Wednesday, May 27, 2009

मंत्री पद की वासना

चुनाव हो चुके हैं। मंत्रिमंडल बनना है। पार्टियों की शक्ति देखिये। कांग्रेस के 200, बीजेपी के 150 और उसके बाद सीधे समाजवादी पार्टी के तीसरे नंबर पर 23 चैथे नंबर पर मायावती 20 और तृणमूल कांग्रेस पांचवें नंबर पर 19 सांसदों के साथ। द्रमुक और राष्ट्रवादी कंाग्रेस पार्टी के केवल 8 सांसद हैं। मगर गठबंधन सरकार है तो मंत्री पद के लिए रूठना मनाना चल रहा है। द्रमुक में तो बहुत ही अंदरूनी संघर्ष चल रहा है। वे करूणानिधि हैं। उन्होंने तीन महिलाओं पर तरस खाया और उन्हें अपनी पत्नी बनाया। अब उनके बाल बच्चों पर तरस खाने के दिन आ गये हैं। तीनों केा बराबरी का हिस्सा चाहिए संपत्ति में। दुर्भाग्य से यह संपत्ति भारत सरकार है। तृणमूल कांग्रेस के लिए यह देश प बंगाल है। वे भारत सरकार की रेल मंत्री बनेंगी पर रेल चलेगी बंगाल में। इस समय विजय का दर्प इस कदर सिर पर सवार है कि बस चले तो प बंगाल सरकार को तोप से उड़ा दें। राष्ट्रवादी कांगे्रस क्यों बनीं ? ये सभी कांग्रेसी हैं। पवार ने किसी गणित में सोनिया गंाधी के विदेशी मूल के होने का मुद्दा उठाया। फिर राष्ट्रवादी हो गये। झगड़ा महाराष्ट्र का था। कालचक्र घूमा तो उन्हीं सोनिया जी के साथ मिलकर यूपीए में कृषि मंत्री बने बैठे हैं। इनसे कोई पूछ नहीं सकता कि क्यों महाशय जब सोनिया जी के साथ हैं तो फिर आपकी अलग से कांग्रेस क्यों ?
हमारे देश में मंत्री पद योग्यता का सूचक नहीं है। कौन किसका कितना और क्या बिगाड़ सकता है इसका पैमाना है। शरद पवार या द्रमुक या तृणमूल सरकार का बहुत कुछ बिगाड़ सकते हैं इसीलिए इन्हें 200 सांसद वाली कांग्रेस पार्टी से ज्यादा मंत्री पद चाहिये। आप देखेंगे कि कोई पार्टी ये नहीं कहती कि हमें गृहमंत्री या रक्षा मंत्री या वित्त मंत्री बनाया जाये। इन्हें रेल, कृषि , कोयला, पेट्रोलियम, जैसे विभाग चाहिए। इन विभागों के बारे में कहा जाता है कि इनमें सात पुश्तों तक के कल्याण की व्यवस्था हो जाती है। किसी विभाग का मंत्री बनने के लिए किसी विशेष योग्यता की जरूरत नहीं है। आपकी पार्टी को दस मंत्री पद दिये गये हैं। बन जाइये मंत्री। मंत्री बनते ही सांसद को कारें, बंगला, आॅफिस, एसी हवाई यात्रा, इत्यादि सुविधायें मिल जाती हैं जो सामान्य भारतीय आदमी के लिए एक सपना है। कुछ साहब मिल जाते हैं जो सर सर करते रहते हैं। जीवन सफल हो जाता है।
अधिकांश मंत्रियों का मंत्रित्व काल सुविधाओं को भोगने में चला जाता है। अधिकारी भी यही चाहते हैं कि आप देशाटन कीजिये और उद्घाटन ,सम्मान वगैरह करिये कराइये। विभाग के कामों में टांग मत अड़ाइये। विभाग में यदि ऊपरी कमाई है तो आपको भरपूर हिस्सा मिलेगा ताकि आप अगला चुनाव लड़ सकें और पिछले चुनाव की लागत निकाल सकें। बाकी चुप रहें। खुद खायें और दूसरों को खाने दें।
यदि कोई मंत्री वास्तव में कुछ करना चाहता है तो उसे अनुभव चाहिये, ज्ञान चाहिये और अपने मातहत अधिकारियों से ज्यादा बुद्धि और विवेक चाहिये। मुख्यमंत्री और प्रधानमंत्री भी यही चाहते हैं कि इस तरह से थोक में बने मंत्री अपनी दुनिया में रहें और सत्ता की दुनिया में टांग न अड़ायें। इसीलिए मंत्रीगण झूठे वादे करने वाले बेदर्दी बालमा कहलाते हैं। वे झूठे वादे न करें तो और क्या करें ? वो तो पार्टी में अपनी ताकत के कारण अपने कोटे में से मंत्री बने हैं। यदि योग्य होते तो किसी अच्छे काम में न लग गये होते।
हमारे देश में एक जादू और होता है। समय समय पर मंत्रिमंडल में फेरबदल होता है। इसके कारण तरह तरह के होते हैं। पर परिणाम एक ही होता है। एक विभाग के अयोग्य मंत्री को दूसरे विभाग का मंत्री बना दिया जाता है। वो वहां भी कुछ नहीं करते थे। यहां भी कुछ नहीं करंेगे। बड़ा हास्यास्पद लगता है ये सुनना कि कल तक जो कपड़ा मंत्री थे आज आदिवासी कल्याण के मंत्री हो गये। रातोंरात उनकी विद्वत्ता का क्षेत्र बदल गया।
मनमोहन सिंह जी का पिछला मंत्रीमंडल बड़ा जोरदार था। उसमें सभी मंत्री गण स्वतंत्र थे। उनके कामों में प्रधानमंत्री का कोई हस्तक्ष्ेप नहीं रहता था। अर्जुन सिंह ने आरक्षण आदि पर अनेक बड़े फैसले लिए। कभी ऐसा लगा नही कि ये मनमोहन सरकार के मंत्री हैं। विरोध में जो आंदोलन हुए वो भी अर्जुन सिंह के विरूद्ध हुए। निर्णयों की घोषणा भी अर्जुन सिंह जी ने की। इसका परिणाम ये हुआ कि जो निंदा हुई वो अर्जुन सिंह की हुई और जो प्रशंसा हुई वो प्रधानमंत्री और कांग्रेस की हुई। एक डा रामदौस थे। वे स्वास्थ्य मंत्री थे। वे एम्स में मनचाहे निर्णय लेते रहे। मगर पता नहीं चला कि ये मनमोहन सरकार के मंत्री हैं और प्रधानमंत्री के नीचे काम करते हैं। एकदम आजाद। लालू की रेल चाहे जहां चलती रही चाहे पटरी हो चाहे न हो मगर प्रधानमंत्री एकदम खामोश। इसीलिये यूपीए गठबंधन बहुत मजबूत रहा।
मंत्री पद पाकर सांसदों और विधायकों को जनता से दूर कर दिया जाता है। आप मंत्री हैं। आपकी सुरक्षा होगी। आप सबसे दूर रहिये। किसी से मिलिये नहीं। आप लालबत्ती में चलिए। आगे एक जीप में साइरन बजेगा। पीछे पुलिस की गाड़ी दौड़ेगी। परिणाम ये होगा कि आप मंत्री पद की मायावी दुनिया में खो जायेंगे और तब तक खोये रहेंगे जबतक आप अगला चुनाव न हार जायें या अगले बार मंत्री न बनाये जायें। ..........................................सुखनवर

Thursday, May 21, 2009

आचार संहिता के पालन हेतु चुनाव

अंदाजे़ बयां और
आचार संहिता के पालन हेतु चुनाव
पुराने जमाने में जब आफसेट प्रिंटिंग भी नहीं आई थी, जब एक्जिट पोल नहीं होते थे, जब लोग चुनाव का मतलब कांग्रेस को वोट देना समझते थे उस समय अखबारों में मतगणना के दिन एक ही हैडलाइन रहा करती थी ’आज पेटी का राजा बाहर आयेगा’। चुनाव में शुरूआत में अलग अलग चुनाव चिन्हों की पेटियां होती थी। फिर एक ही पेटी में सारे वोट डाले जाने लगे। अब इलेक्ट्रानिक वोटिंग का जमाना आ गया है। अब चुनाव लड़ने लड़ाने के लिये इतने कानून बन गये हैं कि चुनाव शहरी लोगों का शगल और ग्रामीण लोगों की मुसीबत बन गया है। शहरी गरीबों के लिये जरूर चुनाव कुछ कमाई करवा जाता है। इस बार के चुनाव का सबसे बड़ा उम्मीदवार आचार संहिता थी। लगता था कि चुनाव इसीलिये हो रहे हैं कि आचार संहिता का पालन हो। उम्मीदवार प्रचार करके देर रात जब घर लौटता था तो पुलिस गिरफ्तार करने के लिए खड़ी रहती थी कि आपने दिन भर में इतने बार आचार संहिता का उल्लघंन कर दिया है। चलिये थाने और जमानत कराईये। हर उम्मीदवार ने दो वीडियो शूटर रखे थे। एक अपने लिये और दूसरा विरोधी उम्मीदवार के लिये। सभी के कार्यकर्ता इसी में व्यस्त थे कि दूसरे की शिकायत करना है।
आचार संहिता के चक्कर में हुआ ये कि पता ही नहीं चला कि चुनाव हो गये। झंडे नहीं लगा सकते, सभा नहीं कर सकते, जुलूस नहीं निकाल सकते, बैनर नहीं लगा सकते, दीवार पर लिख नहीं सकते, किसी का भला नहीं कर सकते, नल बंद हो तो पानी नहीं आ सकता, पानी आ रहा हो तो बंद नहीं कर सकते, नाली-सड़क नहीं बना सकते यानी आप कुछ भी करेंगे तो आचार संहिता भंग हो जायेगी। जो सरकारी कर्मचारी वैसे ही कुछ नहीं कर रहा था उसे एक आदर्श कारण मिल गया कुछ न करने का। आचार संहिता लगी है भाई साहब, होश में तो हो, आपका काम कर दिया तो अभी अंदर हो जायेंगे। जवाब देना मुश्किल हो जायेगा कि काम किया क्यों ? और तो और कोई आदमी किसी को पांच सौ के नोट के बदले सौ के पांच नोट नहीं दे सकता। तुरंत पैसा बांटने के आरोप में बंधा नजर आयेगा।
ये विचार करने का समय है कि चुनाव होते क्यों हैं ? क्या मतदाता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि उसके इलाके से कौन कौन चुनाव लड़ रहा है? उनका चुनाव चिन्ह क्या है? वो क्यों चुनाव लड़ रहे हैं? उनका घोषणा पत्र क्या है? उसे भाषण देना, जनता के मुद्दे उठाना आता है क्या ? वो संसद में जाकर क्या करना चाहता है ? संसद की हर सीट पर दस से पन्द्रह लाख मतदाता होते हैं। एक व्यक्ति आखिर किस तरह से अपने मतदाताओं को अपने बारे में बता सकता है ? मतदान के अंाकड़े बताते हैं कि औसतन पचास प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। यानी जो लोग जीते हैं उनकी जीत में देश के आधी आबादी की कोई रूचि नहीं है। इतना मजबूत लोकतंत्र है। टी वी में बड़े बड़े लोग अंग्रेजी और हिन्दी में समझा रहे हैं कि आप वोट जरूर दें। कैसे दंे ? आप तो पता भी नहीं चलने दे रहे कि कौन कौन खड़ा है। एक एक संसदीय क्षेत्र इतना बड़ा है कि दुनिया में कई देश उनसे छोटे हैं। इसमें यदि एक पर्चा भी बंटवायें तो लाखों रूपये खर्च होते हैं। लेकिन खर्च की सीमा तय है। चुनाव लड़ना अब किसी सामान्य आदमी का काम नहीं रह गया है। सामान्य पार्टी का भी नहीं। आपके पास करोड़ों रूपया हो तभी चुनाव लड़ने की कल्पना कीजिये। अब पार्टियां भी उसी को टिकिट देती हैं जिसकी चुनाव लड़ने की औकात हो। पास से पैसा लगा सके। जब लगायेगा तभी तो बनायेगा। इसीलिये अब हर प्रत्याशी की संपत्ति करोड़ों रूपये में दिखना कोई ताज्जुब की बात नहीं लगती। उमा भारती की पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ा। उमा भारती ने साफ कहा कि हमारे पास पैसा नहीं है। हम चुनाव नहीं लड़ सकते। अभी अभी विधान सभा चुनावों में पूरी पूंजी लुट चुकी है।
मीडिया के मुंह में ख्ूान लग चुका है। चुनाव को नीरस बनाने में मीडिया का बहुत योगदान रहा। अव्वल तो उम्मीदवार और पार्टी के बारे में बिना पेमेन्ट कुछ छापना ही नहीं है। और पेमेन्ट नहीं मिला तो विरोध में ही छापना है। जो पार्टी राज्य सरकार चला रही है। उससे संबंध अच्छे रखना है। उससे विज्ञापन मिलते हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तो घटियापन और ओछेपन की सभी ऊंचाईयों को छू चुका है। उनके लिये चुनाव किसी आइटम सांग से कम नहीं था। उनके लिए कुछ सिरफिरों का जूता चलाना वरदान साबित हुआ। उसी की रिपोर्टिंग करते हुए समय निकालते रहे। देश का भला चाहने वालों को टी वी का चैबीस घंटे चलना बंद करवाना होगा। जनता को कुछ सोचने समझने के लिए अवकाश दिया जाना बहुत जरूरी है। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता में सप्रमाण लिखा है कि इस बार प्रिंट मीडिया ने किस बेशर्मी से उम्मीदवारों को ब्लेकमेल किया है। आज जरूरत है कि सभी राजनीतिज्ञ इस ब्लेकमेल को उजागर करें और हिम्मत के साथ इससे निपटें। ................................................................................सुखनवर


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Tuesday, May 12, 2009

नंगे नाच रहे हैं

कल रात एक बड़ा भयानक सपना देखा। कुछ लोग अपनी अपनी पद्मश्री, पद्मभूषण सम्मान सरकार को लौटा रहे हैं। वो कहते जा रहे हैं कि हम इसके लायक नहीं। हमें आप लोगों ने गलती से दे दिया है। हमने तो मंागा भी नहीं था। हमें तो मालूम भी नहीं था कि इसका मतलब क्या होता है। जब सरकार दे रही थी तो उसे बताना चाहिये था कि हमें लेना पड़ेगा। हम मना भी नहीं कर सकते। नहीं तो देने वाले का अपमान हो जाता है। अब आप ही बताइये कि यदि एक दिन एक विज्ञापन में काम करने के लिये हमें 50 लाख मिल रहे हैं तो हमें क्या करना चाहिये ? क्या हमें नहीं लेना चाहिये ? क्यों नहीं लेना चाहिये ? आखिर हम इस दुनिया में क्यांे हैं ?इसीलिये न कि जितनी जल्दी हो सके जितना ज्यादा हो सके कमा सकें। अब एक तरफ पचास लाख रूपये और दूसरी तरफ एक फ्रेम उसमें तांबे का एक पटिया। तरस आता है साहब इस देश के लोगों पर। दिन भर समय खराब हो वो अलग। फिर हम लोगों को ये शर्ट पेंट पहनने की आदत भी तो नहीं है। कितने दिन हो गये हम लोग दूसरों के दिये हुए कपड़े पहनते हैं। आपको पता है भाई साहब ? हमारे कपड़ों के लिये चंदा देने वालों की लाइन लगी रहती है। जूते वाले, हवाईजहाज वाले, कच्छा बनियान वाले, बिड़ी सिगरेट वाले सब हम लोगों के कपड़े सिलवाते हैं और पैसा भी देते हैं। अब इन भले आदमियों की बात मानें उनका धंधा बढ़ायें कि ये फोकट का सरकारी सम्मान लेने जायें। वो तो हमें बहुत बाद में पता चला कि हमारे देश में इतने अजीब लोग हैं कि बिना पैसे का सम्मान लेने के लिये सालों तक जुगाड़ करते हैं। उन्हें लगता है कि एक कागज राष्ट्रपति के यहां से मिल जायेगा तो जीवन धन्य हो जायेगा। अजीब लोग हैं भाईसाहब।
आजकल जमाना पैसे कमाने का है भाई साहब। फिर हम लोग तो देश के लिये खेलते हैं। देश के लिये कमाते हैं। देश के लिये चंदे के कपड़े पहनते हैं। आपने वो हमारा पाजामा कमीज देखी है ? अरे वही रंगबिरंगी वाली जिसे पहनकर हम लोग क्रिकेट खेलते हैं। कभी कभी तो हमें भी हंसी आती है सर्कस का जोकर जैसे कपड़े पहनना पड़ते हैं। पांव के तलवे से लेकर सिर की टोपी तक कोई जगह नहीं छोड़ी भाई साहब। हम जगह थिगड़े लगे रहते हैं। जूता, साबुन, चिट फंड, सीमेंट, मोबाइल फोन किस चीज का विज्ञापन हमारे शरीर में नहीं चिपका है ? और सच बात तो यह है कि इन्हीं लोगों ने हमें बिकाऊ बनाया है। इन्हीं ने पैसा खर्च करके पहले हमें महान सि़़द्ध किया फिर हमसे कहा कि अब तुम महान खिलाड़ी हो गये हो अब हमारे सामान का विज्ञापन करो। हम तुम्हें उसका पैसा अलग से देंगे।
पर आप ये तो देखो कि इन लोगों का दिमाग कहां कहां दौड़ता है। इनने कहा कि घुड़दौड़ कोई खेल नहीं है। वो जुआं है। मगर लोग कितना आनंद लेते हैं। हम लोग क्रिकेट को जुआं बनायेंगे। हमने कहा कि आप पूरी दुनिया को जुआंघर बना दो हमें पैसे से मतलब। वो बोले तुम्हें बराबर पैसा मिलेगा। तुम लोगों को पुराना जमाना याद है कि नहीं। बड़े बड़े जमींदार, सामंत रात को नाचनेवालियों को बुलाते थे। गैस बत्ती की झकाझक रोशनी होती थी। रात भर नाच चलता था। नाचने वालियों को पैसा मिलता था वो रात भर नाचती थीं। लोग उनपर नोट लुटाते थे। बाद में उन्हें उनका मेहनताना दिया जाता था। खाना खाकर वो वापस रवाना हो जाती थीं किसी और सामंत के यहां नाचने। अब समय बदल गया है। अब वो जमींदार नहीं रहे। वो नाचने वालियां नहीं रहीं। अब हम लोगों ने उन जमींदारों की जगह ले ली है। अब तुम लोग वो नाचने वालियां हो। अब क्रिकेट का खेल वो नाच है। अब होंडा कंपनी जैसी वो कंपनी हैं जो अपना चैक और चिल्लर लिये खड़ी रहती हैं और मैच के अंत पर तुम नाचने वालों पर लुटाती हैं। पहले तीन तीन घंटे में सिनेमा हाॅल में पिक्चर देखी जाती थी अब तीन घंटे में पूरा क्रिकेट का खेल हो जाता है। पुराने सामंतों को एडवांस देकर गाने नाचने वालियों को बुलाना पड़ता था। अब उसमें बदलाव ये आया है कि हम तुम नाचने वालों को पूरा पैसा देकर खरीद लेते हैं। फिर तुम्हें जहां कहेंगे और जैसा कहेंगे तुम्हें नाचना होगा। नाचने में कोई गड़बड़ की तो लात मारकर बाहर निकाल देंगे। पैसा भी छीन लेंगे। हमने कहा हुजुर अरे आप हमें मौका और पैसा दीजिये हम नंगे नाचने को तैयार हैं। हमारे नाच से आपको कोई शिकायत नहीं होगी।
नाच शुरू हो चुका है। नंगे नाच रहे हैं। लुटाने वाले पैसा और चिल्लर फेंक रहे हैं। जो अच्छा नहीं नाचता मालिक उसे हंटर से मार मार कर सही कर देते हैें। हमारे सामंत महान हैं। उनने पैसा दिखाया है तो देशी ही नहीं दुनिया भर के नचैये गोरे काले पीले सभी दौड़ते हुए आ गये हैं। वसुधैव कुटुम्बकम। जनता ने मांग की कि जुआंघर में डांस होता है। तत्काल मांग पूरी हुई। देशी विदेशी नाचने वालियों का ढे़र लग गया। नचनियें बुला दी गई हैं। वो खुशी का इज़हार करती है। दर्शक भूखी नजरों से उन्हें देखता है। गुड क्रिकेट। इसी के लिये अरूण जेटली और नरेन्द्र मोदी कहते हैं कि यूपीए की सरकार को लानत है जो चुनाव के दौरान इस महान महोत्सव का आयोजन भारतवर्ष में नहीं कर पाती। कितने शर्म की बात है। वो राष्ट्रभक्त लोग हैं। सोच समझकर कहते होंगे। ........................................सुखनवर
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Sunday, May 3, 2009

एक आध्यात्मिक देश भारत में चुनाव के मुद्दे

भारत एक आध्यात्मिक देश है। इसमें मुझे पहले से ही कोई शक नहीं है। ये शक इसीलिये नहीं है कि काफी दिनों पहले एक घटना सुनने में आई थी जिसमें एक व्यक्ति कह रहा था कि उसे विश्वास हो गया है कि ईश्वर है। ईश्वर की पार्टी के लोग उससे पूछ रहे थे कि ऐसा क्यों हुआ ? हमने ऐसा क्या कर दिया कि तुम्हें ईश्वर पर भरोसा हो गया। उसने कहा कि हिन्दुस्तान यानी भारतवर्ष आज भी है यह एक सचाई है। इसीलिये भगवान है। जैसे हालात हैं उसमें बिना ईश्वर के यह भारतवर्ष जीवित न रहता। इसीलिये मैं कहता हूं कि ईश्वर है। इसी प्रकार मुझे भारतवर्ष का चुनाव अभियान देख कर ईश्वर और लोकतंत्र दोनों पर पूरा भरोसा हो गया है। इसी का परिणाम है कि मैंने वोट भी डाला है। मै बहुत जागरूक हो गया हूं। मुझे पता चल गया है कि भारत के पिछड़ेपन का कारण क्या है ? और ये आगे कैसे जायेगा यह भी समझ में आ गया है।
मैंने वोट इसीलिये डाला कि मुझे पता चला कि मेरे देश के विकास की कुंजी मेरे पास ही है। मुझे बड़ा दुख है कि मेरे देश मंें एक आदमी एक ही वोट दे सकता है। मैं चाहता था कि जितने लोग देश का भला करना चाहते हैं मैं उन सभी को वोट दूं। यानी मेरी इच्छा थी कि मेरे शहर में यदि पांच लोग चुनाव में खड़े हैं और सभी देश का भला करने के लिये लालायित हैं तो मैं उनमें से एक को क्यों चुनुं। बाकी लोग व्यर्थ ही निराश हो जायेंगे और देश का बुरा करने लगंगे। भला करने वाला एक रहेगा और बुरा करने वाले पांच दस हो जायेगे। इससे तो चुनाव का मकसद ही बेकार हो जायेगा। मगर क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है। यहां लोकतंत्र भयानक रूप से मजबूत है इसीलिये क्या किया जा सकता है। एक ही आदमी से भला करवाओ। जितना कर पाये।
इन चुनावों में उम्मीदवार बहुत खुश दिखाई पड़े। उनका कहना था कि कोई मुद्दा तो है नहीं। इसीलिये किसी को किसी मामले में पक्ष विपक्ष में बोलना नहीं है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालते जाओ और ईश्वर पर भरोसा रखो क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है। बिलकुल होली का माहौल है। सभी लोग कीचड़ से सने हैं और कीचड़ ही उछाल रहे हैं। पहले कुछ लोग दो तीन गुटों मं बंट जाते थे तो कीचड़ का उपयोग घट जाता था। मगर इस बार हर उम्मीदवार और उसका दल अपने आप में स्वतंत्र है। उसे किसी की कोई गरज नहीं है। मतदाता की तो बिलकुल नहीं। मतदाता ने भी कुछ ऐसा ही तय कर लिया। न तुम हमारे लिए न हम तुम्हारे लिये। एक दम उन्मुक्त। जिस तरह की वस्त्रहीनता का प्रदर्शन हमारे टी वी के चैनलों में होता उसी तरह की वस्त्रहीनता का प्रदर्शन चुनाव के दौरान भाषणों और बहसों में पेश किया गया। यहां लोकलाज के भय से वस्त्रहीनता शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है पर पाठक उसे नंगई ही समझें।
लोकतंत्र की यह अनिवार्य शर्त है कि जो चुनाव लड़ेगा वही हारेगा या जीतेगा। जो जीतेगा वो दिल्ली में जाकर देखेगा कि और कौन कौन जीते हैं। फिर सभी जीते हुए लोग दो या तीन गिरोहों मं खड़े हो जायेंगे। दो गिरोह बन गये तो ठीक, यदि तीन या चार बन गये तो दो बातें हो जायेंगी। दो बने तो दो में से एक की सरकार बन जायेगी। मगर इस बार चुनाव के पहले ही तीन गिरोह बने हुए हैं। चैथा गिरोह भी है मगर वो अभी से कह रहा है हम अलग जरूर रह रहे हैं मगर हमारा घरवाला वही है। मगर क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है इसीलिये कोई समस्या नहीं है। पूरे देश ने मान लिया है कि हां भैया आप तीसरे मोर्चे वाले ही सरकार बनायेंगे और बाकी दो लोग जिनके पास कुल मिलाकर बहुमत रहेगा वो विपक्ष में बैठेंगे। कौन बहस करे। तीसरा मोर्चा गजब का सि़द्धांतवादी है। जो कहीं नहीं है वो तीसरे मोर्च में है। तीसरे मोर्चे में रहने के लिये किसी को कुछ नहीं करना है। बस रहना है। इतना लचीलापन है कि जो प्रधानमंत्राणी की प्रत्याशा रखती हैं वो तीसरे मोर्चे में नहीं हैं फिर भी हैं।
हमारे चुनाव में केवल कीचड़ एक मात्र मुद्दा है। आगामी एक साल बाद के भारत के बारे में किसी के पास कोई विचार नहीं है। कोई दृष्टि नहीं है। हम या तो क्षण वादी हैं या सहस्त्रवर्ष वादी। या तो एक सेकंड या फिर एक हजार साल इन दोनों में से किसी एक पर बातचीत की जाती है। सन् चालीस में हम लोग चालीस करोड़ थे। आज हम एक अरब से ज्यादा हैं। जमीन और अनाज उतना ही है। ये बढ़ती जनसंख्या हमें कहां ले जायेगी। हमारी नदियां सूख रही हैं। जो पानी है वो गटर से गंदा है। जमीन के नीचे का पानी सैकड़ों फुट नीचे जा रहा है। पानी की त्राहि त्राहि मची है। जंगल कट चुके हैं। हरियाली गायब है। अनाज का उत्पादन घट रहा है। खेती की जमीन घट रही है। रसायनों की तबाही खेतों में भी है और मनुष्य के शरीर में भी। इक्कीसवीं सदी में हमारी चिन्ता ये है कि हम भूखे मरें तो मरें, बेरोजगार मरें तो मरें लेकिन हम हिन्दू रहें या मुसलमान, सिक्ख, ईसाई जरूर रहें। हम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र अवश्य रहें। धर्म और जाति और इनके लिये एक दूसरे का गला काट लेना ये हमारा प्रमुख खेल है। क्यों न हो आखिर हम एक आध्यात्मिक देश में रहते हैं। हम किसी भी जाति या धर्म के हों हम ग्रेट ब्रिटेन की भाषा बोलते हैं जैसी भी बोलें। हमारी भाषाएं चाहे मातृभाषा हो या राष्ट्रभाषा मर रही हैं और उन्हें कोई पानी देने वाला नहीं है।
मगर ये हमारे चुनाव में कोई मुद्दे नहीं हैं। हमारे मुद्दे है मनमोहन और अडवाणी, आतंकवाद और कंधार, स्विस बैक में जमा पैसा, हमारा विकास उनका विकास, कांग्रेस ने कुछ नहीं किया भाजपा ने कुछ नहीं किया, वरूण गांधी, यूपीए, एनडीए, तीसरा मोर्चा, आचार संहिता उल्लंघन इति। इन मुद्दों पर चुनाव लड़ लिया गया है बाकी दो चरण का भी लड़ लिया जायेगा। किसी न किसी की सरकार बन जायेगी। मनमोहन, आडवाणी या लालू से देवगौड़ा तक कोई भी प्रधानमंत्री बन जायेगा मगर हमारे नल से पानी कैसे आयेगा ? हवा में आक्सीजन कहां से रहेगी यदि हरियाली नहीं रहेगी ? एक अरब लोगों के लिये अनाज कैसे पैदा होगा ? उनके घर कैसें बनेंगे ? वो क्या पहनेंगे ? हमारा धर्म दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है इसे प्रमाणित करने के लिये आयोजित दंगे-फसाद कैसे बंद होंगे ? हमारी जाति मनुष्य जाति है ये कैसे माना जायेगा ? हजारों साल मं बनी हमारी भाषाएं अंग्रेजी के हाथ खत्म हो जायेंगी फिर क्या होगा ?
ये मुद्दे चुनाव के मुद्दे किस चुनाव में बनेंगे ? क्या वो चुनाव होगा ? क्या हम वोट देने के लिये बचेंगे ?
.................सुखनवर