Friday, June 5, 2009

कानून और व्यवस्था

बिहार में कुछ ट्रेनों के स्टाॅप कम कर दिये गये तो उससे ’गुस्साए’ ( ये टी वी के विद्वानों द्वारा उत्पादित शब्द है ) लोगों ने उत्साहपूर्वक अनेक बोगियों का दहन किया। स्टेशन को नष्ट कर दिया। उन्हें कोई रोकने वाला नहीं था। वहां टी वी चैनल वाले थे जो उसे पूरा शूट करते रहे। और जल्द ही पूरे देश में नेताओं की टिप्पणियों के साथ इस घटना का सचित्र उत्साहवर्धक प्रसारण कर दिया गया। पर क्योंकि वो मीडिया के लोग थे इसीलिए वे इस राष्ट्र के नागरिक तो थे नहीं कि इस गुंडागर्दी को रोकने की कोशिश करते। पूरे बिहार के उन सभी स्टेशनों में मातम छा गया जहां आग नहीं लगाई जा सकी। उप-द्रवियांे ( जी हां टी वी की न्यूज वाचिका यही उच्चारण कर रही थीं ) को भी बड़ा दुख हुआ कि वो अकर्मण्य माने गये। उनमें भी दम खम था। वो भी कुछ कर दिखा सकते थे। मगर समाचार के अभाव में चूक गये। उप द्रवियों के जो दृश्य दिखाये गये उनमें जो प्रेरणा और उत्साहवर्धन का भाव था वो देखते ही बनता था। छोटे छोटे लड़के तोड़ फोड़ और आगजनी में लगे थे। उनके अपने देश की संपत्ति स्वाहा कर रहे थे और आनंदित थे।
जिन लोगों की प्रतिक्रिया ली गई वे सभी रेल मंत्री हैं या रह चुके हैं। नितीश कुमार ने कहा कि सबको समझ लेना चाहिये कि कोई बिहार को हाथ न लगाए। लालू का कहना तो साफ था कि इसके लिए नितीश कुमार दोषी हैं। ममता बनर्जी जो अखिल बंगाल राष्ट्र की रेल मंत्री हैं उन्होंने ठीक ही कहा कि पहली बात तो मुझे बताया नहीं दूसरी बात की मैंने यह स्टाॅप बंद नहीं करवाये और तीसरी बात की जिसने ये स्टाॅप बंद करवाये हैं उनके खिलाफ सख्त कार्यवाही की जायेगी। इस तरह राष्ट्रनेताओं ने अपना कर्तव्य पूरा किया। बाकी किसी ने प्रतिक्रिया नहीं व्यक्त की। जरूरत भी क्या है ? ये बिहार का मामला है। जिस प्रदेश का है उसके नेता बोलें। हम क्यों बोलें? ये बात अलग है कि सभी प्रादेशिक पार्टियां और उनके नेता राष्ट्रीय हैं। जब अमेरिका से परमाणु समझौता हो रहा था तो भी सभी राष्ट्रीय नेता चुप थे। हो सकता है उनको लगा हो कि ये समझौता तो अन्तर्राष्ट्रीय है। हम तो राष्ट्रीय हैं। हम लोग क्या बोलें?
खास बात ये है कि किसी जिला स्तरीय नेता से लेकर किसी राष्ट्रीय नेता ने यह नहीं कहा कि ये आगजनी तोड़ फोड़ गलत है। पुलिस को उप द्रवियों के खिलाफ सख्त कार्यवाही करना चाहिये। लालू नितिश के बोलने में जो बिहारी गौरव रक्षा का भाव था वो तो देखते ही बनता था। ममता बनर्जी ने बंगाल से बाहर पड़ोस के बिहार राज्य के बारे में सोचा वही बहुत है। यदि उनमें थोड़ी भी राष्ट्रीय बुद्धि होती तो वे सबसे पहले अपने विभाग की ओर से नीतिगत बात कहतीं। ये किसी बाबू द्वारा लिया गया निर्णय नहीं है। रेलवे के अधिकारियों को यह विचार करना पड़ता है कि किस रेलगाड़ी को किस समय चलाया जाए। कहां स्टेशन बनाया जाए। किस स्थान पर बनाया गा स्टेशन अनुपयुक्त है इसीलिए उसे बंद कर दिया जाए। कहां स्टाॅप रखा जाए और कहां न रखा जाए। जो लेाग बिहार और उत्तर प्रदेश में यात्रा कर चुके हैं वे जानते हैं कि रेलवे के कितने नियमों का पालन होता है और इन प्रदेशों से गुजरने वाली ट्रेनों में यात्रियों की सुरक्षा की क्या स्थिति है।
पिछले वर्ष राजस्थान में गुर्जरों को आरक्षण दिये जाने के लिये जो आंदोलन किया गया उसमें निर्दयता से रेलवे की पटरियां उखाड़ी गईं। पुलिस को कुछ न करने के निर्देश मुख्यमंत्री ने दिये थे। अंत में सुप्रीम कोर्ट को निर्देश देना पड़े कि इस आंदोलन के नेताओं पर राष्ट्रीय संपत्ति के विनाश के लिए मुकदमा चलाया जाए। गुर्जरों के नेता बैंसला जी ने करोड़ों रूपये स्वाहा करवाये और फिर भाजपा की टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़कर हारे। इस बहाने उन्होंने ये भ्रम दूर कर दिया कि वे गुर्जरों के नेता हैं। वे राष्ट्रवादियों के नेता हैं। कलई खुल गई। बिहार में भी जब सुप्रीम कोर्ट कहेगा तभी उप द्रवियों पर मुकदमा चलेगा। ये वही मंत्री गण और भूतपूर्व मंत्री गण हैं जिन पर कानून और व्यवस्था की जिम्मेदारी है।
राजनीति आज जिस मोड़ पर आ खड़ी हुई है वहां नेता नेतृत्व नहीं करता। वो उप द्रवियों के पीछे चलता है। उप द्रवियों तुम संघर्ष करो हम तुम्हारे साथ हैं। तुम चलो हम आते हैं। गलत को गलत बोलने वाला कोई नहीं है। बीच सड़क में कोई घर बनाये तो उसे मना नहीं किया जाएगा। जब घर तोड़ा जायेगा तो अंादोलन होगा कि गरीब का घर तोड़ा जा रहा हैै। उसे दूसरा घर दो। ऐसे ही छुटभैये नेता विधायक बनते हैं और फिर मंत्री बनाये जाते हैं। ऐसे ओछे लोग ओछा ही काम करेंगे।
..........सुखनवर
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