वत्ता का क्षेत्र बदल गया।
मनमोहन सिंह जी का पिछला मंत्रीमंडल बड़ा जोरदार था। उसमें सभी मंत्री गण स्वतंत्र थे। उनके कामों में प्रधानमंत्री का कोई हस्तक्ष्ेप नहीं रहता था। अर्जुन सिंह ने आरक्षण आदि पर अनेक बड़े फैसले लिए। कभी ऐसा लगा नही कि ये मनमोहन सरकार के मंत्री हैं। विरोध में जो आंदोलन हुए वो भी अर्जुन सिंह के विरूद्ध हुए। निर्णयों की घोषणा भी अर्जुन सिंह जी ने की। इसका परिणाम ये हुआ कि जो निंदा हुई वो अर्जुन सिंह की हुई और जो प्रशंसा हुई वो प्रधानमंत्री और कांग्रेस की हुई। एक डा रामदौस थे। वे स्वास्थ्य मंत्री थे। वे एम्स में मनचाहे निर्णय लेते रहे। मगर पता नहीं चला कि ये मनमोहन सरकार के मंत्री हैं और प्रधानमंत्री के नीचे काम करते हैं। एकदम आजाद। लालू की रेल चाहे जहां चलती रही चाहे पटरी हो चाहे न हो मगर प्रधानमंत्री एकदम खामोश। इसीलिये यूपीए गठबंधन बहुत मजबूत रहा।
मंत्री पद पाकर सांसदों और विधायकों को जनता से दूर कर दिया जाता है। आप मंत्री हैं। आपकी सुरक्षा होगी। आप सबसे दूर रहिये। किसी से मिलिये नहीं। आप लालबत्ती में चलिए। आगे एक जीप में साइरन बजेगा। पीछे पुलिस की गाड़ी दौड़ेगी। परिणाम ये होगा कि आप मंत्री पद की मायावी दुनिया में खो जायेंगे और तब तक खोये रहेंगे जबतक आप अगला चुनाव न हार जायें या अगले बार मंत्री न बनाये जायें। ..........................................सुखनवर

Thursday, May 21, 2009

आचार संहिता के पालन हेतु चुनाव

अंदाजे़ बयां और
आचार संहिता के पालन हेतु चुनाव
पुराने जमाने में जब आफसेट प्रिंटिंग भी नहीं आई थी, जब एक्जिट पोल नहीं होते थे, जब लोग चुनाव का मतलब कांग्रेस को वोट देना समझते थे उस समय अखबारों में मतगणना के दिन एक ही हैडलाइन रहा करती थी ’आज पेटी का राजा बाहर आयेगा’। चुनाव में शुरूआत में अलग अलग चुनाव चिन्हों की पेटियां होती थी। फिर एक ही पेटी में सारे वोट डाले जाने लगे। अब इलेक्ट्रानिक वोटिंग का जमाना आ गया है। अब चुनाव लड़ने लड़ाने के लिये इतने कानून बन गये हैं कि चुनाव शहरी लोगों का शगल और ग्रामीण लोगों की मुसीबत बन गया है। शहरी गरीबों के लिये जरूर चुनाव कुछ कमाई करवा जाता है। इस बार के चुनाव का सबसे बड़ा उम्मीदवार आचार संहिता थी। लगता था कि चुनाव इसीलिये हो रहे हैं कि आचार संहिता का पालन हो। उम्मीदवार प्रचार करके देर रात जब घर लौटता था तो पुलिस गिरफ्तार करने के लिए खड़ी रहती थी कि आपने दिन भर में इतने बार आचार संहिता का उल्लघंन कर दिया है। चलिये थाने और जमानत कराईये। हर उम्मीदवार ने दो वीडियो शूटर रखे थे। एक अपने लिये और दूसरा विरोधी उम्मीदवार के लिये। सभी के कार्यकर्ता इसी में व्यस्त थे कि दूसरे की शिकायत करना है।
आचार संहिता के चक्कर में हुआ ये कि पता ही नहीं चला कि चुनाव हो गये। झंडे नहीं लगा सकते, सभा नहीं कर सकते, जुलूस नहीं निकाल सकते, बैनर नहीं लगा सकते, दीवार पर लिख नहीं सकते, किसी का भला नहीं कर सकते, नल बंद हो तो पानी नहीं आ सकता, पानी आ रहा हो तो बंद नहीं कर सकते, नाली-सड़क नहीं बना सकते यानी आप कुछ भी करेंगे तो आचार संहिता भंग हो जायेगी। जो सरकारी कर्मचारी वैसे ही कुछ नहीं कर रहा था उसे एक आदर्श कारण मिल गया कुछ न करने का। आचार संहिता लगी है भाई साहब, होश में तो हो, आपका काम कर दिया तो अभी अंदर हो जायेंगे। जवाब देना मुश्किल हो जायेगा कि काम किया क्यों ? और तो और कोई आदमी किसी को पांच सौ के नोट के बदले सौ के पांच नोट नहीं दे सकता। तुरंत पैसा बांटने के आरोप में बंधा नजर आयेगा।
ये विचार करने का समय है कि चुनाव होते क्यों हैं ? क्या मतदाता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि उसके इलाके से कौन कौन चुनाव लड़ रहा है? उनका चुनाव चिन्ह क्या है? वो क्यों चुनाव लड़ रहे हैं? उनका घोषणा पत्र क्या है? उसे भाषण देना, जनता के मुद्दे उठाना आता है क्या ? वो संसद में जाकर क्या करना चाहता है ? संसद की हर सीट पर दस से पन्द्रह लाख मतदाता होते हैं। एक व्यक्ति आखिर किस तरह से अपने मतदाताओं को अपने बारे में बता सकता है ? मतदान के अंाकड़े बताते हैं कि औसतन पचास प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। यानी जो लोग जीते हैं उनकी जीत में देश के आधी आबादी की कोई रूचि नहीं है। इतना मजबूत लोकतंत्र है। टी वी में बड़े बड़े लोग अंग्रेजी और हिन्दी में समझा रहे हैं कि आप वोट जरूर दें। कैसे दंे ? आप तो पता भी नहीं चलने दे रहे कि कौन कौन खड़ा है। एक एक संसदीय क्षेत्र इतना बड़ा है कि दुनिया में कई देश उनसे छोटे हैं। इसमें यदि एक पर्चा भी बंटवायें तो लाखों रूपये खर्च होते हैं। लेकिन खर्च की सीमा तय है। चुनाव लड़ना अब किसी सामान्य आदमी का काम नहीं रह गया है। सामान्य पार्टी का भी नहीं। आपके पास करोड़ों रूपया हो तभी चुनाव लड़ने की कल्पना कीजिये। अब पार्टियां भी उसी को टिकिट देती हैं जिसकी चुनाव लड़ने की औकात हो। पास से पैसा लगा सके। जब लगायेगा तभी तो बनायेगा। इसीलिये अब हर प्रत्याशी की संपत्ति करोड़ों रूपये में दिखना कोई ताज्जुब की बात नहीं लगती। उमा भारती की पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ा। उमा भारती ने साफ कहा कि हमारे पास पैसा नहीं है। हम चुनाव नहीं लड़ सकते। अभी अभी विधान सभा चुनावों में पूरी पूंजी लुट चुकी है।
मीडिया के मुंह में ख्ूान लग चुका है। चुनाव को नीरस बनाने में मीडिया का बहुत योगदान रहा। अव्वल तो उम्मीदवार और पार्टी के बारे में बिना पेमेन्ट कुछ छापना ही नहीं है। और पेमेन्ट नहीं मिला तो विरोध में ही छापना है। जो पार्टी राज्य सरकार चला रही है। उससे संबंध अच्छे रखना है। उससे विज्ञापन मिलते हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तो घटियापन और ओछेपन की सभी ऊंचाईयों को छू चुका है। उनके लिये चुनाव किसी आइटम सांग से कम नहीं था। उनके लिए कुछ सिरफिरों का जूता चलाना वरदान साबित हुआ। उसी की रिपोर्टिंग करते हुए समय निकालते रहे। देश का भला चाहने वालों को टी वी का चैबीस घंटे चलना बंद करवाना होगा। जनता को कुछ सोचने समझने के लिए अवकाश दिया जाना बहुत जरूरी है। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता में सप्रमाण लिखा है कि इस बार प्रिंट मीडिया ने किस बेशर्मी से उम्मीदवारों को ब्लेकमेल किया है। आज जरूरत है कि सभी राजनीतिज्ञ इस ब्लेकमेल को उजागर करें और हिम्मत के साथ इससे निपटें। ................................................................................सुखनवर


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Tuesday, May 12, 2009

नंगे नाच रहे हैं

कल रात एक बड़ा भयानक सपना देखा। कुछ लोग अपनी अपनी पद्मश्री, पद्मभूषण सम्मान सरकार को लौटा रहे हैं। वो कहते जा रहे हैं कि हम इसके लायक नहीं। हमें आप लोगों ने गलती से दे दिया है। हमने तो मंागा भी नहीं था। हमें तो मालूम भी नहीं था कि इसका मतलब क्या होता है। जब सरकार दे रही थी तो उसे बताना चाहिये था कि हमें लेना पड़ेगा। हम मना भी नहीं कर सकते। नहीं तो देने वाले का अपमान हो जाता है। अब आप ही बताइये कि यदि एक दिन एक विज्ञापन में काम करने के लिये हमें 50 लाख मिल रहे हैं तो हमें क्या करना चाहिये ? क्या हमें नहीं लेना चाहिये ? क्यों नहीं लेना चाहिये ? आखिर हम इस दुनिया में क्यांे हैं ?इसीलिये न कि जितनी जल्दी हो सके जितना ज्यादा हो सके कमा सकें। अब एक तरफ पचास लाख रूपये और दूसरी तरफ एक फ्रेम उसमें तांबे का एक पटिया। तरस आता है साहब इस देश के लोगों पर। दिन भर समय खराब हो वो अलग। फिर हम लोगों को ये शर्ट पेंट पहनने की आदत भी तो नहीं है। कितने दिन हो गये हम लोग दूसरों के दिये हुए कपड़े पहनते हैं। आपको पता है भाई साहब ? हमारे कपड़ों के लिये चंदा देने वालों की लाइन लगी रहती है। जूते वाले, हवाईजहाज वाले, कच्छा बनियान वाले, बिड़ी सिगरेट वाले सब हम लोगों के कपड़े सिलवाते हैं और पैसा भी देते हैं। अब इन भले आदमियों की बात मानें उनका धंधा बढ़ायें कि ये फोकट का सरकारी सम्मान लेने जायें। वो तो हमें बहुत बाद में पता चला कि हमारे देश में इतने अजीब लोग हैं कि बिना पैसे का सम्मान लेने के लिये सालों तक जुगाड़ करते हैं। उन्हें लगता है कि एक कागज राष्ट्रपति के यहां से मिल जायेगा तो जीवन धन्य हो जायेगा। अजीब लोग हैं भाईसाहब।
आजकल जमाना पैसे कमाने का है भाई साहब। फिर हम लोग तो देश के लिये खेलते हैं। देश के लिये कमाते हैं। देश के लिये चंदे के कपड़े पहनते हैं। आपने वो हमारा पाजामा कमीज देखी है ? अरे वही रंगबिरंगी वाली जिसे पहनकर हम लोग क्रिकेट खेलते हैं। कभी कभी तो हमें भी हंसी आती है सर्कस का जोकर जैसे कपड़े पहनना पड़ते हैं। पांव के तलवे से लेकर सिर की टोपी तक कोई जगह नहीं छोड़ी भाई साहब। हम जगह थिगड़े लगे रहते हैं। जूता, साबुन, चिट फंड, सीमेंट, मोबाइल फोन किस चीज का विज्ञापन हमारे शरीर में नहीं चिपका है ? और सच बात तो यह है कि इन्हीं लोगों ने हमें बिकाऊ बनाया है। इन्हीं ने पैसा खर्च करके पहले हमें महान सि़़द्ध किया फिर हमसे कहा कि अब तुम महान खिलाड़ी हो गये हो अब हमारे सामान का विज्ञापन करो। हम तुम्हें उसका पैसा अलग से देंगे।
पर आप ये तो देखो कि इन लोगों का दिमाग कहां कहां दौड़ता है। इनने कहा कि घुड़दौड़ कोई खेल नहीं है। वो जुआं है। मगर लोग कितना आनंद लेते हैं। हम लोग क्रिकेट को जुआं बनायेंगे। हमने कहा कि आप पूरी दुनिया को जुआंघर बना दो हमें पैसे से मतलब। वो बोले तुम्हें बराबर पैसा मिलेगा। तुम लोगों को पुराना जमाना याद है कि नहीं। बड़े बड़े जमींदार, सामंत रात को नाचनेवालियों को बुलाते थे। गैस बत्ती की झकाझक रोशनी होती थी। रात भर नाच चलता था। नाचने वालियों को पैसा मिलता था वो रात भर नाचती थीं। लोग उनपर नोट लुटाते थे। बाद में उन्हें उनका मेहनताना दिया जाता था। खाना खाकर वो वापस रवाना हो जाती थीं किसी और सामंत के यहां नाचने। अब समय बदल गया है। अब वो जमींदार नहीं रहे। वो नाचने वालियां नहीं रहीं। अब हम लोगों ने उन जमींदारों की जगह ले ली है। अब तुम लोग वो नाचने वालियां हो। अब क्रिकेट का खेल वो नाच है। अब होंडा कंपनी जैसी वो कंपनी हैं जो अपना चैक और चिल्लर लिये खड़ी रहती हैं और मैच के अंत पर तुम नाचने वालों पर लुटाती हैं। पहले तीन तीन घंटे में सिनेमा हाॅल में पिक्चर देखी जाती थी अब तीन घंटे में पूरा क्रिकेट का खेल हो जाता है। पुराने सामंतों को एडवांस देकर गाने नाचने वालियों को बुलाना पड़ता था। अब उसमें बदलाव ये आया है कि हम तुम नाचने वालों को पूरा पैसा देकर खरीद लेते हैं। फिर तुम्हें जहां कहेंगे और जैसा कहेंगे तुम्हें नाचना होगा। नाचने में कोई गड़बड़ की तो लात मारकर बाहर निकाल देंगे। पैसा भी छीन लेंगे। हमने कहा हुजुर अरे आप हमें मौका और पैसा दीजिये हम नंगे नाचने को तैयार हैं। हमारे नाच से आपको कोई शिकायत नहीं होगी।
नाच शुरू हो चुका है। नंगे नाच रहे हैं। लुटाने वाले पैसा और चिल्लर फेंक रहे हैं। जो अच्छा नहीं नाचता मालिक उसे हंटर से मार मार कर सही कर देते हैें। हमारे सामंत महान हैं। उनने पैसा दिखाया है तो देशी ही नहीं दुनिया भर के नचैये गोरे काले पीले सभी दौड़ते हुए आ गये हैं। वसुधैव कुटुम्बकम। जनता ने मांग की कि जुआंघर में डांस होता है। तत्काल मांग पूरी हुई। देशी विदेशी नाचने वालियों का ढे़र लग गया। नचनियें बुला दी गई हैं। वो खुशी का इज़हार करती है। दर्शक भूखी नजरों से उन्हें देखता है। गुड क्रिकेट। इसी के लिये अरूण जेटली और नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि यूपीए की सरकार को लानत है जो चुनाव के दौरान इस महान महोत्सव का आयोजन भारतवर्ष में नहीं कर पाती। कितने शर्म की बात है। वो राष्ट्रभक्त लोग हैं। सोच समझकर कहते होंगे। ........................................सुखनवर
अंदाज़े बयां और apnikahi.blogspot.com

Sunday, May 3, 2009

एक आध्यात्मिक देश भारत में चुनाव के मुद्दे

भारत एक आध्यात्मिक देश है। इसमें मुझे पहले से ही कोई शक नहीं है। ये शक इसीलिये नहीं है कि काफी दिनों पहले एक घटना सुनने में आई थी जिसमें एक व्यक्ति कह रहा था कि उसे विश्वास हो गया है कि ईश्वर है। ईश्वर की पार्टी के लोग उससे पूछ रहे थे कि ऐसा क्यों हुआ ? हमने ऐसा क्या कर दिया कि तुम्हें ईश्वर पर भरोसा हो गया। उसने कहा कि हिन्दुस्तान यानी भारतवर्ष आज भी है यह एक सचाई है। इसीलिये भगवान है। जैसे हालात हैं उसमें बिना ईश्वर के यह भारतवर्ष जीवित न रहता। इसीलिये मैं कहता हूं कि ईश्वर है। इसी प्रकार मुझे भारतवर्ष का चुनाव अभियान देख कर ईश्वर और लोकतंत्र दोनों पर पूरा भरोसा हो गया है। इसी का परिणाम है कि मैंने वोट भी डाला है। मै बहुत जागरूक हो गया हूं। मुझे पता चल गया है कि भारत के पिछड़ेपन का कारण क्या है ? और ये आगे कैसे जायेगा यह भी समझ में आ गया है।
मैंने वोट इसीलिये डाला कि मुझे पता चला कि मेरे देश के विकास की कुंजी मेरे पास ही है। मुझे बड़ा दुख है कि मेरे देश मंें एक आदमी एक ही वोट दे सकता है। मैं चाहता था कि जितने लोग देश का भला करना चाहते हैं मैं उन सभी को वोट दूं। यानी मेरी इच्छा थी कि मेरे शहर में यदि पांच लोग चुनाव में खड़े हैं और सभी देश का भला करने के लिये लालायित हैं तो मैं उनमें से एक को क्यों चुनुं। बाकी लोग व्यर्थ ही निराश हो जायेंगे और देश का बुरा करने लगंगे। भला करने वाला एक रहेगा और बुरा करने वाले पांच दस हो जायेगे। इससे तो चुनाव का मकसद ही बेकार हो जायेगा। मगर क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है। यहां लोकतंत्र भयानक रूप से मजबूत है इसीलिये क्या किया जा सकता है। एक ही आदमी से भला करवाओ। जितना कर पाये।
इन चुनावों में उम्मीदवार बहुत खुश दिखाई पड़े। उनका कहना था कि कोई मुद्दा तो है नहीं। इसीलिये किसी को किसी मामले में पक्ष विपक्ष में बोलना नहीं है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालते जाओ और ईश्वर पर भरोसा रखो क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है। बिलकुल होली का माहौल है। सभी लोग कीचड़ से सने हैं और कीचड़ ही उछाल रहे हैं। पहले कुछ लोग दो तीन गुटों मं बंट जाते थे तो कीचड़ का उपयोग घट जाता था। मगर इस बार हर उम्मीदवार और उसका दल अपने आप में स्वतंत्र है। उसे किसी की कोई गरज नहीं है। मतदाता की तो बिलकुल नहीं। मतदाता ने भी कुछ ऐसा ही तय कर लिया। न तुम हमारे लिए न हम तुम्हारे लिये। एक दम उन्मुक्त। जिस तरह की वस्त्रहीनता का प्रदर्शन हमारे टी वी के चैनलों में होता उसी तरह की वस्त्रहीनता का प्रदर्शन चुनाव के दौरान भाषणों और बहसों में पेश किया गया। यहां लोकलाज के भय से वस्त्रहीनता शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है पर पाठक उसे नंगई ही समझें।
लोकतंत्र की यह अनिवार्य शर्त है कि जो चुनाव लड़ेगा वही हारेगा या जीतेगा। जो जीतेगा वो दिल्ली में जाकर देखेगा कि और कौन कौन जीते हैं। फिर सभी जीते हुए लोग दो या तीन गिरोहों मं खड़े हो जायेंगे। दो गिरोह बन गये तो ठीक, यदि तीन या चार बन गये तो दो बातें हो जायेंगी। दो बने तो दो में से एक की सरकार बन जायेगी। मगर इस बार चुनाव के पहले ही तीन गिरोह बने हुए हैं। चैथा गिरोह भी है मगर वो अभी से कह रहा है हम अलग जरूर रह रहे हैं मगर हमारा घरवाला वही है। मगर क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है इसीलिये कोई समस्या नहीं है। पूरे देश ने मान लिया है कि हां भैया आप तीसरे मोर्चे वाले ही सरकार बनायेंगे और बाकी दो लोग जिनके पास कुल मिलाकर बहुमत रहेगा वो विपक्ष में बैठेंगे। कौन बहस करे। तीसरा मोर्चा गजब का सि़द्धांतवादी है। जो कहीं नहीं है वो तीसरे मोर्च में है। तीसरे मोर्चे में रहने के लिये किसी को कुछ नहीं करना है। बस रहना है। इतना लचीलापन है कि जो प्रधानमंत्राणी की प्रत्याशा रखती हैं वो तीसरे मोर्चे में नहीं हैं फिर भी हैं।
हमारे चुनाव में केवल कीचड़ एक मात्र मुद्दा है। आगामी एक साल बाद के भारत के बारे में किसी के पास कोई विचार नहीं है। कोई दृष्टि नहीं है। हम या तो क्षण वादी हैं या सहस्त्रवर्ष वादी। या तो एक सेकंड या फिर एक हजार साल इन दोनों में से किसी एक पर बातचीत की जाती है। सन् चालीस में हम लोग चालीस करोड़ थे। आज हम एक अरब से ज्यादा हैं। जमीन और अनाज उतना ही है। ये बढ़ती जनसंख्या हमें कहां ले जायेगी। हमारी नदियां सूख रही हैं। जो पानी है वो गटर से गंदा है। जमीन के नीचे का पानी सैकड़ों फुट नीचे जा रहा है। पानी की त्राहि त्राहि मची है। जंगल कट चुके हैं। हरियाली गायब है। अनाज का उत्पादन घट रहा है। खेती की जमीन घट रही है। रसायनों की तबाही खेतों में भी है और मनुष्य के शरीर में भी। इक्कीसवीं सदी में हमारी चिन्ता ये है कि हम भूखे मरें तो मरें, बेरोजगार मरें तो मरें लेकिन हम हिन्दू रहें या मुसलमान, सिक्ख, ईसाई जरूर रहें। हम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र अवश्य रहें। धर्म और जाति और इनके लिये एक दूसरे का गला काट लेना ये हमारा प्रमुख खेल है। क्यों न हो आखिर हम एक आध्यात्मिक देश में रहते हैं। हम किसी भी जाति या धर्म के हों हम ग्रेट ब्रिटेन की भाषा बोलते हैं जैसी भी बोलें। हमारी भाषाएं चाहे मातृभाषा हो या राष्ट्रभाषा मर रही हैं और उन्हें कोई पानी देने वाला नहीं है।
मगर ये हमारे चुनाव में कोई मुद्दे नहीं हैं। हमारे मुद्दे है मनमोहन और अडवाणी, आतंकवाद और कंधार, स्विस बैक में जमा पैसा, हमारा विकास उनका विकास, कांग्रेस ने कुछ नहीं किया भाजपा ने कुछ नहीं किया, वरूण गांधी, यूपीए, एनडीए, तीसरा मोर्चा, आचार संहिता उल्लंघन इति। इन मुद्दों पर चुनाव लड़ लिया गया है बाकी दो चरण का भी लड़ लिया जायेगा। किसी न किसी की सरकार बन जायेगी। मनमोहन, आडवाणी या लालू से देवगौड़ा तक कोई भी प्रधानमंत्री बन जायेगा मगर हमारे नल से पानी कैसे आयेगा ? हवा में आक्सीजन कहां से रहेगी यदि हरियाली नहीं रहेगी ? एक अरब लोगों के लिये अनाज कैसे पैदा होगा ? उनके घर कैसें बनेंगे ? वो क्या पहनेंगे ? हमारा धर्म दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है इसे प्रमाणित करने के लिये आयोजित दंगे-फसाद कैसे बंद होंगे ? हमारी जाति मनुष्य जाति है ये कैसे माना जायेगा ? हजारों साल मं बनी हमारी भाषाएं अंग्रेजी के हाथ खत्म हो जायेंगी फिर क्या होगा ?
ये मुद्दे चुनाव के मुद्दे किस चुनाव में बनेंगे ? क्या वो चुनाव होगा ? क्या हम वोट देने के लिये बचेंगे ?
.................सुखनवर

Monday, April 27, 2009

प्रधानमंत्री पद की मार्केटिंग

कस्मे वादे प्यार वफा सब बातें हैं बातों का क्या। कोई किसी का नहीं ये झूठे नाते हैं नातों का क्या। ये मनोजकुमार इतने बड़े भविष्यवक्ता कैसे हो गये मेरी समझ में नहीं आता। उन्हें कैसे पता चल गया कि चुनाव में वादे किये जाते हैं और नाते रिश्तों को लोग भूल जाते हैं। आगे कवि कहता है कि सारे नाते रिश्ते झूठे हैं और इन नातो का भरोसा न करना और अपने भरोसे रहना। ये बात वोटर को भी समझ में आ गई। वो वोट डालने ही नहीं गया। जब आतंक का कहर बरपा था तो संवेदनशील लोग भावुक होकर मोमबत्ती जला रहे थे। अब चुनाव का कहर बरपा है तो कह रहे हैं कि वोट जरूर देना। अच्छे उम्मीदवार को देना। अच्छा उम्मीदवार कौन है? ये संवेदनशील लोग नहीं बताते। पर कहते हैं वोट जरूर देना। ये लोग अंग्रेजी पढ़े लोग हैं। ये खुद वोट डालने नहीं जाते और जाते हैं तो किस किस को जिताते हैं ये पढ़े लिखे लोगों वाले मतदान क्षेत्रों का परिणाम देखने से पता चल जाता है। इनने सबकुछ पढ़ा है। ये सब कुछ जानते भी हैं। जब हत्यारे लुटेरे कालाबाजरिये चुनाव में खड़े हों तो वोट दिया या न दिया लोकतंत्र का तो भटरा बैठना ही है। गरीब जानता है। उसे लोकतंत्र के चांचले समझ में आते हैं। उसे अपने वोट की कीमत मालूम है। उसके वोट की कीमत दो कौड़ी की नहीं है। इसीलिये आजकल गरीब डंके की चोट पर जुलूस में जाने का, वोट डालने का हर चीज का पैसा ले लेता है। बस या ट्रक में बैठने के पहले ले लेता है। खाना पानी अलग। देने वाले देते हैं।
आजकल मार्केेटिंग का जमाना आ चुका है। हर चीज को बाजार में बेचना हैं। लोकतंत्र को भी बाजार में बेचना है। इसीलिये टी वी में बेशर्म विज्ञापन आ रहे हैं। हम तीन रूपये किलो अनाज देंगे। दूसरा कहता है हम दो रूपये देंगे। एक कहता है कि तीन लाख पर इन्कमटैक्स मुक्त कर देंगे। दूसरा कहता है हम तो पहले ही कह चुके हैं। एक कहता है कि हम लाडली लक्ष्मी योजना शुरू करेंगे तुम्हारी लड़की को एक लाख रूपये देंगे। दूसरा कहता है कि हमारी धनलक्ष्मी योजना तो पहले से है उसमें तो हम दो लाख रूपये देंगे। एक कहता है कि किसानों के सारे कर्जे माफ कर देंगे दूसरा कहता है कि हमने तो पहले ही कर दिये हैं। गरीब पूछता है भैया अब तक तुम्हें कौन रोक रहा था हमारी गरीबी दूर करने से। अनाज सस्ता देना था तो चुनाव तक क्यों रूके थे ? लाडली लक्ष्मी हो या धनलक्ष्मी हो भला तो हमारी लड़की का ही होना है अब तक क्यों रूके हो ? कर्जे माफ करना है, सस्ता कर्जा देना है तो दो ना भैया। कौन तुम्हें रेक रहा है।
एक शब्द है विकास। इससे बड़ा जालसाजी भरा शब्द लोकतंत्र में नहीं है। जो हुआ है वो विकास है। जो नहीं हुआ वो भविष्य में होने वाला विकास है। विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ा जा रहा है। ऐसा कहते हुए शूरवीर चारों तरफ देखते हैं मेरी मिसाइल से कोई बचा तो नहीं । क्या बाकी आदमी विनाश के मुद्दे पर चुनाव लड़ रहे हैं ? विकास वो है जो हम करते हैं। चाहे पांच साल में करें या पांच महीने में। ये विकास किसका है। विकास उसका है जो लखपति से करोड़पति बन गया। उसे अपनी मंहगी मोटरगाड़ी में चलने के लिए अच्छी सड़क बना दी। गाड़ी खरीदने को कर्जा दे दिया। उद्योग लगाने को कर्जा दे दिया। उद्योग डूबने पर मदद के लिए पैसा दे दिया। फिर उद्योग के लिए सब्सिडी दे दी। फिर बैंक का कर्जा माफ कर दिया। विकास ही विकास। बाकी एक जुमला तो है ही जिसे हर विरोधी वक्ता अपने भाषण के शुरू में गायत्री मंत्र के समान बोलता है ’’ कांग्रेस ने पिछले पचास सालों में कुछ नहीं किया’’। शर्म इनको मगर नहीं आती।
देश की सबसे पुरानी पार्टी की महिमा अपरंपार है। एक परिवार मंे तीन सदस्य हैं। मंा, बेटा, बेटी। ये सब कुछ तय करते हैं। यही वोट लेते हैं। ये ही प्रचार करते हैं। ये ही सवाल करते हैं। ये ही जवाब देते हैं। ये राजनीति के बहुत कच्चे खिलाड़ी हैं। पर ईमानदार हैं भोले हैं। राजीव गांधी भी भोले थे और जबरदस्ती राजनीति में खींच लाये गये थे। आरोप ये है कि कांग्रेस में वंशवाद है। ये सही है। पर ये इसलिये है कि कांग्रेस में जो लोग हैं वो इनके नाम पर यस सर बोलते हैं। ये कैरम की लाल गोटी हैं। ये ताश के खेल का इक्का हैं। इसीलिये ये हाईकमान है। सब इनके पीछे इसलिये खड़े हैं कि यदि ये हट जायें तो किसी के कंधे पर सिर न बचे। सब एक दूसरे का गला काट दें। चुनाव में टिकट उसे दिया जायेगा जिसके गुट का नेता टिकट हासिल करने के युद्ध में विजयी होगा। चुनाव जीतना जरूरी नहीं है। टिकट जीतना जरूरी है। जिसने टिकट ले ली उसने मैदान जीत लिया। अब चुनाव में उसकी जमानत जब्त हो जाये तो उनकी बला से। रीवां सतना क्षेत्र अर्जुन सिंह के कार्यक्षेत्र हैं। उस क्षेत्र की टिकट उन्हंे नही दी गई। मिलती तो भी शायद न जीतते लेकिन अभी तो पक्का है कि ये सीटें कांग्रेस नहीं जीत रही। मगर चेहरे पर शिकन नहीं है। क्योंकि टिकट युद्ध में उन्हें हराया जा चुका है।
कहने को कांग्रेस में लोकतंत्र है पर नीचे से ऊपर तक केवल मनोनयन है। हर प्रदेश में अनेक सेनापति हैं। उनकी अलग अलग सेनायें हैं। ये सेनायें कभी विरोधी दल से नहीं लड़तीं। ये केवल दूसरे सेनापतियों की सेनाओं को पराजित करना चाहती हैं। इन सेनाओं का एक ही काम है-सेनापति की जैजैकार करना। पूरे देश के ऐसे तमाम सेनापति केवल एक परिवार के सामने नतमस्तक हैं। वही इनमें युद्धविराम करा कर रखता है। एक बार शून्य पैदा हुआ जब पी वी नरसिंहाराव प्रधानमंत्री बन गये थे। उनके समय में कांग्रेस पार्टी का जो सत्यानाश हुआ वो कोई कैसे भूल सकता। वो मौनी बाबा कहलाते थे। वो भी इसीलिये प्रधानमंत्री थे क्योंकि वो तो बन गये थे पर कोई दूसरा न बन पाये। जैसे सबके झगड़े में देवगौड़ा प्रधानमंत्री बन गये थे वैसे ही कांग्रेस के झगड़े में नरसिंहाराव बन गये थे। और तब तक बने रहे जब तक कांग्रेस को हरवा नहीं दिया। उपचार तब ही हो सका जब सोनिया जी मैदान में उतारी गईं। जब हैडमास्टर आया तभी कक्षा शांत हुई।........................................सुखनवर

Monday, April 20, 2009

वो मुझे इग्नोर करती है कभी मेरा नाम तक नहीं लेती

एक आदमी रात के अंधकार में कमरे के अंदर अकेला घूम रहा है। आदमी बुजुर्ग है। हालांकि मानने को तैयार नहीं है। चांद निकली है। रूई के समान बड़ी बड़ी मूंछें ओठों के उपर रखी हैं। देखने से ही लगता है कि आदमी की नींद उड़ चुकी है। आदमी कई बरसों से सोया नहीं है। हो सकता है पंाच बरसों से न सोया हो। कई लोगों का कहना है कि पांच बरस पहले भी ये सोता नहीं था पर किसी को पता नहीं था कि ये जाग रहा है। उस समय भी इसकी नींद हराम थी।
ये आदमी कौन है ? आखिर चाहता क्या है ? वो बार बार एक गोरी महिला की तस्वीर के पास जाता है। उसे चुनौती देता है। तू सामने तो आ फिर मैं बताउंगा। कभी कभी मुक्का दिखाता है। रात में कई बार नाम ले लेकर कोसता है। फिर उठता है और कुर्ता पाजामा उतारकर खाकी हाफ पेंट पहन लेता है। नमस्ते सदा वत्सले करता है। कमरे में घूमता रहता है। फिर नागपुर फोन लगाता है। काफी देर तक घंटी जाती है मगर फोन कोई नहीं उठाता। वापस आकर फिर जोधपुरी कोट पेंट पहन लेता है। आदमकद आईने के सामने खड़ा हो जाता है। काफी देर तक अपने को निहारता रहता है। आखिर मुझमें क्या कमी है ? उसके पास एक पगड़ी भी है उसे लगाकर देखता है। केवल दाढ़ी नहीं है वरना दिखता तो मैं भी वैसा ही हूं। अंग्रेजी मैं भी बढ़िया बोल लेता हूं। बल्कि मुझे हिन्दी आती है और उसे नहीं आती। फिर मुझमें क्या कमी है।
अचानक सिर धुनने लगता है। फिर कुछ नहीं सूझता। क्या करूं ? कहां जाऊं ?
एक परकीय काया का प्रवेश
प्रश्न: तेरा कष्ट क्या है बाबा ?
उत्तर: एक कष्ट हो तो बताऊं ?
प्रश्न: चलो एक ही बता दो ।
उत्तर: मैं उसे इतना कोसता हूं मगर वो मेरा नाम तक नहीं लेती। इससे मेरी खीझ और बढ़ जाती है। मैं आधा घंटा भाषण देता हूं तो सौ बार उसका नाम लेता हूं। वो एक घंटा भाषण देती है तो भी मेरा नाम तक नहीं लेती। मुझे इग्नोर करती है।
प्रश्न: और बोलो
उत्तर: ये इतने कठिन समय चुनाव हो रहे हैं कि कोई मुद्दा ही नहीं है। बड़ी मुश्किल से अपने गठबंधन और अपनी पार्टी के लोगों को तैयार किया कि एक मुद्दा तो ये मान लो कि देश के सामने सबसे बड़ी समस्या मेरी बढ़ती उम्र है। यदि इस बार भी नहीं बना तो अगला जन्म कब होगा कब मैं बड़ा होउंगा कब मैं प्रधानमंत्री बनूंगा ? साले सब गठबंधन वाले छोड़के चले गये। जोे बचे हैं वो चोरी छुपे कहते हैं कि अपनी तो सरकार नहीं बनना ये प्रधानमंत्री कहां से बनेंगे। कह दो कि हां बुढऊ तुम्हीं प्रधानमंत्री बनोगे। जाता क्या है। मेरी पार्टी के लड़के कहते हैं जब तक ये रहंेगे किसी को न बनने देंगे इसीलिए काहे को पंगा लें ?
प्रश्न: और बोलो बाबा
उत्तर: जब प्रधानमंत्री का तय हो गया तो मैंने आतंकवाद का मुद्दा उठाया तो ये कहते हैं कि कंधार कांड के बारे में क्या कहा्रेगे ? तब क्या कर रहे थे। बुरा फंसा दिया है।
बड़ी मुश्किल से एक और मुद्दा पकड़ के लाया। स्विस बैंक वाला। कहा देश का पैसा देश में लाओ। तो अपने ही लोग पीछे पड़ गये। कहने लगे सर जी अब ज्यादा न उछालो इस मामले को। हम लोगों की मेहनत की कमाई का पैसा है जो वहां जमा किया है। जब चंदा लेते हो तब नहीं पूछते धन कैसा है काला है कि सफेद है। ज्यादा स्विस बैंक स्विस बैंक करोगे तो नीचे से दरी खींच देंगे। एक तो तुम जैसी हारी हुई बाजी पर पैसा लगाएं और तुम हमारी जेब कटवाओ। रहने दो हमें नहीं लड़वाना तुम्हें चुनाव।
प्रश्न: और बोलो बाबा, बोलते जाओ। आज मन की पूरी भड़ास निकाल लो। कम से कम चैन से सो तो सकोगे।
उत्तर: एक वो वरूण गांधी है। लड़का है। उसे लगा कि वहां राहुल गांधी प्रधानमंत्री बन सकता है तो यहां इस तरफ से मैं क्यों नहीं बन सकता। उसकी थोड़ी रस्सी क्या छोड़ी वो तो पूरी पाटीं के कपड़े नुचवा बैठा। उधर नरेन्द्र मोदी अलग उम्मीद से है। मुंह चलाना मैंने सिखाया आज ये मेरी ही रोजी रोटी छीनने में जुटे हैं। वरूण को बोला था कि थोड़ा माहौल गर्म करो मगर उसने तो आग ही लगा दी।
मैंने सोचा कि मनमोहन सिंह तो अर्थशास्त्री हैं। भाषण देना तो आता नहीं। उनको खुली बहस की चुनौती दे दी। मैंने सोचा कि अमेरिकी राष्ट्रपति के चुनाव जैसी वाद विवाद प्रतियोगिता हो जाये तो मैं जीत जाऊंगा। मगर वो मुकाबले के लिए उतरे नहीं कहने लगे कि संसद में जब बोलने का मौका आता है तब या तो उपद्रव करते हो या बायकाट करते हो। हम तुमसे टी वी में क्यों बहस करें। हम तो तुम्हें प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार मानते ही नहीं।
प्रश्न: फिर
उत्तर: फिर मैंने सोनिया को चुनौती दी
प्रश्न: फिर
उत्तर: (फूट फूट कर रोने की आवाज आती है।) उसने मेरी चुनौती सुनी तक नहीं। वो मुझे इग्नोर करती है। कभी मेरा नाम तक नहीं लेती। मैं उसे देख लूंगा।
प्रश्न: मगर कब ?
इतना कह कर वह परकीय आत्मा उड़ गई। बुजुर्ग फिर कमरे मैं बेचैन चक्कर लगा रहे हैं।
....................................सुखनवर

Sunday, April 19, 2009

एक वो गांधी एक ये गांधी

एक वो गांधी एक ये गांधी
इन दिनां में महात्मा गांधी को लेकर चिन्ता में हूं। उनके नाम का बहुत चर्चा है। उनका हमनाम जेल में है। वो भी कई बार जेल में रहे। जितने बार वर्तमान जेलयात्री का नाम लिया जाता है उतनी बार महात्मा गांधी की याद दिलाई जाती है। वो महात्मा थे तो ये आत्मा तो होंगे ही ऐसा भ्रम पैदा किया जा रहा है। उनने अभी अभी राजनीति में कदम रखा है। और वो भी भाजपा के परचम के तले। वरूण गंाधी खूब प्याज खा रहे हैं । नए मुल्ला हैं। पहले बोलते हैं फिर आडवाणी जी से पूछते हैं कैसी रही। वो कहते हैं बहुत अच्छे, खेंचे रहो। तुम्हें हम पार्टी का महासचिव, पार्टी की केन्द्रीय कार्यकारिणी में लेंगे। तुम चलो नागपुर। तुम्हें बाॅस से मिलवाते हैं। इन पार्टियों में जिस दिन आदमी पार्टी में शामिल होता है उसी दिन पार्टी का महासचिव बना दिया जाता है। केन्द्रीय कार्यकारिणी में शामिल हो जाता है। उसे ये गलतफहमी रहती है कि पार्टी मंे उसकी बड़ी पूछ है। वो नहीं जानता कि वो केवल एक मोहरा है। उसका चेहरा या उसके परिवार का इतिहास बिकाउ है। इसीलिए उसकी पूछ है।
वरूण जी युवा हैं। मुझे लगता है कि उनने वर्तमान भारतीय मीडिया का गहराई से अध्ययन किया है। इसीलिये उन्हें समझ आ गया कि राष्ट्रनेता बनने के लिये कुछ करना जरूरी नहीं है बस मुंह चलाना चाहिये और फिर मीडिया को समझा देना चाहिये कि हमने मुंह चला दिया है। अब आप अपना मंुह चलाओ। फिर कुछ करने की जरूरत नहीं। बाकी काम उत्साही चैनल वाले खुद कर लेंगे। वो जाकर हर पार्टी के नेता से पूछ लेंगे। प्रशंसा निंदा भत्र्सना करवा देंगे और उचित भुगतान मिलने पर दो चार दिन बस आप होंगे और टीवी चैनल के उत्साही छोकरे होंगे। यदि आप चाहें तो आपके किये के बारे में परिचर्चा की जा सकती है। जिसमें पूर्व घोषित टीमें खेलेंगी। एक पूरी तरह विरोध करेगी। एक पूरी तरह समर्थन करेगी। मीडिया चैनल के समन्वयक का काम तो देखने लायक रहता है। वो ऐसा व्यवहार करते हैं जैसे वे न्यायाधीश और विरोधी पक्ष के वकील हो। वो कड़ी पूछताछ करते हैं और तत्काल निर्णय पारित करते जाते हैं। तो वरूण गांधी अभी चुनाव तक पूरा खेल खेलेंगे। वो हर बाॅल खेलेंगे। उनका सौभाग्य है कि उन्होंने भाजपा का दामन थामा है।
वरूण गांधी से पूछा गया कि आपने सी डी मंे कहा है कि हम मुसलमानों के हाथ काट डालेंगे। उनने कहा कि हमने नहीं कहा। ये सी डी झूठी है। उनसे कहा गया कि आप साबित करिये की सी डी झूठी है तो उनने कहा कि हम साबित नहीं करेंगे हम जेल जायेंगे। लड़का भाजपा का मुल्ला है। हर बात को इशू बनाना जानता है। न्यूज में रहना जानता है। अपराध को वीरता बनाना जानता है। अदालत ने कहा कि हमने आपको गिरफ्तार करने का आदेश नहीं दिया। वरूण ने कहा कि हम तो गिरफ्तार होने के लिए आए है। और गिरफ्तार हुए बिना नहीं मानेंगे। आप गिरफ्तार नहीं करेंगे तो भी हम उपद्रव करंेगे और आप गिरफ्तार करेंगे तो भी हम उपद्रव करेंगे। अदालत को अंत मंे कहना पड़ा कि आप थाने चले जाइये और चाहे जिस धारा में गिरफ्तार हो जाइये। गिरफ्तार वरूण जेल रवाना हो गये। उनके साथ जमा किये गये कई हजार लोग सड़कों पर उपद्रव करते रहे। न्यूज बनाते रहे। उपद्रव का काम पूर्ण हुआ। वापस गये । न्यूज बन गई। वरूण की माता जी बहुत ही अहिंसावादी है। उन्हें जानवरों पर अत्याचार बिल्कुल मंजूर नहीं। कुत्ते बिल्ली चूहे उनके प्रिय जानवर हैं। मुसलमानों को वो जानवर नहीं मानती। इसीलिये उनके लड़के को आजादी है कि वो उनके हाथ पैर काट डालने का आव्हान करे। मेनका गांधी अपने शहीद बच्चे से मिलने गईं। बाहर निकलकर उन्होंने बताया कि वरूण अभिमन्यु है। यानी वो द्रौपदी हुईं। स्वर्गीय संजय गांधी अर्जुन हुए। वो अपने को द्रौपदी क्यों मान रही हैं ? वरूण ने जो कुछ कहा वो अच्छी तरह सोच समझ कर कहा। उसके बाद जानबूझ कर गिरफ्तार हुए। बाद में उनपर रासुका लगा। वो अभिमन्यु कहां हुए। वरूण एक टुच्चे अपराध में जेल में हैं। मगर उनकी माताजी इस कदर गंभीर भाव बनाए हैं जैसे वो शहीद की मां हों।
वरूण चुनाव लड़ रहे हैं। भाजपा की टिकट पर। इस सीट से उनकी मां मेनका गांधी सांसद रह चुकी हैं। उनके मुद्दे क्या हैं? उनका मुद्दा है अधिकाधिक उग्र होकर खबरों में छाना। वो बाही तबाही बककर छा चुके हैं। भाजपा की ंिचता ये है कि चुनाव अभी काफी दूर हैं इस तरह के मुद्दे तत्काल भुनाने के लिए हैं। दिन बीतते ही ये बुलबुले के समान बैठ जाते हैं। इसीलिए किसी न किसी तरह इस मामले को जीवित रखना है। खबरें अच्छी आ रही हैं। खबरचियों ने फैला दिया है कि वरूण के मामले से चुनावों में उ प्र में भाजपा की स्थिति सुधरी है। कई सीटों पर फायदा हो रहा है। हिन्दु मुसलमान धर्म के नाम पर इकठ्ठे हो रहे हैं। राजनाथ सिंह की बांछंे खिलीं हुई हैं। सारे नेता यू पी के हैं और यूपी में राम मंदिर भी है और यू पी में भाजपा की लुद्दी सुटी हुई है। वरूण के मामले से भाजपा पहले सकपकाई मगर फिर आत्मविश्वास लौट आया। सोचा यूपी में इसी से नरेन्द्र मोदी का काम ले लेंगे। बेवकूफ है जो कहोगे उससे चार बोल ज्यादा ही बोलेगा। यूपी में विनय कटियारों की कारतूस बेकार हो चुकी हैं। समय आ गया है कि कोई नया बड़बोला तैयार किया जाए। वो तैयार हो चुका है। भाजपा का कहना है कि वो विकास के मुद्दे पर चुनाव लड़ रही है। सच है उसने वरूण गांधी का विकास किया है।
नब्बे के दशक को याद करिये। जब बावरी मस्जिद गिराई गई थी। सड़कों पर यही आडवाणी, यही उमा भारती, साध्वी ऋतंभरा क्या क्या नहं कहा करती थी। साध्वी ऋतंभरा ने तो कीर्तिमान बनाया था। उनके उच्च विचारों को सुनने से सिर शर्म से झुक जाता था। ऐसी पार्टी चाहती है कि उसे राष्ट्र की बागडोर सौंप दी जाए। सौंप दीजिये। .....................................सुखनवर