Thursday, December 15, 2011

अन्ना के ईमानदार चेले

अन्ना के ईमानदार चेले
हमारे शहर में एक मजदूर नेता थे। वो अभी भी हैं पर अब उनके पास मजदूर नहीं हैं। वे मजदूरविहीन हैं और शरीर की अशक्तता और आदत से मजबूर हैं। जब वे शबाब पर थे तो समय समय पर उन्हें भी शहर बंद कराना होता था। उनकी ताकत कम थी। उनके चेले सभी सरकारी मुलाजिम थे। जो शहर बंद नहीं करवा पाते थे। उस समय उन्होंने एक फार्मूला निकाला। निकाला क्या एक बार अचानक निकल गया। वो बंद के एक दिन पहले मशाल जुलूस निकालते थे। मशाल जुलूस जब शहर के बीच से गुजरता था तो व्यापारी डर जाते थे। लगता था कि ये मशालें यदि आग लगाने के काम में लगा दी गईं तो अपना सत्यानाश हो जाएगा। बस दूसरे दिन व्यापारी अपनी दुकानें बंद रखते थे। बंद सफल हो जाता था। ये फार्मूला काफी दिन चला। फिर लोगों को समझ आ गया कि ये मामला क्या है। उसके बाद मजदूर नेता का बंद नहीं हुआ।
अन्ना का अनशन भी शहर बंद करने के पहले के मशाल जुलूस जैसा है। इस बार 11 दिसंबर वाला छुट्टी वाला अनशन था। काफी कम भीड़ थी। लोग भी एक दिन के मेले में नहीं जाते। दो तीन दिन तो माहौल बनाने में निकल जाते हैं। फिर ठंड के दिन। सप्ताह भर काम करने के बाद सुस्ताने को एक दिन मिला। उसमें अन्ना जी के यहां जाओ। घर में टी वी पर न देख लो। सो लोग रजाईयों के अंदर लुके हुए टी वी पर भ्रष्टाचार मिटाते रहे। अन्ना के चेले बहुत होशियार हैं। उन्हें समझ में आ गया कि ठंड में जनता भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करेगी। विरोध ठंडा पड़ जाएगा। इसीलिए कहा गया कि यदि ठंड ज्यादा पड़ी तो अनशन बंबई में होगा। बंबई में तो होगा पर रालेगण सिद्धी में क्यों न हो ? क्योंकि वहां रामलीला मैदान वाला माहौल नहीं बनेगा। मीडिया का मसाला तो चाहिए पर दिल्ली में।
मैं काफी दिनों से खोज रहा हूं कि कोई ऐसा आदमी मिले जो चाहता हो कि भ्रष्टाचार फले फूले। हर कोई भ्रष्टाचार के विरोध में है। कल मैं सब्जी खरीद रहा था तो सब्जी वाला बोल रहा था कि वो भी भ्रष्टाचार के विरोध में है। वो अन्ना का समर्थक निकला। मुझे तो अपने आप से बहुत ग्लानि हुई। ये सब्जीवाला तो मुझसे कहीं आगे है। एक मैं हूं जो कुछ नहीं कर रहा हूं और एक ये सब्जीवाला है जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध डट कर खड़ा है। बहरहाल मैंने एक किलो आलू लिए और घर आ गया। घर में आकर देखा कि आलू एक किलो से कम थे। आलू वाले ने डंडी मार दी थी। मैंने देखा कि उसने कई सड़े आलू अच्छे आलुओं के बीच रख दिये थे। मैं उसकी बातों में उलझा रहा और वो अपना काम करता रहा।
संवाद माध्यमों के लोग सबसे उत्साह के साथ अन्ना के साथ हैं। बल्कि ये कहा जाए कि ये आंदोलन मीडिया के भरोसे ही चल रहा है। मगर मीडिया अपने ब्रेक कर कर के विज्ञापन के पैसे कमाए जा रहा है। पिछले चुनावों से पैसा दो समाचार छपवाओ वाला काम भी चालू हो गया है। पेड न्यूज। मगर अन्ना के साथ हैं।
सवाल ये है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन भ्रष्टों के विरूद्ध क्यों नहीं है। आंदोलन मनमोहन सिंह और राहुल के विरूद्ध क्यों है। चिदंबरम और सिब्बल के विरूद्ध क्यों है। जो लोग समाज के घोषित अपराधी हैं। सिद्ध भ्रष्ट हैं आंदोलन उनके विरूद्ध क्यों नहीैं उनके घरों के सामने प्रदर्शन क्यों नहीं। उनके कार्यालयों के सामने प्रदर्शन क्यों नहीं। कुछ विभाग ऐसे हैं जिनमें यदि घर का कोई आदमी भरती हो जाता है तो पूरे मोहल्ले में मिठाई बंटती है। कहा जाता है कि तनखाह तो ठीक है पर ऊपरी कमाई इतनी है कि सात पुश्तें सुख से रहंेगीै। ऐसे विभागों के सिद्ध भ्रष्टों के विरूद्ध आंदोलन क्यों नहीं ?
ंहमारे समाज में सब जानते हैं कि भ्रष्ट कौन है। किस किस विभाग में भ्रष्टाचार के मौके ज्यादा हैं। फिर भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। केवल पैसा खाया नहीं जाता। पैसा खिलाया भी जाता है। पैसा खिलाने वाला इतना भोला बन जाता है जैसे उसका कोई दोष नहीं है। सारा दोष खाने वाले का है। ईमानदार वो है जिसे बेईमान होने का मौका नहीं मिला। बेचारा ईमानदार।
.................................सुखनवर

Wednesday, September 14, 2011

सन्यासी की बारात उर्फ आडवाणी की रथयात्रा

भाइयो,
जैसा कि आप सभी जानते हैं कि आज का हमारा यह प्रशिक्षण वर्ग तब आरंभ हो रहा है जबकि आडवाणी जी एक बार फिर रथयात्रा की घोषणा कर चुके हैं। उन्होंने घोषणा करके हम सबको चौंका दिया। हममें से किसी को मालूम नहीं था कि उनके मन में क्या पक रहा है। अचानक उन्होंने घोषणा कर दी। उनकी उम्र 84 वर्ष है। वो इस देश का कल्याण करना चाहते हैं। वो देश का प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। वो देश के प्रधानमंत्री तब ही बनेंगे जब हमारी पार्टी सत्ता में आएगी। इसके लिए वो रथयात्रा करने का निश्चय कर चुके हैं। आपको सबको याद ही होगा कि सन्1992 में जो रथयात्रा उन्होंने की थी उसकी याद करके आज भी लाखांे लोग सिहर उठते हैं। ऐसी अकल ठिकाने लगाई थी आडवाणी जी ने। रथयात्रा का प्रताप ही ऐसा होता है।
आप लोगों ने देखा ही होगा कि जब भी कोई घटना होती है तो सबसे पहले आडवाणी जी सरकार से इस्तीफा मांगते हैं। इसका कारण उनके अंदर छुपी बैचेनी है। वो देश को अपने आपके के रूप में एक काबिल प्रधानमंत्री देना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि ये सरकार जल्द से जल्द गिर जाए ताकि उनकी बारी आए। इसमे ंबुरा क्या है। हर कोई अपना भला सोचता है। पिछले बार उन्होंने एनडीए की बैठक बुलाकर अपने को भावी प्रधानमंत्री घोषित करवा दिया था। कई लोगों ने उन्हें गलत समझा वो कुर्सी के भूखे नहीं हैं। वो इतिहास बनाना चाहते हैं। वो चाहते हैं कि भूतपूर्व प्रधानमंत्रियांे में उनका भी नाम हो। पुराने जमाने से प्रधानमंत्री बनने के लिए लोगों ने क्या क्या नहीं किया। कई बन गये कई नहीं बन पाये। जो बन गये वो अमर हो गये। बाकी सब अमरसिंह हो गए। चौधरी चरण सिंह और चन्द्रशेखर चाहे जैसे बने चाहे जितने दिन के लिए बने लेकिन कहलाएंगे तो भूतपूर्व प्रधानमंत्री। और एक बाबू जगजीवनराम थे। जिंदगी दे दी उन्होंने कांग्रेस के लिए मगर इंदिरा जी ने ऐसा रास्ता रोका कि प्रधानमंत्री बनने की हसरत लिए वो दुनिया से चले गए।
अब राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की बातें चल रही हैं। ये कोई उम्र है प्रधानमंत्री बनने की। राहुल गांधी को खुद सोचना चाहिए कि जब आडवाणी जी जैसे सीनियर आदमी प्रधानमंत्री बनने की ख्वाहिश रखते हैं तो उन्हें बन जाने दें। मगर नहीं साहब गांव गांव घूम रहे हैं। प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं। अरे जब तुम इतनी कम उम्र में प्रधानमंत्री बनना चाहते हो तो आडवाणी जी 84 साल में प्रधानमंत्री बनना चाहते हैं तो उसमें क्या बुराई है ? कुछ तो सोचो।
पार्टी में भी कोई कम दुश्मन तो हैं नहीं। अब जैसे तैसे कुछ सर्वे वगैरह करवा कर हमने ऐसा माहौल बनाया कि हमारी पार्टी सत्ता में आने वाली है। तो दुश्मनों ने हल्ला करना शुरू कर दिया कि नरेन्द्र मोदी को प्रधानमंत्री बनाएंगे। यानी अभी खीर पकी नहीं और खाने वालों में झगड़ा शुरू। सोचो आडवाणी जी को कितना बुरा लगा होगा। उनका ही जूनियर उनका ही प्रतिद्वंद्वी। वो तो नरेन्द्र मोदी को समझा दिया गया है कि जब समय आएगा तब देखेंगे अभी से मचलना मत। पहले सरकार बनाने की नौबत तो आए। अब आडवाणी जी सामने रहेंगे तो नरेन्द्र मोदी की हिम्मत है क्या कि प्रधानमंत्री बन जाए।
हम सब को भी उन पर दया आती है। आदमी जिंदगी भर काम करे और जब इनाम लेने का मौका आए तो वरिष्ठता के नाम पर कुर्सी दूसरे को थमा दी जाए। अब देखिए राम मंदिर आंदोलन आडवाणी जी के नेतृत्व में चला। अटलजी कहीं गए नहीं। दिल्ली में बैठे गोलमोल बातें करते रहे। जब चुनाव हुए, पार्टी जीती तो प्रधानमंत्री बनने के लिए तैयार। अरे उन्हें खुद ही कह देना था कि आडवाणी को बनाओ सारी मेहनत उसी की है। मगर उन्हेें गृहमंत्री बना दिया। वो तो आडवाणी जी ने लड़झगड़ कर अपने को उपप्रधानमंत्री बनवा लिया तो ठीक रहा वरना गृहमंत्री को कौन याद करता। गृहमंत्री तो बूटा सिंह भी रह चुके हैं। उप ही सही प्रधानमंत्री तो कहलाए।
हम सबने तो बहुत मना किया कि अब रथयात्रा से कुछ नहीं होने वाला। जहां अपनी सरकारें हैं वहां हमारे मुख्यमंत्रियों ने कोई कम गुल नहीं खिलाए हैं। इसीलिए जबरन फजीहत नहीं कराओ। मगर माने नहीं कहते हैं कि हम तो पुरानी रथयात्रा वाले सुनहरे दिन वापस लाएंगे। अभी सन्यास ले रहे थे अब बारात निकाल रहे हैं। कुछ समझ नहीं आता इन बुजुर्गों का। ............सुखनवर
15 09 2011

Monday, September 12, 2011

अमरसिंह भी अंदर

अनेक मुहावरे हैं जैस होम करते हाथ जले जिनका मायने ये होता है कि आप किसी का भला करने गये और खुद मुसीबत में पड़ गये। अब एक नया मुहावरा बन सकता है कि आप अमर सिंह हो गये। ये तो वही हुआ कि भला करने गये और अमर सिंह हो गये। अमरसिंह एक उद्योगपति हैं। काफी पैसा हो जाने से आदमी अमरसिंह हो जाता है। और अमरसिंह हो जाने से आदमी को यह मुगालता हो जाता है कि पृथ्वी शेषनाग के फन पर स्थापित है और वह शेषनाग मैं हूं। या ये दुनिया मैं चला रहा हंू। या मेरे बिना पत्ता नहीं खड़कता। आजकल मीडिया चैनलों के कारण भी बहुत लोगों को ये गुमान हो जाता है कि इस धरा पर जो कुछ हो रहा है वो उनकी इजाजत से हो रहा है।
जब पहली बार यू पी ए सरकार बनीं तो सोनिया जी ने एक पार्टी दी। सारे यूपीए दलों को बुलाया। वाम दलों को भी बुलाया। सब लोग पार्टी में अंदर थे। अमरसिंह और मुलायम सिंह भी पंहुचे। उन्हंे सोनिया जी ने बुलाया ही नहीं था। पर वामदलों ने कह दिया था कि तुम लोगों को तो बुलाना चाहिए। तुम लोग आ जाना। मगर गेट पर घुसने नहीं मिला। इससे बड़ा अपमान क्या हो सकता है। मगर वाह अमर सिंह। गेट से भगाए जाने को भी झेल गये। बोले हमें भोज में घुसने न मिले तो भी सोनिया जी हमारी नेता हैं। अमरसिंह के पास भांति भांति के गणित रहते हैं। उनने हिसाब लगा लिया कि अभी बुराई मोल लेना ठीक नहीं। उनने ये शिक्षा नहीं ली कि बिना बुलाये खाने पर नहीं जाना चाहिए। आत्मसम्मान की दो रोटी ज्यादा बेहतर हैं।
अमेरिका से परमाणु संधि पर जब विवाद हुआ तो वामदलों ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया। सरकार अल्पमत में आ गई। अमरसिंह तत्काल सक्र्रिय हो गये। उन्हांेने बिना देर किए सरकार को बहुमत में लाने के लिए प्रयास शुरू कर दिये। उनके प्रयास सफल हुए। सरकार बच गई। जब शादी हो जाती है तो बहुत बार बिचौलिए के योगदान को नकार दिया जाता है। आज पूछा जा रहा है कि अमरसिंह की तो सरकार थी नहीं फिर उसे बचाने के लिए अमरसिंह ने पैसे क्यों लगाए। बातबहादुर अमरसिंह गंभीर रूप से बीमार होने के बावजूद आज तिहाड़ जेल में पंहुच चुके हैं। अमरसिंह की हालत बेगानी शादी में अब्दुल्ला दीवाना की सी है। दीवाना आज जेल में है। जिस सरकार को उनने बचाया था वो आज भी है। वो सरकार बेदाग और अमरसिंह दागदार।
अमिताभ बच्चन जब मुसीबत मंे थे तब अमरसिंह ने उनकी सहायता की। वे उनके परिवार के सदस्य बन गये। यहां तक कि समाजवादी पार्टी के प्रचार के लिए निकल पड़े। जया बच्चन सांसद बन गईं। आज अमरसिंह अमिताभ बच्चन के परिवार से बाहर हैं। जया बच्चन समाजवादी पार्टी के अंदर हैं।
हमारे यहां बहुत से प्रांतीय दल राष्ट्रीय दलों से ज्यादा शक्तिशाली हैं मगर राष्ट्रीय मामलों में प्रांतीय दल और उनके नेता चुप रहते हैं। ये राष्ट्रीय सरकार में शामिल होते हैं मगर केवल मलाई खाने के लिए। मठा पीने का काम मुख्य दल को करना होता है। चाहे कांग्रेस हो या भाजपा। यूपीए हो या एनडीए। जब परमाणु संधि पर विवाद चला तो लगा देश में केवल दो पक्ष हैं कांग्रेस और वामदल। बाकी सब चुप। उनके प्रांत का मामला नहीं है। उनका प्रांत तो जैसे भारत में है ही नहीं।
अमरसिंह पहले मुलायम सिंह के प्रशंसक बने। फिर सलाहकार बने। फिर मालिक बनने की कोशिश करने लगे। उन्हें लगा कि समाजवादी पार्टी उनकी हाई स्कूल छाप अंग्रेजी से चल रही है। समाजवादी पार्टी मुलायमसिंह की प्रोप्राइटरशिप कन्सर्न है। अमरसिंह उसे पार्टनरशिप में बदलना चाहते थे। मुलायमसिंह जी के सुपुत्र पार्टी का नेजा सम्हाल चुके हैं। समाजवादी पार्टी मुलायम सिंह की बनाई हुई पार्टी है। वो बिना किसी अमरसिंह के सत्ता में आ चुकी है। इसीलिए आज अमरसिंह कहीं नहीं है। पहले भी उनके साथ कोई नहीं है। आज भी उनके साथ कोई नहीं है।
भारत की जनता को इन सब लोगों को गंभीरता से नहीं लेना चाहिए क्यांेकि अंदर क्या पकता है ये हम आप नहीं जानते।
.............................................सुखनवर
09 09 2011

Thursday, September 1, 2011

ब्रेंडेड आंदोलन का इवेंट मैनेजमेंट

ब्रेंडेड आंदोलन का इवेंट मैनेजमेंट
ये अच्छा हुआ कि पिछले दिनों देश से भ्रष्टाचार खत्म हो गया। जिस दिन रंग गुलाल हुई और खुशियां मनाईं गईं उस दिन के बाद से सारे भ्रष्टाचारी साधू हो गये। बहुत दिनांे से सब लोग परेशान थे कि देश से भ्रष्टाचार कैसे खत्म होगा। कब खत्म होगा ? पिछले बार भ्रष्टाचार खत्म हो ही गया था। जयप्रकाश जी ने खत्म कर दिया था। मगर फिर ऊग आया। जड़ों में मठा नहीं डाला गया था। कुछ दिन दबा रहा फिर निकल आया। उस समय जयप्रकाश जी आगे थे। भ्रष्टाचार से परेशान लोग उनके पीछे थे। इस बार भ्रष्टाचार के पुनर्जन्म की कोई गुंजाइश नहीं है। पुराना जमाना और था। उस समय भ्रष्टाचार से लड़ने के तरीके भी पुराने थे। इवेन्ट मैनेजमेंट नाम की कोई चीज नहीं थी। टी वी नहीं था। 24 घंटे चलने वाले न्यूज चैनल नहीं थे। इतने ओजस्वी टी वी वाले नहीं थे। अब तो टी वी वालों को देखकर लगता है कि क्या जरूरत किसी अदालत की। क्या जरूरत किसी वकील की। उत्साह से ऐसे भरे हुए कि हकलाने लगते हैं, लड़ने लगते और मुंह से झाग छोड़ने लगते हैं।
इसको कहते हैं योजनाबद्ध तरीके से काम करना। क्रमवार काम करना। एक के बाद एक कदम उठाना। अपने टाइम टेबिल पर काम करना। चौतरफा मार करना। पूरे देश में एक साथ आंदोलन। आंदोलन का झंडा होना चाहिए तो ठीक है और कोई झंडा क्यों रहे तिरंगा ही ठीक रहेगा। मगर ये क्या है लोग तिरंगा सीधे पकड़े रहते हैं। आप लोग ऐसा कीजिए कि इस इवेंट के लिए इसे ऊपर नीचे लहर के समान लहराइये। आजकल ब्रेंड के साथ ब्रंेड एम्बेसेडर, बें्रड फ्लैग, ब्रेंड कास्ट्यूम, बैं्रड स्लोगन सबकी जरूरत होती है। सारी व्यवस्था हो चुकी है। ब्रंेड स्लोगन रखो। वंदे मातरम। भ्रष्टाचार से लड़ाई का ये कैसा स्लोगन ? देखिये बहस मत करिये। हमें काम करने दीजिए। दादा जी के पीछे बैकड्राप में गांधी का बड़ा सा पोट्रेट रखो। एक दम सीधे पब्लिक के दिमाग में जाना चाहिए। एक वो गंाधी एक ये गांधी। मगर ब्रैंड एम्बेसेडर कौन रहेगा। जैसा आंदोलन है उसी टाइप का होना चाहिए। पता करो कौन हो सकता है जो कुछ दिन अनशन भी कर सके। अड़ियल हो, किसी की न माने।
पता चला कि महाराष्ट्र के एक गांव में एक लड़ाकू आदमी रहता है। कई बार अनशन कर चुका है। रामदेव टाइप नहीं निकलेगा कि तीन दिन में हवाइयां उड़ने लगें। महाराष्ट्र में कई मंत्रियांे को हटवा चुका है। अख्खड़ आदमी है। किसी की नहीं सुनता। बस एक मुश्किल है। राष्ट्रीय स्तर का नहीं है। प्रांतीय स्तर का है। चलो कोई बात नहीं। उन्हंे ही पकड़ो। मगर ध्यान रखना-आंदोलन और बातचीत हम करेंगे। हम तीनों की यह प्राइवेट लिमिटेड कंपनी है। ये हमारी कंपनी का इवेंट है। इसमें जो चाहे वो आए लेकिन अपनी सीमा में रहे। जो और लोग हैं उनको भगाओ। अपमान कर दो खुद भाग जाएंगे। दादा को आगे रखो। इवेंट के हिसाब से सौ जोड़ी सफेद कुर्ता पाजामा और टोपी तो दादा के लिए रखो। आंदोलन के समय हर चार घंटे में उनकी ड्रेस बदलो। हमेशा एकदम झक सफेद ड्रेस दिखना चाहिए। टी वी पर अच्छा दिखेगा। गांधी से इनकी तुलना करवाओ। तीन चार बार राजघाट ले चलेंगे। वहां बिल्कुल गांधी टाइप मुद्रा में एक फोटो सैशन करवा देना। दादा तो महाराष्ट्र वाली टोपी पहनता है। ऐसा करो टोपी को भी ब्रेंड बनाओ। उसमें लिखो आइ एम अन्ना। बहस मत करो यार। एकाध लाख टोपी बनवा कर बंटवा दो। पैसे को मुंह मत देखा। ये क्यों क्यों मत पूछा करो।
देश का मतलब होता है दिल्ली। यहीं पर सारे टी वी वाले हैं। उनको सबसे पहले साथ में लो। दिल्ली के स्कूलों में सौ डेढ़ सौ बसंे लगवा दो। बच्चों केा ढ़ो ढ़ो कर लाएंगी। बच्चों को दे दो मोमबत्ती और तिरंगा। मंुह पे पुतवा दो तिरंगा जैसे क्रिकेट मैच हो रहा हो। माहौल खिंच जाएगा। और बात समझ लो अपना मुद्दा है। जनलोकपाल बिल। इसके बारे में पब्लिक से कोई बात नहीं करना है। इस बिल पर कोई बहस हमें करना ही नहीं है। ये बिल क्या है ये किसी को पता नहीं चलना चाहिए। बस मुद्दा ये उठाओ कि इसमें प्रधानमंत्री को आना चाहिए। इसी पर बहस चलने दो। सरकार को उधेड़ के रख दो। जनता के बीच ये संदेश चला जाना चाहिए कि देश में तीन भ्रष्टाचारी हैं। प्रधानमंत्री, कपिल सिब्बल और चिदंबरम। सरकार भ्रष्ट है मतलब केन्द्र की कांग्रेस सरकार भ्रष्ट है। दस बारह दिन तो ये दादा अनशन खींच ले जाएगा। नहीं भी खींच पाएगा तो भी अपना काम तो बन जाएगा। यदि तबियत काफी बिगड़ गई तो बिगड़ जाए। अपना काम बन जाए फिर इनका जो होना होगा सो होगा। पूरे आंदोलन को इतनी ऊंचाई पर ले जाना है कि फिर आगामी तीस साल तक कोई आंदोलन न हो पाये। जनता का सारा गुस्सा प्रेशर कुकर की सीटी के समान निकल जाए। .....................................सुखनवर
.

01 09 2011






अंग्रेजी बोलने वालों का संघर्ष


बुधिया खाना बना रही थी। सामने टी वी चल रहा था। बच्चे खेलते हुए बाहर चला गया। उसेन देखा कि एक बहुत सफेद झक्क कपड़े पहने दादा जी टोपी लगाकर बैठे हैं। उनके सामने हजारों लोग तिरंगा झंडा लहरा रहे हैं। ऐसा तो टी वी चाहे जब दिखता रहता है। पर आज खास बात ये थी कि ये दादाजी बैठे थे और सामने लोग तिरंगा लिये थे। दादा जी भाषण दे रहे थे। वो मालूम नहीं क्या बोल रहे थे। कुछ समझ नहीं आ रहा था। पर बाकी लोग बहुत जोर जोर से नारे लगा रहे थे सो लग रहा था कि जरूर कोई बड़ी बात कह रहे होंगे। उसका बड़ा लड़का घर आया तो उसने पूछा कि ये क्या हो रहा है। लड़के ने बताया कि बहुत अच्छा काम हो रहा है। अपने सब्जी के ठेले में से पुलिस वाला जो सब्जी उठा ले जाता है उस पर रोक लगने वाली है। वो जो डंडा फटकार कर हमसे पैसा वसूलता है वो भी अब खत्म होने वाला है। राशन दुकान वाला चाहे जब कह देता है कि राशन नहीं है मिट्टी का तेल नहीं है वो भी खत्म होने वाला है।
बुधिया बहुत खुश हुई। उसने लड़के से पूछा कि ये लोग ये बात तो कह नहीं रहे। फिर तू कैसे कह रहा है कि ये लोग पुलिसवाले राशनवाले का अत्याचार खत्म करने वाले हैं। लड़के ने बताया कि ऐसे सारे कामों को भ्रष्टाचार कहते हैं। ये खत्म होने वाला है। बुधिया को विश्वास नहीं हुआ। लड़के ने बताया कि अबकी बार जरूर खत्म हो जाएगा क्योंकि अब अंग्रेजी बोलने पढ़ने लिखने वाले लोग ये कह रहे हैं। हम लोगों की सुनता कौन है। जब अंग्रेजी में बात कही जाती है, जब अंग्रेजी बोलने वाले बच्चे बूढ़े ये बात कहते हैं तो उसका वजन होता है। ये लोग सफेद रंग की टी शर्ट पहने हैं। उसमें अंग्रेजी में लिखा है। काले लाल गोले बने हैं। इस सबका मतलब होता है अम्मा तू नहीं समझेगी। ये लोग बहुत ज्ञानी हैं। इन लोगों ने खुद अपना कानून लिखा है। उसे बनवाने वाले हैं।
बुधिया को फिर भी समझ नहीं आया। उसे समझ नहीं आया कि अभी किस कानून में लिखा है कि झूठ बोलो। बेईमानी करो। फिर भी दुनिया कर रही है। इन्हें कोई रोकता क्यांे नहीं ? अभी हमारी सब्जी नहीं बिक पाती है। मुश्किल से घर चल रहा है उस पर से एक बड़ी दुकान खुल गयी है चमचमाती हुई उसमें कार में बैठ कर लोग जाते हैं और सब्जी खरीदते हैं। हम दो पैसा कमा रहे थे तो ये भी इन अमीरों से नहीं देखा गया।
लड़के ने समझाया कि अम्मा उनका मतलब दूसरा है। वो बड़े लोग हैं। उन्हें बड़ा खेल खेलना पड़ता है। उनके खेल करोड़ों के होते हैं। उन्हें करोड़ों खिलाना पड़ते हैं। उनके लिए वो भ्रष्टाचार है। ये लोग एक दूसरे को जेल डालते रहते हैं। सारा नियम कानून वो ही समझते हैं। वही तोड़ते हैं। वही जेल जाते हैं। वही मुकदमा लड़ते हैं। वही कानून बनाते हैं। वही तोड़ते हैं। इन बड़े धंधे वालों को ये करोड़ों देना बहुत अखर रहा है। इसीलिए अब एक और कानून बना रहे हैं। हम लोगों के लिए तो पहले से कानून है। हमारी ठुकाई तो उसी कानून से होती है। पिछले साल पुलिस ने बापू जी को अंदर कर दिया था। एक साल लग गया उनको छुड़वाने में। कितना पैसा लगा। उसी अदालत में कितना पैसा लगा वकील को दिया बाबू को दिया। पुलिस को दिया। तब कहीं जाकर छूट पाये बापू।
अच्छा हुआ अभी ये नया कानून नहीं बना है। छोटी अदालत, मंझली अदालत, बड़ी अदालत और कहते हैं कि एक सबसे बड़ी अदालत दिल्ली में है। अपन लोगों के लिये तो अपने शहर की अदालत ही ठीक है। अपन कभी दिल्ली गये तो उस अदालत में तो घुसने भी नहीं मिलेगा। अब ये अंग्रेजी बोलने वाले आपस में लड़ रहे हैं। अभी कुछ दिन बाद एक दिन शहर बंद होगा। अम्मा उस दिन की रोटी पानी का इंतजाम करना पड़ेगा। उस दिन की कमाई तो गई। .................................सुखनवर
26 08 2011

Wednesday, August 24, 2011

सपना

अरे ये क्या हो रहा है भाई। वकील लोग हड़ताल पर हैं। क्यों हैं हड़ताल पर। कह रहे हैं अब हम अन्ना के साथ हैं। अब हम भ्रष्टाचारियों के मुकदमे नहीं लड़ेंगे। और तो और ये जो अदालतों में बैठे बाबू लोग खुले आम रिश्वत लेते हैं उन्होंने भी कह दिया है कि अब हम देश के लिए भूखे मरेंगे और रिश्वत नहीं लेंगे। वो लेंगे कैसे जब देने वाले सब देशभक्त हो गए हैं। वो देंगे ही नहीं। वो रिश्वत देने के बजाए अनशन कर देंगे। बाबू घर आ जाएगा और तारीख बढ़ाकर कागज दे जाएगा।
पुलिस वाला खड़ा रहेगा पर किसी रिक्शेवाले से पैसा नहीं झटकेगा। जनता बेखौफ होकर थाने में घुसेगी। उसे मालूम है कि उसकी शिकायत सुनने के बजाए उसे शिकायत करने के जुर्म में अंदर नहीं किया जाएगा। जुआरी जुआ खेलना बंद कर देंगे। सटोरिये सट्टा खिलाना बंद कर देंगे। जब जुआ सट्टा चोरी बंद हो जाएगी तो पुलिस थाने तो मंदिर हो जाएंगे। पुलिस वाले सभी पुजारी हो जाएंगे। हर थाने में वैसे भी मंदिर है ही। उसी में थानेदार साहब का दफतर लग जाएगा। थाने जाएंगे तो पैसे खर्च नहीं होंगे। हर पुलिस वाला अपनी तनखाह में से ही गुजर करेगा। इसे कहते हैं ईमानदारी की कमाई। किसी ने यदि किसी खाकी वर्दी वाले को भ्रष्ट करने की कोशिश की तो आमरण अनशन शुरू कर दिया जाएगा।
कलेक्टोरेट जाइये। आर टी ओ जाइये। पी डब्लू डी जाइये। नगर निगम जाइये। चारों तरफ साधू ही साधू। कोई बेइमान रिश्वतखोर ढूंढे ही नहीं मिल रहा। सब साधू कह रहे हैं बताइये आपका क्या काम है ? आपस में छीना झपटी कर रहे हैं। नहीं हम करेंगे आपका काम। नहीं हम करेंगे आपका काम। खबरदार जो हमें पैसा दिखाने की कोशिश की। आप हमें भ्रष्टाचारी बनाना चाहते हैं। कहां रहते हैं आप। हम आपके घर के सामने आमरण अनशन कर देंगे। हमारे डिपार्ट को बदनाम करने की कोशिश न करें। अब हम देश के लिए काम करेंगे। अब हमें ईमानदारी से काम करने में बिलकुल शर्म नहीं आती।
सड़कें सीमेन्ट से बनने लगीं। उधड़ना बंद हो गयीं। ठेकेदारों ने कमीशन देना बंद कर दिया। इंजीनियरांें ने कमीशन लेना बंद कर दिया। भवन पुल सभी बिलकुल मजबूत। कोई छूट नहीं। ईमानदारी से काम करना होगा। वरना वरना क्या - आमरण अनशन।
स्कूलों में फीस घट गई। बोले जरूरत से ज्यादा फीस नहीं लेंगे। जितना पढ़ायेंगे उतनी ही फीस लेंगे। किताबों और ड्रेस में कमीशन नहीं खायेंगे। बच्चों के मां बाप से अच्छा व्यवहार करेंगे। हर बच्चे को बराबर का समझेंगे। उनके के साथ भेदभाव नहीं करेंगे।
अस्पतालों में डाक्टर केवल नौकरी करेंगे। प्राइवेट प्रेक्टिस नहीं करेंगे। मरीज को अपने घर नहीं बुलायेंगे। अस्पतालों में असली दवाएं मिलेंगी और मरीजों को बाहर से नहीं लेना पड़ंेगी। उल्टी सीधी दवाईयां नहीं लिखी जाएंगी। मरीजों को जबरन अस्पताल में भर्ती नहीं किया जाएगा। बिना जरूरत आई सी सी यू में भर्ती नहीं किया जाएगा। बेमतलब ऑपरेशन नहीं किया जाएगा। मरीजों ने भी कह दिया कि मेडिकल बिल लेने के लिए अस्पताल में भर्ती नहीं होंगे।
अब कोई लड़की दहेज के कारण बिना शादी के नहीं रह जाएगी। लड़कों के मां बाप ने तय कर लिया है कि अपने लड़कों की शादी में दहेज नहीं लेंगे।
आप हंस रहे हैं ? आप क्यों हंस रहे हैं ? वैसे आप ठीक सोच रहे हैं। आपको अपने आप पर हंसना चाहिए। अन्ना के भरोसे न रहिये। अपने को बदलिये। वरना यूं ही सपना देखिये। ...........................सुखनवर
17 08 2011

ठप्प करने वालों का धर्म


हमारे भाजयुमो के लड़के संसद की तरफ बढ़ रहे थे। कुछ हजार लोग थे। उन्होंने कुछ बेरिकेड तोड़े थे और कुछ पत्थर फेंके थे। वो आगे बढ़ रहे थे। बढ़ते चले जा रहे थे। यदि पुलिस न रोकती तो संसद पर पंहुच जाते। संसद में बहस करने के लिए सांसद तो थे ही। ये क्यों बढ़ रहे थे ? इनके इरादे साफ थे। इनने छुपाए भी नहीं थे। हर पार्टी की युवा शाखा को इसी काम में लगाया जाता है। चढ़ जा बेटा सूली पर भला करेंगे राम। तो युवा अपने काम में लग चुके थे। पुलिस तो पूरे संसद के सत्र के दौरान ही तैयार रहती है। उसने पानी की बंदूक चलाई। फिर लाठियां भांजी। जुलूस तितर बितर हो गया। शाहनवाज खान ने तुरंत चिदंबरम पर आरोप लगाया कि इसी आदमी ने हमारे लड़कों को पुलिस से पिटवाया। बहुत गुस्से में थे। उनने कह दिया कि अब चिदंबरम के स्तीफे के नीचे किसी बात से हम नहीं मानेंगे। उनने अपने स्तीफे की बात नहीं की जबकि लड़कों को पिटने के लिए भेजा तो उन्हीं ने था।
अखबारांे मे छपा और टी वी चैनलों ने खैर अपना आग लगाने का खेल पूरी ताकत से खेला ही कि सबका निशाना सोनिया और शीला हैं। दरअसल आज के समय में कुल मिलाकर भाजपा इस दौरान महिला नेताओं से परेशान है। उत्तर प्रदेश में मायावती नाक में दम किए है। बंगाल में ममता ने दगा दे दिया। अपने ही घर में उमा ने क्या कम कुहराम मचाया। उधर जयललिता घास नहीं डालती। वो अलग से नरेन्द्र मोदी को भर बुला लेती है। जबकि भाजपा की नेता स्वयं महिला हैं।
मगर सारा गुस्सा सोनिया पर क्यों ? शीला पर क्यों ? 2004 में हमारे स्व प्रमोद महाजन जी ने सब सैट कर दिया था। पंडितों ज्योतिषियों से पूछ लिया था। सर्वे करवा लिया था, जीत रहे थे। अरबों रूपये खर्च कर दिये थे। शाइनिंग इंडिया का अभियान चला रखा था। सरकार अपनी थी। जलवा ही कुछ और था। मगर ये सोनिया गांधी ने चुनाव में उतर कर सब कबाड़ा कर दिया। हम कहते रहे । विदेशी महिला है। हिन्दी आती नहीं। भारतीय संस्कृति को जानती नहीं है। विधवा है। मगर क्या बताएं साहब सब किया धरा मिट्टी में मिल गया। अच्छी भली सरकार चल रही थी। समय से पहले चुनाव करवा लिए कि चुनाव तो जीत ही रहे हैं। मगर बैठे ठाले सरकार से बाहर हो गए। अब कहते हैं कि हमारी सरकार इतनी अच्छी थी। लोग पूछते हैं कि फिर हार क्यों गए ?
शीला दीक्षित की कहानी भी सोनिया जी से कुछ कम नहीं है। हर बार चुनाव जीत रही हैं। दिल्ली में मेटो चलना शीला दीक्षित की उपलब्धि मानी जाती है। दिल्ली में कभी भाजपा की सरकार थी ये बात लोग भूल चुके हैं। दिल्ली में इतने अतिक्रमण तोड़े गए। दुकानें और घर तोड़े गए उसके बाद भी लोगों ने शीला दीक्षित को जिताया। शीला दीक्षित और सोनिया जी की खासियत है कि वो मीडिया को घास नहीं डालती। मीडिया के छोकरे अपने ओछे प्रश्नों को लेकर घूमते रहते हैं और वे कार में आगे बढ़ जाती हैं। बहुत बार तो वो डांटती भी हैं कि जाइये रिपोर्ट पढ़ कर आइये फिर बात कीजिए। मीडिया यदि जिम्मेदार हो जाए तो देश का काफी भला हो जाए।
संसद सत्र शुरू हुआ तो घोषित किया गया कि मंहगाई पर घेरेंगे। फिर कहा कि कामनवेल्थ घोटाले पर घेरेंगे। फिर टू जी स्पेक्टम पर घेरेंगे। तीनों पर घेराबंदी होती रही। समय निकल गया। अब वही उदास संसद है। उंघते हुए कुछ गिनेचुने सांसद। उनके बीच में कुछ रूटीन सवाल जवाब। संसद मेें कोई थ्रिल नहीं बचा। अब इंतजार है कि इसी बीच कोई घटना घट जाए तो उसी बहाने कुछ सक्रियता हो जाए।
हर संसद सत्र के पहले अब रणनीति बनती है कि आगामी सत्र में क्या होना है। अब इसे घोषित कर देना चाहिए कि रणनीति इस बात की बनती है कि कैसे कुछ नहीं होने देना है। जब संसद का सत्र नहीं चलता तब मांग होती है कि विशेष सत्र बुलाया जाए। जब सत्र होता है तब उसे ठप्प कर दिया जाता है। दरअसल अब चर्चा करने वाले लोग बचे नहीं हैं। अब ठप्प करने वाले बचे हैं तो अपना धर्म पूरा कर रहे हैं।-------------सुखनवर 12 08 2011

युवा लेखक के बिन मांगे सुझाव

एक युवा कॉलम लेखक चेतन भगत ने भाजपा को पांच बिना मांगे सुझाव दिये हैं। उनमें से एक तो बहुत ही जबरदस्त है। ये सुझाव वैसा ही है जैसे ये सवाल कि क्या आपने चोरी करना छोड़ दिया है ? सुझाव ये है कि भाजपा को एक साफसुथरी भ्रष्टाचार मुक्त पार्टी बनना चाहिए। इसके लिए उसे हर साल दस नेताओं के नाम घोषित करना चाहिए और उन्हें पार्टी से निकाल देना चाहिए। कुछ ही सालों में भाजपा एक नई साफसुथरी पार्टी बन जाएगी। यदि भाजपा इस सुझाव को माने नहीं केवल विचार ही करे तो उसका परिणाम क्या होगा ? पार्टी यह स्वीकार करेगी कि वो भ्रष्ट है। वो इतनी भ्रष्ट है कि उसमें से हर साल दस भ्रष्ट लोगों को नाम घोषित कर निकाला जा सकता है। भ्रष्टों की संख्या इतनी अधिक है। यहां पार्टी की मुश्किल ये है कि लोकायुक्त से लेकर आम जन तक हर कोई कह रहा है कि येदियुररप्पा भ्रष्ट हैं पर उन्हें पार्टी की तो छोड़ो मुख्यमंत्री से तक हटाया नहीं जा पा रहा है। किसी को भ्रष्ट कहना और फिर उस कारण उसे पार्टी से निकालना कितना कठिन होता है ये तो भ्रष्ट ही जानता है। भ्रष्ट की गति भ्रष्ट जाने। और फिर अंतिम फैसला तो अदालत का होता है। अदालत के फैसले के बिना आप किसी को कैसे भ्रष्ट कह सकते हैं। तो ये कहना तो बहुत ही कठिन है कि ये दस लोग भ्रष्ट हैं। आखिर ये निर्णय कौन करेगा कि फलां लोग भ्रष्ट हैं। जो लोग निर्णय करेंगे वो भ्रष्ट नहीं हैं इसका निर्णय कौन करेगा।
फिर भाजपा के ऊपर भी कोई है। वो सर्वशक्तिमान है। हर पार्टी का हाई कमांड है। हाई कमांड के निर्णय को चुनौती नहीं दी जा सकती। चाहे कांग्रेस का हो या भाजपा का हो या कम्युनिष्ट पार्टी का। ये हाई कमांड पार्टी हित में जनता से ऊपर होकर सोचता है। पार्टी के शीर्ष नेताओं की बैठककक्ष के पीछे एक अंधेरा बंद कमरा होता है। नेता गण अपना निर्णय लिखकर उस कमरे के अंदर रख देते हैं। थोड़ी देर में हाईकमांड का निर्णय आ जाता है। ये कब क्या निर्णय कर ले। कोई भरोसा नहीं। डी एम के के हाई कमांड के निर्णय के कारण ही आज उसके नेता जेल में हैं।
दूसरा सुझाव और जबरदस्त है। वो ये कि पार्टी अपना प्रधानमंत्री घोषित करे। ये कहने से काम नहीं चलेगा कि हमारे पास बहुत लोग हैं। यदि ये युवा लेखक आडवाणी जी को मिल जाता तो पिट ही जाता। इसे भाजपा के बारे में इतना भी ज्ञान नहीं है और ये भाजपा को सुझाव देने चला है। क्या इसे मालूम नहीं कि पिछले चुनाव में आडवाणी जी बिना जीत की गुंजाइश के स्पेशल मीटिंग बुलाकर अपने आप को प्रधानमंत्री घोषित करवा चुके हैं। फिर सन्यास ले चुके हैं। फिर सन्यासी चोला उतार कर फंेक चुके हैं। वे जबतक हैं तब तक भाजपा में कोई प्रधानमंत्री बनने की सोच भी नहीं सकता। और फिर टीम में दस लोग दौड़ रहे हैं और आप दौड़ को बीच में रोक के एक को फर्स्ट कह दोगे तो बाकी लोग काहे को दौड़ेगे ? ये तो खेल भावना के विपरीत है। जब तक नाम घोषित नहीं है तब तक हर किसी के मन में आस है। आज नाम घोषित हो जाएगा तो बाकी लोग कहेंगे कि भैया आप को प्रधानमंत्री बनना है तो आप मेहनत करो जिता लो चुनाव।
चेतन भगत ने ये सुझाव भाजपा को ही क्यों दिये गये हैं ? दरअसल चेतन भगत को भाजपा से बहुत आशाएं हैं। उन्हें लगता है कि भाजपा में एक आदर्श दक्षिणपंथी पार्टी होने के पूरे गुण हैं। यदि भाजपा रिपब्लिकन पार्टी या डेमोक्रेटिक पार्टी टाइप की कोई पार्टी हो जाए तो देश को अमेरिका बनने से कौन रोक सकता है। वैसे भी मेरा भारत महान। आखिर हम इस देश में क्यों रह रहे हैं ? अमेरिका क्यों नहीं जा रहे। ताकि एक दिन ये देश अमेरिका हो जाए। बाजू में चीन भी अमेरिका बनने में लगा हुआ है। चारों तरफ दुनिया के देश अमेरिका बनने में लगे हुए हैं। हमारे देश में समस्या ये है कि पंथ का कोई झगड़ा नहीं है। नीतियों में कोई मतभेद नहीं है। इसलिए मतभेद के मुद्दे हैं परिवारवाद, सोनिया गंाधी, राहुल गांधी बस। इससे ज्यादा कुछ नहीं। दिक्कत ये कि ये मुद्दे नहीं हैं व्यक्ति हैं। और कांग्रेस को चुनाव जिता ले जाते हैं। .........................सुखनवर 29 07 2011

Thursday, July 21, 2011

बरसात हो रही है

बरसात हो रही है। चारों ओर पानी ही पानी है। जून के महीने में बारिश शुरू हो जाती है। कोर्स की किताबों में लिखा रहता था कि वर्षा ऋतु का काल 15 जून से 15 सितंबर तक होता है। पर बारिश एक जून से 30 जून तक कभी भी शुरू हो सकती है। नहीं भी हो सकती है। कोई जरूरी नहीं कि जून मंे पानी बरसे। बादलों को भटकने की आदत होती है। हमारे लिए बारिश का मतलब हमारे इलाके में बारिश से होता है। हमारे इलाके में पानी नहीं गिरा यानी हमारे देश में सूखा पड़ गया भले ही देश के दूसरे हिस्सों में बाढ़ आ गई हो। देश काफी बड़ा है। कहीं पानी गिरता है कहीं नहीं गिरता। किताबों में पढ़ने से ऐसा लगता था कि राजस्थान में पानी गिरता ही नहीं है। इसीलिए वहां रेगिस्तान है। बाद में समझ में आया कि राजस्थान तक आते आते सारे बादल बरस चुके होते हैं इसीलिए पानी नहीं गिरता। फिर भी राजस्थान के लोग बिना पानी के भी सदियों से लड़ते चले आ रहे हैं। हाथों में तलवार लिए। वैसे पुराने जमाने में भी इतना पानी तो गिरता ही था कि राणा प्रताप को घास मिल जाती थी रोटी बनाने के लिए और जंगल थे भटकने के लिए।
समय के साथ हमारी सोच बदल गई है। हर साल मौसम विभाग को बताना होता है कि मानसून कब आएगा। देर से आएगा तो क्यों और जल्दी आएगा तो क्यों। अब कारण और उसका प्रकाशन बहुत जरूरी है। अब विज्ञान और मीडिया का जमाना है। जवाब देना पड़ता है। मीडिया की पहुंच बहुत भयानक है। वो कैमरा बैग थामे मौसम पंहुच जाते हैं। वहां सीधे प्रश्न दाग दिया जाता है बताईये मानसून कब आएगा। बड़े बाबू घबरा जाते हैं। वो घबराकर फाइल की नोटिंग निकाल कर पढ़ देते हैं जो साहब के पास से दस्तखत होकर आई है। दूसरे दिन मीडियाकर्मी फिर पंहुच जाता है। बहुत मुस्तैद है। बाहर ही खड़ा होकर आम जनता को संबोधित करने लगता है। देश में सूखा पड़ा है। और देश का मौसम विभाग सो रहा है। बड़ा सवाल ये है कि ये मौसम विभाग कब सही बता पायेगा कि पानी कब बरसेगा। एक दिन कुछ कहता है और दूसरे दिन कुछ। कल कहा था कि मानसून आ रहा है और आज तक मानसून का कोई अता पता नहीं है। जब तक अपने ए सी कमरों से निकलकर बादलों के तरफ झांकने की कोशिश मौसम विभाग नहीं करेगा। तब तक पानी नहीं गिर सकता। अब देखना ये है कि मौसम विभाग की नींद कब टूटती है। कैमरा मैन राम प्रसाद के साथ मैं लक्ष्मणप्रसाद।
मौसम में उथलपुथल पहले भी होती थी। अब भी होती है। हजारों सालों से मौसम अपना काम कर रहा है। कभी बरसात में बारिश होती है। कभी नहीं होती। सूखा पड़ जाता है। कभी कई साल तक ये चलता है तो अकाल पड़ जाता है। पर पहले कारण नहीं पूछा जाता था। अब सैटेलाइट है। वैज्ञानिक उपकरण हैं। तो जवाब देना पड़ता है। जवाब भी तय है। जंगल कट गये हैं। गर्मी बढ़ रही है। संतुलन बिगड़ गया है। ग्रीन हाउस इत्यादि। कारण बताने के लिए कुछ शब्द तय हो गये हैं। यदि बेमौसम पानी गिर जाए तो उसे वेस्टर्न डिस्टरबैंस कहते हैं। इसे हिन्दी में बताया ही नहीं जा सकता। मजा ही नहीं आता।
हमारे लिए बरसात स्कूल शुरू होने का मौसम था। जून का अंत आते आते बारिश शुरू हो जाती थी। कभी पुरानी ड्रेस और बरसाती निकाल दी जाती थी कभी नई खरीदी जाती थी। जब पानी गिरता था तो हल्की हल्की ठंड लगती रहती थी। हाफ पेंट हाफ शर्ट के कारण हाथ पैरों में ठंडक रहती थी। जब पानी गिरता था तो कक्षा में भी टपकता था। कक्षा में अंधेरा रहता था। उसी अंधेरे में पढ़ाई चलती रहती थी। कभी कोई छुट्टी नहीं। स्कूल मंे और फिर मुहल्ले में और फिर घर के आंगन में पानी भरा रहता था। उसी में पांव मारते नहाते थे । कपड़े कीचड़ में लतपथ। उस समय फोड़े बहुत हुआ करते थे। उनके निशान कुछ कुछ तो आज तक हैं। सल्फा पेंटिड नाम की दवाई सबसे तेज मानी जाती थी। पेनिसिलिन का इंजेक्शन रामबाण होता था। फोड़े के लिए चीरा लगवाना पड़ता था। शाम को पंखियां निकलती थीं तो घर भर जाता था। बरसात में प्रायः बिजली चली जाती थी तो लालटेन जलती थी। पंखे ट्यूबलाइट उस समय केवल बड़े घरों की शान थे। रेडियो बहुत बहुमूल्य था। इसीलिए कवि को जिंदगी भर बरसात की रात नहीं भूलती थी।
स्कूल में फुटबाल का ग्राउंड था। बरसात में फुटबाल का मजा ही कुछ और है। गोल के पास कीचड़ में फिसलते और गोल मारते तो आनंद ही कुछ और होता। इस आनंद की समाप्ति तब होती जब कीचड़ से सने हंसते खिलखिलाते घर पंहुचते और मां की डांट पड़ती।
.....................................सुखनवर

Friday, July 15, 2011

बिना इक्कों के ताश की गड्डी

मेरे हाथ में ताश की गड्डी थमा दी गई है और हर कोई उम्मीद करता है कि मैं इक्का दिखाऊं। मैं कहां से इक्का दिखाऊं। मेरे पास जो पत्ते हैं उनमें इक्के हैं ही नहीं। बहुत दिनों से ये चल रहा था। हर कोई कह रहा था खाली जगह भरो। मंत्रीमंडल के मंत्रीगण लगातार जेल जा रहे हैं। कुछ नए लोगों को मौका दो ताकि वे भी अपना हुनर दिखा सकें। मेरे पास चुनाव का कोई मौका नहीं था। दूसरी पार्टी के मिनिस्टरों की जगह खाली हुई थी। वो बताएं किसको बनाना चाहते हैं। वो तय ही नहीं कर पा रहे थे। ममता बनर्जी चाहती थीं कि वो चीफ मिनिस्टर भी रहें और रेल मिनिस्टर भी। उनकी पार्टी में भी बहुत से लोग उनकी जगह लेना चाहते हैं पर वो देने को तैयार नहीं हैं। उन्हंे लगता है कि आज किसी को बनाया तो कल वो सिर पर चढ़ जाएगा। वही डर जो मायावती को है।
डी एम के की हालत तो आप जानते ही हैं। सब भगे फिर रहे हैं। वहां घर के आदमी के अलावा मिनिस्टर बनाते नहीं हैं। टेलिकाम मंत्री के अलावा कुछ बनते नहीं हैं। स्पेक्ट्रम के अलावा कुछ जानते नहीं हैं। बी एस एन एल की ऐसी तैसी हो गई मिनिस्टर साहब को कोई फर्क ही नहीं है। उनकी बला से। ऐसे तो देश के मंत्रालय चल रहे हैं। शरद पवार हैं। खेती से लेकर क्रिकेट तक सब कुछ सम्हालना चाहते हैं। उन्हें भी कुछ बोल नहीं सकते। कृषि मंत्रालय कैसे चल रहा है भगवान ही जानता है। शरद पवार पुराने घाघ कांग्रेसी हैं। बहुत हुनर पैंतरे जानते हैं। कहीं फंसते नहीं हैं। लड़की दमाद लड़के बच्चे सबको सांसद विधायक बना दिया है। कृषि उत्पादन घट रहा है। खेती घाटे का सौदा हो गई है। लोग खाएंगे क्या जब अनाज पैदा ही नहीं होगा।
फिर भी साहब किया। मंत्री मंडल में फेरबदल किया। इस बार मैंने एक काम अपने मन का किया। पहले से लिस्ट निकलवा दी। जब मेरे को कुछ करने ही नहीं देना है तो मैं क्यों बुरा बनूं। लो बिगाड़ लो जिसको जो कुछ बिगाड़ना है। मुझे तो ताश के पत्ते फेंटना थे। दुक्के तिक्के बदलना थे। इंट की जगह लाल पान और हुकुम की जगह ईंट रखना थी। अब लोग कह रहे हैं मजा नहीं आया। पहले कहते थे इक्का दिखाओ। जब दिखा दिया तो कहने लगे कि ये र्तो इंट का है हमें तो हुकुम का इक्का देखना है। सब तो एक जैसे हैं। किसे बनाओ और किसे हटाओ। इस तरह से देश की सरकार चल रही है। क्या खाक चल रही है। जहां प्रधानमंत्री अपनी मर्जी न चला सके वहां सरकार चलाने का मतलब क्या है।
पहले लालू वगैरह थे तो हंसी ठठ्ठा करके देश को उलझाए रखते थे। अब तो मंत्रीमंडल में कोई है ही नहीं। मैं ही कुछ शेर शायरी कर लेता हूं। देश में पक्ष विपक्ष वकीलों के भरोसे चल रहा है। ये पेशेवर लोग हैं। बात को घुमाना जानते हैं। अभी आपने देखा बाबा रामदेव को कैसा घुमाया कपिल सिब्बल ने। अभी तक बाबा को चक्कर आ रहे हैं। वैसे हमारे देश को वकालत के पेशे से काफी कुछ मिला। नेहरू और गांधी भी वकील थे। उन्हंे बात को रखना और मनवाना आता है। जब से टेलिविजन पर 24 घंटा न्यूज चैनल चालू हुए हैं हर पार्टी को कुछ लोग रखना पड़ रहे हैं जो इनसे निपटते रहें। इसके लिए भी लोग नहीं मिलते। इन्हें पार्टी लाइन के अनुसार बोलना होता है। अब बताइये जब कोई पार्टी लाइन हो तब न उसके अनुसार बोले। इसीलिए वहां भी वकील साहब लोग लगा दिए हैं। उन्हें भी फायदा होता है। हम भी निश्चिंत हो जाते हैं।
मुझे तो मालूम है कि मेरा टेम्परेरी एपांइटमेंट है। राहुल बाबा अभी स्कूल में हैं। ज्योंही उनकी पढ़ाई पूरी हो जाएगी वो आ जाएंगे मैं चला जाऊंगा। ऐसा नहीं है कि मुझे कुछ आता नहीं है। पर मैं कुछ कर नहीं पा रहा। मेरी मुश्किल ये है कि मैं कोई पॉलिसी बना कर लागू नहीं कर पा रहा हूं। मेरी अर्थशास्त्र की पढ़ाई बेकार चली जा रही है। वित्त मंत्रालय में भी एक वकील साहब बैठे हैं। गृहमंत्रालय में दूसरे वकील साहब बैठे हैं। ये अंग्रेजी के भरोसे मंत्रालय चला रहे हैं। जैसे भी चलेगा ये ही चलाएंगे। मैं किसी को बदल तो सकता नहीं। प्रधानमंत्री हूं। .........................................................सुखनवर

Friday, July 8, 2011

प्रधानमंत्री पद की इंटर्नी शिप

देखिये साहब मेरी इंटर्नशिप चल रही है। देर सबेर ये तो होना ही है। मुझे जिम्मेदारी सम्हालना ही है। आपने फिल्म गाइड देखी हो तो याद होगा कि देवानंद की कोई इच्छा नहीं थी आमरण अनशन करने की जैसे अभी रामदेव की नहीं थी। मगर जनता का दबाव ऐसा बना कि देवानंद के पास कोई चारा नहीं था आमरण को मरण में बदलने के अलावा। रामदेव तो खैर सलवार कुर्ते के कारण होनहार होते होते रह गये। तो मुझे मालूम है कि मुझे प्रधानमंत्री बनना है। बकरे की अम्मा कब तक खैर मनाएगी। कांग्रेस के नाम पर जो लोग देश में इकठ्ठे हैं वो मुझे प्रधानमंत्री बनाकर रहेंगे। मुझे अपना भविष्य साफ दिख रहा है।
मेरी हालत वही हैं चढ़ जा बेटा सूली पर भला करेंगे राम। कांग्रेस को आज मेरी जरूरत है। कांग्रेस के नाम पर इस समय सत्ता मिल सकती है। कांग्रेस में लोग बहुत होशियार हैं। उन्हें मालूम है कि वे प्रधानमंत्री नहीं बन सकते। उन्होंने सच को स्वीकार कर लिया है। इसीलिए कांग्रेस में कुर्सी और पद लड़ाई नहीं है। लोग अधिक से अधिक से नंबर दो बनने की सोचते हैं। पहली सीट हमारे परिवार के लिए आरक्षित कर दी है। ये चालाकी नहीं तो और क्या है। ये तो वो सीट है जिसमें बम लगा है। कम से कम हमारे परिवार के लिए। मगर नहीं साहब बनना पड़ेगा। प्रधानमंत्री बनना पड़ेगा। जान का खतरा है तो भी बनो। देश के लिए बनो। आपको मालूम है देश क्या है ? आप समझते हैं 120 करोड़ लोग जहां रहते हें वो देश है। अरे नहीं साहब जहां एक करोड़ लोग रहते हैं वो दिल्ली ही देश है। यहां रहने वाले सौ दो सौ लोग देश चलाते हैं।
वैसे देश चलाना कोई कठिन काम नहीं है। दुनिया में अमेरिका का राज्य है। वो तय कर देता है कि हमें क्या करना है। व्यापार में अमेेरिकी कंपनियां का राज है। वो तय कर देती है कि हमारी आर्थिक नीति क्या होगी। अनाज चीनी के दाम सब ग्लोबल तय होते ैहैं। हथियार कंपनियां हैं वो हथियार दे देती हैं। अमेरिका है जो झगड़ा करा देता है। हम लोग हैं जो लड़ लेते हैं। हथियार खर्च हो जाते हैं। लड़ाई बराबरी की रहती है। दोनों के पास एक से हथियार हैं। लोग कहते हैं मनमोहन सिंह कुछ नहीं करते। कुछ नहीं कहते। अरे वो क्या कहें और क्या करें। उनके हाथ में क्या है। कल को मैं ही प्रधानमंत्री बन जाउंगा तो क्या कर लूंगा। मेरा और मेरे परिवार का एक ही काम है चुनाव जिताना और कांग्रेस की सरकार बनाना। अब इन कलमाडी को ही लें। वो क्यों प्रधानमंत्री बनना चाहेंगे। जरूरत क्या है जब साधारण मंत्री बने रहने पर ही आप पूरा देश लूट सकते हो। अफसरों के और मजे हैं। जब तक मंत्री के मातहत रहो तब तक उसके साथ मिलकर कमाओ। जब मंत्री मुसीबत में पड़ जाऐ तो उसे दगा देकर कमाओ।
देश को चलाने के कुछ नियम समझ में आते हैं। मसलन कोई निर्णय मत लो। हमेशा टालो। निर्णय करना ही पड़ जाए तो ऐसा निर्णय करो कि समझ में ही न आए कि निर्णय आखिर क्या हुआ है। सारी परेशानी तो मध्यवर्ग को है। इसे अच्छी तनखाह दे दो सुविधाएं दे दो तो ये राजनीति छोड़कर प्रभु के गुन गाने लगता है। आध्यात्मिक और आयुर्वेदिक हो जाता है। बजट में दस बीस हजार रूपये की छूट दे दो। मीडिया को मैनेज कर लो तो ये असली मुद्दे पर बात करना बंद कर देते हैं। तो देश तो चल जाता है।
असल चीज़ है मुनाफा। हम लोग इस दुनिया में क्यों हैं ? इसीलिए कि देशी विदेशी कंपनियांे को मुनाफा हो। जब तक हमारे जीने से मुनाफा होता है तब तक हम जीते हैं। जब हमारे मरने से मुनाफा होता है तो हमें मरना होता है। दुनिया चल ही इसीलिए रही है कि कुछ लोगों को मुनाफा हो रहा है। द्वितीय विश्वयुद्ध क्यों हुआ था ? क्योंकि इटली, जर्मनी, जापान को मुनाफा नहीं हो रहा था। उनने कहा हमें भी खिलाओ नहीं तो खेल बिगाड़ेंगे। उनको नहीं खिलाया तो उनने पूरी दुनिया का खेल बिगाड़ दिया।
तो ऐसा है कि आप लोग देखेंगे कि मैं न चाहते हुए भी एक दिन इस देश का प्रधानमंत्री बनूंगा। इस देश की और मेरी नियति ही यही है। .................................................................सुखनवर

Wednesday, July 6, 2011

देश की जनता

अखबार रोज निकलते हैं। अखबार रोज पढ़े जाते हैं। अखबार पढ़ने के बाद घर में रखे जाते हैं। सुबह से रात तक कई किश्तों में अखबार पढ़ा जाता है। मनन किया जाता है। बहस की जाती है। अखबार में पत्रकार होते हैं। लेखक होते हैं। लेख और अन्य सामग्री लिखी जाती है। सम्पादकीय लिखा जाता है। यह जिम्मेदारी का काम होता है। लेकिन जब से टी वी आया तो खबरें पढ़ने की जगह खबरें देखने की चीज हो गई हैं। समय बदला और अब चौबीस घंटा समाचार दिखाने की जिम्मेदारी चैनलों ने ले ली है। ऐसे कई चैनल हैं। इसीलिए इनमें प्रतियोगिता है। और इसीलिए इसके मुंहचलाऊ पत्रकार दौड़ जीतने के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं।
कुछ तो इतने जोश में रहते हैं कि हकलाने लगते हैं। ये कहते हैं कि इनके पास समय बहुत कम है। इनके मुंह से शब्दों की बौछार निकलती है। इनकी सबसे बड़ी उपलब्धि ये है कि इनके ऑफिस में देश की जनता बैठी हुई है। ये तत्काल जान जाते हैं कि देश की जनता क्या जानना चाहती है। इन्हें हर रोज मुद्दा चाहिए। इसीलिए तेल की कीमतों में वृद्धि आदि इनके लिए वरदान बनकर आते हैं। दो तीन दिन उसमें निपट जाते हैं। यदि कोई मुद्दा नहीं मिलता तो फिर इन्हें मुद्दा बनाना पड़ता है।
चौबीस घंटा समाचार बटोरने के लिए बहुत से लड़के लड़कियां भरती हैं। ये बेचारे माइक और कैमरा लिए दौड़ते रहते हैं। राजनैतिक दलों ने इनसे निपटने के लिए कुछ लोग रख छोड़े हैं जो बहुत अभ्यास के साथ अटक अटक कर सम्हल सम्हल कर वक्तव्य देते हैं। कुछ केवल हिन्दी बोलते हैं कुछ केवल अंग्रेजी बोलते हैं। कुछ द्विभाषी भी हैं। कुछ केवल बदमाशी के लिए रखे गये हैं। ये ऐसे वक्तव्य देते हैं कि हल्ला मच जाए और मूल मुद्दा कहीं और चला जाए। बाइट लेने वालों के लिए ये सबसे उपयुक्त हैं।
अखबारों में समाचार अलग रहते हैं विचार अलग रहते हैं। जनता के और लेखकों बु़िद्धजीवियों के विचार अलग छपते हैं। अखबार और सम्पादक के विचार अलग छपते हैं। लेकिन इन चैनलों में विचार का कोई झंझट नहीं है। इनका खुद का कोई विचार है भी नहीं । इनका एक विचार है सनसनी और अधिक से अधिक विज्ञापन। इनके विचार बहुत तात्कालिक होते हैं। किसी से बात की और तुरंत मुंह मोड़ा और बातचीत को तोड़ा मरोड़ा और परोस दिया। ये छोकरे छोकरियां जिनका राजनैतिक ज्ञान शून्य है वो विश्लेषण कर देते हैं। ये समाचार नहीं बताते समाचार का विश्लेषण बताते हैं। इन्होंने दर्शक की ओर से सोचने समझने की जिम्मेदारी ले रखी है। ये एक घंटे में प्रतिशत में बता सकते हैं कि फलां मुद्दे पर देश की जनता क्या सोचती है। इनके पास पूरे देश से एस एम एस आ जाते हैं। इनका देश हमसे अलग है। हम तो एस एम एस करते नहीं।
पत्रकारिता में जिसे पीत पत्रकारिता कहा जाता है। घृणा से देखा जाता है। ऐसे अखबारों और इससे जुड़े लोगों को बिरादरी से बाहर रखा जाता है वही टी वी मीडिया में छाए हुए हैं। ये प्रायोजित कार्यक्रम बनाते हैं। ये प्रायोजित इंटरव्यू लेते हैं और प्रायोजित सर्वे करवाते हैं। हमारे देश में समाचार चैनलों को देखकर लगता है कि पूरा देश चोरी बटमारी लूट रिश्वत हत्या बलात्कार दुर्घटनाओं का शिकार है। पूरा देश बेइमानों और चोरों से भरा हुआ है। इसमें कुछ भी अच्छा नहीं हो रहा। इन चैनलों में देश की नारी कपड़े पहनती ही नहीं है। फिल्मों में नग्नता और हिंसा के अलावा कुछ नहीं हैं।
पर इस देश में बहुत कुछ अच्छा हो रहा है। नए उद्योग लग रहे हैं। बांध पुल सड़क बन रहे हैं। गांव गांव में कृषि में नए प्रयोग हो रहे हैं। समय के साथ बहुत कुछ बदल रहा है। बहुत से लोग बहुत मेहनत से अच्छा रच रहे हैं। अच्छा साहित्य रचा जा रहा है। अच्छी फिल्में बन रही हैं। अच्छी पढ़ाई हो रही है। बहुत सी नई खोजें हो रही हैं। विज्ञान आगे बढ़ रहा है। चिकित्सा के क्षेत्र में हम आगे बढ़ रहे हैं। नाटक हो रहे हैं। लोग कलाओं में रूचि ले रहे हैं। देश में जो कुछ अच्छा हो रहा है उसे दिखाने और बढ़ाने की जरूरत है। ...........................................सुखनवर

Tuesday, June 28, 2011

भगवा भगोड़ा

बाबा जी मन्ने तो ये बताओ कि तुम भागे क्यों ?
अरे भगते नहीं तो क्या करते ? हमें क्या मालूम था कि आंदोलन करने में पुलिस के डंडे खाने पड़ेंगे। रात को बढ़िया सो रहा था। पुलिस आ गई। बोली चलो उठो। धारा 144 लगा दी है। भगो यहां से। उठाओ बोरिया बिस्तरा। मैंने चारों ओर देखा। आस पास कोई नहीं। बालकृष्ण का भी पता नहीं। जो लोग दिनभर मुझे चढ़ाते रहे वो सब गायब। दिन भर तो कहते रहे बाबा और गाली दो, सरकार से कोई समझौता नहीं करना। अनशन जारी रखना है। सत्याग्रह से अपन सरकार पलट देंगे। रात को सारे गायब। अब मुझे तो काटो तो खून नहीं। जो पुलिस अपने को बाबा जी बाबा जी कहती पीछे पीछे घूमती थी वो लठ्ठ फटकार रही थी। मैं भगा मंच पर आया तो काफी लोग दिखे तो मैंने सोचा इनके बीच घुस जाऊं। मैं मंच के किनारे गया तो किसी ने जोर से धक्का दिया तो मैं मंच के नीचे आ गया। अब तो मुझे खयाल ही नहीं रहा कि मैं रामदेव हूं। मुझे तो बस ये लगा कि मेरे पीछे पुलिस लगी है। मुझे भगना है। मैं भागा। इतने दिनों से योग कर रहा हंू पर सब बेकार। घबराहट के मारे बुरा हाल।
अरे जे सब तो ठीक है पर औरतों के कपड़े क्यों पहन लिये ?
अरे वही तो बता रहा हूं। ये पुलिस का प्रपंच बहुत बुरा है। पूरे पंडाल मंे हल्ला हो रहा था। बाबा कहां हैं कहां है बाबा। सामने माताएं बहनें दिखीं तो मैं जल्दी से जाकर उनके बीच में छुप गया। महिलाओं से मेरी घबराहट देखी नहीं गई। उनने घेरा बना लिया और कहने लगीं बाबा घबराओ मत आप तो हमारे कपड़े पहन लो और हमारे साथ भग चलो। मैंने भी लुंगी फंेकी और सलवार कुर्ता पहना और माताओं बहनों के बीच छुप कर भागा और पास में एक पुल था उसके नीचे छुपा रहा।
अरे पर मन्ने तो ये बताओ कि तुम तो इतने बड़े योगी ठहरे औरतों के कपड़े पहनकर भगते तुम्हें शर्म न आई ?
अरे तू शर्म की बात करता है। अरे यहां जान पर बनी हुई थी। तू तो औरतों के कपड़े की बात करता है मैं तो बिना कपड़ों के भी भाग जाता। मुझे क्या मालूम कि आंदोलन करने में ऐसा होता है। चार चार मंत्री एयरपोर्ट पर लेने आते हैं और फिर पुलिस से पिटवाते हैं। इतना छुपकर भागा फिर भी पुलिस वालों ने पकड़ लिया। साले बहुत बदमाश होते हैं। उनने कहा ये लंबी दाढ़ी वाली औरत कौन है। बस फिर क्या था। मुझे उठाया और जहाज में रखा और हरिद्वार पंहुचा दिया।
अरे पर तेरे चेहरे पर बारा क्यों बजे हुए थे ?
मैं राजनीति करने गया और राजनीति का शिकार हो गया। ये भगवा राजनीति वालों ने मुझे निपटा दिया। मैं सोच रहा था कि मैं योग और राजनीति को मिलाकर कर राष्ट्र का निर्माण करूंगा पर अब मैं केवल योग के काम का रह गया हूं।
हरिद्वार में आकर तुम्हें अनशन करने की क्या सूझी ?
अरे मुझे क्या सूझी साले इन भगवा वालों की जय हो कहने लगे बाबा तुम तो आमरण अनशन करो। ये साले मुझे गाइड का देवानंद बनाना चाह रहे थे। यदि मैं अपनी अकल न लगाता तो इनके चक्कर में तो मर ही जाता। तीन दिनों में ही सर चकराने लगा। मैंने तो तुरंत कहा भैया कोई बहाना बनाओ और मेरा ये अनशन निपटाओ नहीं तो मैं निपट जाउंगा। पूरा धंधा चौपट हो जाएगा। किसी तरह अनशन तोड़ा तो जान बची।
अब आगे क्या करने का इरादा है ?
बड़े लोगों ने कहा है कि धंधे वाले को राजनीति में नहीं पड़ना चाहिये। तो अपन तो अपना धंधा देखेंगे। योग सिखायंेगे। फीस लेंगे। दवाई बेचेंगे दाम लेंगे। स्कूल कालेज विश्वविद्यालय खोल लिए हैं वो चलायेंगे।
जयप्रकाश जी ने जब राजनीति छोड़ी तो उन्हें लाल भगोड़ा कहा जाता था आपको क्या कहा जाएगा ?
भगवा भगोड़ा।

Thursday, June 9, 2011

मि. भ्रष्टाचार

मि. भ्रष्टाचार आत्मविश्वास से भरे हुए थे जब मैंने पूछा
प्रश्न: आप इस समय बहुत चर्चा में हैं। कैसा लग रहा है ?
उत्तर: चर्चा में रहूं न रहूं मेरा अस्तित्व सनातन है। मैं कण कण में व्याप्त हूं। मैं हर खाये पिये के दिल में बसता हूं। वो सब मुझे हृदय से चाहते हैं’
प्रश्न:आपका मतलब गरीब अमीर सभी भ्रष्टाचारी हैं ?
उत्तर: जिनके पास खाने को नहीं है वो कैसे भ्रष्टाचार करेंगे। उनके लिये तो भुखमरी और ईमानदारी ही बची है। उनके पास बेईमान होने का अवसर ही कहां है ? जिनके पास है वो कोई मौका नहीं छोड़ते। बहुत ज्यादा लोग ऐसे हैं जो जीवन भर भ्रष्ट होने के लिए तैयार बैठे रहे पर मौका ही नहीं मिला। ये दूसरे तरह के ईमानदार हैं। ये काफी जोर से बोलते हैं।’
प्रश्न:अभी रामलीला मैदान में हजारों लोग जमा हुए आपकी इतनी मिट्टी पलीद की। आपको डर नहीं लगा ?
उत्तर: जो लोग जमा हुए उन्हें पता ही नहीं था कि वे किस लिए जमा किए गए हैं। जब कारसेवक अयोध्या जा रहे थे तो क्या उन्हें पता था कि वे क्यों जा रहे हैं ? जो ले जा रहे थे उन्हें पता था कि इनसे क्या करवाना है। उनने करवाया और आज तक उसी की दाल रोटी खा रहे हैं। रामलीला मैदान में तो सरकार की सावधानी ने सारा खेल ही बिगाड़ दिया। रामलीला मैदान में आग से या भगदड़ से या विस्फोट से या किसी और नायाब तरीके से सौ दो सौ लोग मर जाते तो कहा जाता कि इस भ्रष्टाचारी सरकार ने ये करवाया। देश भर में इतना खराब माहौल हो जाता कि सरकार तो गिर ही जाती देश कहां जाता इसकी कल्पना की जा सकती है। लेकिन इस बार सरकार ने वो मूर्खता नहीं की जो नरसिंह राव सरकार ने की थी। रातों रात एक्शन लेकर सारी योजना का सत्यानाश कर दिया। इसीलिए तो भगवा पार्टी चोट खाए सांप की तरह बर्ताव कर रहीं है। सारा दर्द उसी को है। बाबा बौरा गए हैं कभी कुछ बोलते हैं कभी कुछ। रोज नई पोल खुल रही है। संघ को खुलकर सामने आना पड़ा। सारे भ्रम टूट रहे हैं।
प्रश्न:भ्रष्टाचार जी आपका भाई काला धन तो संकट में है। मजे से स्विट्जरलैंड में ठंडी आबोहबा में रह रहा था। उसे अब भारत की गर्मी सहन करना पड़ेगी। सरकार भी उसे वहां से लाने को तैयार है।
उत्तर: पुराने जमाने में एक महान राजा हर्ष हुए थे। उनकी खासियत ये थी कि वो हर दो चार साल में अपना पूरा धन जनता को बांट देते थे। पाठ्य पुस्तकों में ये तो लिखा है पर ये नहीं लिखा कि हर दो चार साल में उनके पास फिर धन कैसे इकठ्ठा हो जाता था। आदमी दस लाख कमाता है और एक लाख की घोषणा करता है। काला धन इस तरह से बनता है। काला धन का उत्पादन रोकने की इच्छा या ताकत या अक्ल इन बाबाओं में तो नहीं है। कालाधन तो अंधों का हाथी है। हर कोई अपनी औकात के मुताबिक नाप रहा है।’
प्रश्न:क्या मतलब ?
उत्तर: सामान्य आदमी से पुलिस वाला दस रूपये ले लेता है तो उसके लिए वो भ्रष्टाचार है। बड़े कार्पोरेट से बड़ा अधिकारी या मंत्री करोड़ो ले लेता है तो उसके लिए वो भ्रष्टाचार है। सामान्य आदमी आम सभा में गुस्सा निकालता है। कार्पोरेट पांच सितारा होटल में बैठकर गुस्सा निकालता है। अपने अपने भ्रष्टाचार हैं। अपना भ्रष्ट आचरण आदमी नहीं देखता। दूसरे का देखता है। इसीलिए में हूं और रहूंगा।..............................................................सुखनवर

Wednesday, June 1, 2011

तर्क तिरोहित

प बंगाल में वाम मोर्चा हार गया। ममता बैनर्जी जीत गईं। चुनाव से जीतीं। कहा गया कि पहली बार प बंगाल के मतदाता को निष्पक्ष मतदान का मौका मिला। कहा गया कि चौंतीस साल पुराने कुशासन का अंत हुआ। समझ में नहीं आ रहा क्या बंगाल में चौंतीस साल के बाद चुनाव हुए हैं ? पिछले चुनाव किसने कराए थे ? उसी चुनाव आयोग ने जिसने ये चुनाव कराये। चुनाव तो हर पांच साल में होते रहे। यदि गलत चुनाव होते रहे तो जिन्हें शिकायत है चुनाव का बहिष्कार क्यों नहीं करते रहे ? जब एक समय सिद्धार्थ शंकर राय मुख्यमंत्री बने थे तो सी पी एम ने चुनावों में धांधली की शिकायत की थी। पर इसी कारण सी पी एम के जीते हुए विधायक पूरे पांच साल तक विधान सभा में नहीं घुसे। चौंतीस साल के कुशासन की शिकायत करने वाले हर बार चुनाव लड़ते रहे। हारते रहे। यही नहीं सिद्धांतों के इतने पक्के थे कि कांग्रेस को छोड़कर भाजपा से मिलकर भी चुनाव लड़ते रहे। हारते रहे। यदि इस चुनाव में ममता जीतीं तो पिछले चुनाव में ममता हारीं भी तो थीं। यदि इस बार ममता मुक्तिदाता हैं क्योंकि चुनाव जीतीं है तो पिछली बार तक सीपीएम मुक्तिदाता रही क्योंकि वो चुनाव जीतती रही। तो फिर कुशासन 34 साल का कहां रहा, ज्यादा से ज्यादा पांच साल का रहा।
ज्यादा समय सत्ता में रहने पर आत्मविश्वास बढ़ जाता है। मध्यप्रदेश में जब दिग्विजय सिंह दूसरी बार चुनाव लड़ रहे थे तो उनका प्रसिद्ध इंटरव्यू आया था। चुनाव लड़े नहीं जाते मैनेज किये जाते हैं। सी पी एम को तो पिछले तीन सालों से लगातार चुनाव हारने के संकेत मिल चुके थे। दरअसल सी पी एम ने कांग्रेस और भाजपा से कुछ नहीं सीखा। इनकी सरकारों में हर कुछ दिन में मुख्यमंत्री बदल दिया जाता है। जनता की शिकायत दूर हो जाती है। ये अपने ही अंदर विरोध का निपटारा कर देते हैं। सी पी एम ने यदि साल भर पहले बुद्धदेव दासगुप्ता को बदल दिया होता तो तृणमूल का तीन चौथाई विरोध फुस्स हो जाता। ममता बैनर्जी की जगह सी पी एम वाले खुद ही बुद्धदेव को गरियाने लगते। अपनों को गरियाने में तो ये लोग उस्ताद हैं ही फिर ममता किसे क्या कहतीं। ये दसियों साल से आजमाया हुआ नुस्खा है।
पर सी पी एम के निर्णयों पर क्या कहा जाए ? इनके विचारपूर्ण निर्णय की वजह से देश को देवगौड़ा जी जैसा प्रधानमंत्री मिला। लालू मुलायम शरद तीनों यादव एक बात में एकमत थे कि हम एकदूसरे में से किसी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे। ज्योति बसु के नाम पर सभी सहमत थे। पर सी पी एम ने कहा कि हम देश पर राज नहीं करेंगे। हम संघर्ष करेंगे। ज्योति बसु प्रधानमंत्री नहीं बने। देवगौड़ा देश पर लद गये। सोमनाथ चटर्जी को पार्टी अनुशासन का हंटर मारकर पार्टी से निकाल दिया। कोई तर्क नहीं। तर्क तिरोहित।
इस देश की जनता को अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि इस देश में इतनी सारी कम्युनिष्ट पार्टियां क्यों हैं ? एटक और सिटू क्यों हैं ? जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ क्यों हैं ? ए आई एस एफ और एस एफ आई क्यों हैं ? इनमें क्या सैद्धांतिक मतभेद हैं ? क्यों हर महत्वपूर्ण मौके पर ये पार्टियां गलत निर्णय लेती हैं ? क्यों माफी मांगती हैं ? क्यांे कहती हैं कि गलती हो गई। यदि आपको सत्ता में नहीं रहना है और देश को चलाने की औकात आप में नहीं है तो जनता आपको क्यों चुने ?
राज्य सरकार हो या नगर पालिका इन्हें दलाल और ठेकेदार चलाते हैं। इन्हीं के माध्यम से सारे काम होते हैं चाहे तबादले हों या निर्माण कार्य। इसीलिए राज्य सरकार बदलने का मतलब दलालों और ठेकेदारों की शिफ्टिंग। 34 सालों से जमे हुए संबंध ढ़ीले होंगे फिर टूटेंगे। फिर नए बनेंगे। पांच साल तो लग जाएंगे। तब तक में सी पी एम में भी सफाई हो जाएगी। सी पी एम में बचे हुए असली कार्यकर्ता फिर से पानी के ऊपर निकल आएंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि सी पी एम फिर सत्ता में आ जाए। या न भी आए। यही जयललिता जब पिछला चुनाव हारीं थीं तो इनकी केवल दो सीट बची थीं। इनने अपने गोद लिए पुत्र की शादी करोड़ों रूपये खर्च करके की थी। उसी के बाद हुए चुनाव में इन्हीं भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ सत्ता से बाहर हुईं थीं। जनता के पास विकल्प क्या है ? नागनाथ सांपनाथ में से एक को चुनना है। तर्क तो है ही नहीं। तर्क तिरोहित। .....................सुखनवर

Wednesday, May 25, 2011

बहुत कठिन है डगर राजनीति की

बहुत कठिन है डगर राजनीति की
बाबा तूफानी दौरे पर हैं। दिन रात चल रहे हैं। हजारों किमी चल चुके हैं। अभी हजारों किमी और चलेंगे। बहुत जोश में हैं। हर रोज दो दो शिविर ले रहे हैं। पांच पंाच सभाएं कर रहे हैं। उनका अपना टेंट हाउस है। अपना खुद का साउंड सिस्टम है। अपना खुद का टी वी चैनल है। हर शहर कस्बे में इनकी दुकान खुल चुकी है। उसके संचालक को सख्त निर्देश है बाबा की पूरी व्यवस्था करो वरना दुकान बंद। बाबा ने घोषणा कर दी है कि सब पार्टियां बेईमान हैं। मेरी खुद की पार्टी बनेगी। मेरे ईमानदार लोग चुनाव लड़ेंगे। वो ईमानदार सरकार बनाएंगे। इस चक्कर में सब पार्टियों के नेताओं ने हाथ खींच लिए। जब संयोजकगण चंदा मांगने गए तो हाथ जोड़ लिए। भैया जब तक बाबा योग सिखा रहे थे तब तक ठीक था। अब वो पार्टीबाजी कर रहे हैं तो हम भी पार्टी से बंधे हैं। हम तो पूरा शिविर करवा देते पर अब नहीं करवा सकते। हम पूरी तरह साथ हैं पर सामने नहीं आ सकते। चंदा ले जाओ। दो पांच हजार। ईमानदारी का इतना ही पैसा है। इससे ज्यादा तो कालाधन ही दिया जा सकता है। वो बाबा लेंगे नहीं। हम देंगे नहीं। अब बाबा का एक यात्रा का खर्च है एक दिन का पन्द्रह से बीस लाख रूपये। इसमें उनके टेन्ट हाउस साउंड सिस्टम और आस्था चैनल की फीस शामिल है। खैरियत है। इतना सारा सफेद धन हर शहर में कहां है। कुछ तो काला मिलाना पड़ता है। कार्यकर्ता परेशान है। जिस पैसे वाले के पास जाओ उसके पास सफेद धन की कमी है। काला लेना नहीं है।
पहले बाबा तीन दिवसीय शिविर करवाते थे। बड़ी तैयारी होती थी। पूरी भाजपा जुट जाती थी। मंत्री से लेकर संत्री तक पूरा सरकारी अमला जुट जाता था। एक बार के आयोजन का बजट बनता था एकाध करोड़ रूपये। अस्थायी कार्यालय खुल जाता था। स्वागत समिति बन जाती थी। स्थान चयन से लेकर टिकिट बिक्री तक सभी व्यवस्थाएं होती थीं। बाबा के शिविर में कोई फ्री सर्विस नहीं थी। कम से कम पांच सौ तो लगना ही है। एक शिविर पचास साठ लाख के फायदे में जाता था। फिर लोगों को पातंजलि ट्रस्ट के लिए दान देना होता था। सभी राजनेता उद्योगपति अपना अपना धन बाबा को दान करते थे। उस समय तक बाबा ने सफेद काले का कोई भेदभाव रखा नहीं था। जिसके पास जो हो सो दे।
अब बाबा को कुछ और सूझ गया है। अब योग एक बहाना हो गया है। अब राजनीति सूझ रही है। अब इंस्टेंट काफी के समान इंस्टेंट योग शुरू हो गया है। बीमार परेशान आदमी ऐलोपैथी फिर आयुर्वेद फिर होम्योपैथी में जाता है। जब कहीं फायदा नहीं मिलता तो भगवान की शरण में जाता है। यहां बाबा के यहां सबकुछ है। भगवान भी हैं बाबा स्वयं हैं आयुर्वेद भी है और योग भी है। आस्था चैनल भी है। और सबकुछ तुरंती है। एकदम तुरंत फायदा होता है। मैदान मंे योग करो। तुरंत बताओ कि ब्लडप्रेशर कम हो गया। फिर बाहर आकर दवाईयां खरीद लो। सिंगल विंडो सिस्टम। एक ही खिड़की से सभी सुविधाएं उपलब्ध। अब दवाईयां ही नहीं आटा और कास्मैटिक्स भी बाबा बेच रहे हैं। सामान अच्छा है और अपेक्षाकृत सस्ता है।
बाबा से भाजपा को बहुत उम्मीदें थीं। भाजपा को बाबा से बहुत उम्मीदें थीं। बाबा भी राष्ट्र राष्ट्र करते हैं। भाजपा तो राष्ट्र राष्ट्र करती ही है। अभी अभी बाबा अन्ना हजारे के अनशन में अपने निजी विमान से दिल्ली आए तो साथ में विमान में आर एस एस के प्रवक्ता राम माधव को लाए। ये एक संकेत है। बाबा ने योग बेचकर एक नये उद्योग को जन्म दिया है। पहले योग व्यायाम और आध्यात्म से जुड़ा था। बाबा ने उसे घर घर पंहुचाया और स्वास्थ्य व धंधे से जोड़ा। योग सीखने का पैसा देना होगा। लोगों ने दिया। बाबा ने प्रवचन नहीं दिया। धर्म के नाम पर धंधा नहीं किया। बाबा ने स्वदेशी सामान बनाया। अच्छा बनाया और उसे बेच रहे हैं। इसीलिए बाबा यह चाहते हैं कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हो स्वदेशी का इस्तेमाल हो। सभी स्वदेशी कंपनियों का भला होगा। स्वदेशी कंपनियां बच नहीं पा रही हैं। सबको उदारीकरण चाट गया है।
बाबा को न जाने किसने ज्ञान दे दिया कि जितने लोग तुम्हें सुनने देखने और योग करने आते हैं वो सब तुम्हारे वोटर हैं। तुम वोट मांगोगे तो वोट दे सकते हैं। तो बाबा को राजनीति सूझ गई है। बाबा का एजेंडा है विदेशों में जमा काला धन वापस लाना है। काला धन कांग्रेस का है। इसी की सरकार वापस नहीं लाना चाहती। इसी को बदलना है। चोर राष्ट्रद्रोही और गद्दार जो शासन कर रहे हैं उन्हें मार भगाना है। बड़े नोट बंद करना है। जनलोकपाल बिल बनवाना है। बाबा अनशन पर बैठ रहे हैं। अब अनशनों की लड़ाई शुरू होगी। पहले अन्ना हजारे बैठे। अब बाबा बैठे। जबसे बाबा रामदेव ने राजनैतिक तेवर अपनाए हैं तबसे राजनीतिज्ञों ने उनके पीछे से हाथ खींच लिए हैं। प्रेस और इलेक्टॉनिक मीडिया से बाबा गायब हो चुके हैं। राजनीति शुरू हो चुकी है।
पहले भी अनेक बाबाओं ने राजनैतिक पार्टी बनाई है। चुनाव लड़े हैं। हारे हैं। राजनैतिक पार्टी एकसूत्री या दो सूत्री एजेंडे पर नहीं बनती। हमारे देश में बहुत सी प्रादेशिक पार्टियां हैं जो बिना किसी आर्थिक नीति, विदेश नीति के बनती हैं और चलती रहती हैं। ये केन्द्र सरकार में शामिल भी रहती हैं। पर इनका काम एकसूत्री होता है अपना भला करना जैसे तृणमूल का हो या डी एम के का हो। मगर यदि आप देश पर शासन करना चाहते हो तो अपनी पार्टी को सामने तो लाओ। बताओ तो कि इसमें कौन शामिल हैं। जनसंख्या, पेयजल, पर्यावरण, साम्प्रदायिकता, असंगठित मजदूर, बेरोजगारी, बंद होते कारखाने, करोड़ों शिक्षित बेरोजगार, अशिक्षा, मंहगी होती उच्च शिक्षा, आर्थिक असमानता, स्वास्थ्य, उर्जा संकट, पेट्रोल के दाम यातायात इन सबके बारे में आपकी नीति घोषित होना चाहिए। आर्थिक नीति, विदेश नीति, प्रजातंत्र, लोकतंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र, पंूजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, तानाशाही ये शब्द दुनिया में यूं ही नहीं हैं इन सबका मायने है।
बाबा अभी बहुत दूर जाना है। .........................................................सुखनवर

Wednesday, May 18, 2011

बाप दादों की प्रापर्टी

मजबूरी है साहब। बाप दादों की प्रापर्टी है। ऐसे कैसे छोड़ दें। मेरा तो पालिटिक्स में कोई इंटरेस्ट नहीं है। मैं तो अच्छा भला स्टेट्स में रह रहा था। सिस्टर यहां थी ही। उसका इंटरेस्ट भी है। उसमें ग्रेंड मा के समान लुक भी है। वो सम्हाल रही थी। मगर मेरे पीछे पड़ गए। मदर भी अकेली पड़ रही थीं। उनने भी कहा बेटा आओ मदद करो। यहां तो एक से एक घाघ हैं। क्या बताऊं आपको।े कहा कि मॉम की मदद करने आ जाओ। तो आ गए हैं साहब। घूम रहे हैं गांवों में। क्या क्या नहीं करना पड़ रहा है ? कभी तो लगता है कि सब कुछ छोड़ो छाड़ो और वापस चलो। यहां इंडिया में तो इतनी धूप है इतनी गर्मी है कि जीना मुश्किल है। न जाने लोग कैसे रहते हैं।
क्या था कि जब तक ग्रेंड मा थीं तब तक चलता था। वो पॉलिटिक्स जानती थीं। वो सबको चराती रहती थीं। पूरी पार्टी में कोई चीं नहीं बोल सकता था। वो जानती थीं कब क्या करना है। कब किसे उठाना है कब किसे गिराना है। लोग कहते हैं कि हममें उनका खून है। हमें स्वाभाविक रूप से ये सब आना चाहिए। पर पहले बहुत लायक लोग हुआ करते थे। लायकों में से नालायक निकालना बहुत बड़ा काम हुआ करता है। अब क्या हाल हैं ? कितने स्टेट हैं जिसमें हमारी पार्टी ही नहीं है। अब बताइये क्या करें। ग्रेंड मा के जमाने में और आज के जमाने में बहुत फर्क है। तब सोवियत यूनियन था। उधर स्टेट्स से प्रेशर आया और यहां ग्रंेड मा ने मास्को फोन लगाया उधर वाशिंगटन वाले सीधे हो गए। अब कौन है जिसके बल पर हम एंेठें। और हमारी पार्टी ? कितने स्टेट में तो है ही नहीं। लोग कांग्रेेेस को वोट क्यों दें ? कांग्रेस हो तब न वोट दें। हमारा फार्मूला लेकर न जाने कितने प्रोडक्ट मार्केट में हैं। कितना काम्पटीशन है। आप समझिये। ये मुलायम सिंह ये मायावती ये लालू यादव ये पासवान ये करूणानिधि ये जयललिता ये ममता बैनर्जी ये सब कांग्रेस ही तो हैं। मगर इस बीच जो वैक्यूम क्रियेट हुआ है उसके कारण इन लोगों की बन आई है। हर स्टेट में अलग अलग पॉकिट्स बन गए हैं। वो तो भला हो इस भारतीय जनता पार्टी का जो हिन्दुत्व का मुद्दा लिए हुए है। ये यदि इस मुद्दे को छोड़ दे तो आज इसका कब्जा हो जाए देश पर। आखिर बताइये हममें और इनमें क्या फर्क है। इकॉनॉमिक पॉलिसी एक। फॉरिन पॉलिसी एक। फर्क ये है कि हम लोगों को कुछ वैल्यूज़ हमारे पुरखे सिखा गये हैं वैसे ही इनके पुरखे इन्हें सिखा गये हैं दंगे और धर्म की पॉलिटिक्स। हम लोग ये नहीं करते बस। अब तो मुझे भी समझ में आ गया है कि इन्हें धर्म की पॉलिटिक्स करने से मत रोको। खूब करने दो। और दो की चार लगाओ। जब तक ये सब करते रहेंगे गलतफहमी में बने रहंेगे कि हम सत्ता में आने वाले हैं। एक बार आ गए थे। फिर कैसे चले गए। कहां गया शाइनिंग इंडिया।
मेरी तो बड़ी मुश्किल है। मुझे पॉलिटिक्स आती नहीं। मुझे भाषण देना नहीं आता। बीसों साल से हिन्दी बोली नहीं। गांवों में अनपढ़ लोग हैं। अंग्रेजी आती नहीं। कैसे मैं अपने थॉट्स को कन्वे करूं। पापा को भी मेरी तरह पॉलीटिक्स में धक्का दिया गया था। वो तो पाइंट्स बनवा लेते थे और चिट्स रखे रहते थे। मैं क्या करूं। मेरी क्या हालत है बताऊं आपको। मुझे तो पानी में फेंक दिया है। अब सिवाए तैरने के कोई चारा नहीं है। दौड़े जाओ। एक स्टेट में चुनाव खत्म होते हैं तो दूसरे में चालू। उस पर से मुझे यूथ कांग्रेस सम्हालने को दे दी। अरे बाप रे। ये कांग्रेस का यूथ है ? इनकी शकल देखकर तो खून ठंडा हो जाता है। दे आर जस्ट..... खैर जाने दीजिए पार्टी का मामला है। कुछ मुंह से निकल गया तो मीडिया वाले जान ले लेंगे। एक तो इस देश के मीडिया से मैं बहुत परेशान हूं। इन्हें लगता है कि देश इनसे पूछ कर चलाया जाए। क्यों भई हम लोग चुनाव लड़ कर सत्ता में आए हैं। हमें जो करना है करेंगे। आपसे क्यों पूछेंगे। आप कोई कोर्ट हैं कि रोज हर बात का जवाब देते रहें। पर वैसे पिछले चुनाव से काफी ठीक हो गया है। रेट तय हो गया है। पैसा ले लेते हैं और चुप रहते हैं। अब बेसिक प्राब्लम्स पर बात नहीं करते। क्राइम वगैरह दिखाकर समय काटते रहते हैं।
अब बताऊं आपको परमाणु समझौते के बारे में। बुश का टाइम खत्म हो रहा था। उसने कहा कि मुझे तो एग्रीमेंट करना है। आपको करना पड़ेगा। पी एम ने कहा कि हमारे यहां सी पी एम वाले समर्थन वापस ले लेंगे। बुश ने कहा नथिंग डूइंग। कह दिया मतलब कह दिया। कल आ जाओ और साइन करो। अब बताइये। इस कंडीशन में हम क्या करते। वैसे भी सरकार गिरती और ऐसे भी सरकार गिरती। तो सी पी एम वाले बुरा मान गए। अब मान गए तो माने रहो। हमारी भी मजबूरी थी। अच्छा ही हुआ। इन लोगों से पीछा छूटा। सरकार में शामिल भी नहीं होते थे। जिम्मेदारी भी नहीं लेते थे और काम भी नही करने देते थे। इधर ये ब्लैकमेलिंग कर रहे थे उधर बुश ब्लेकमेलिंग कर रहे थे।
अब हम लोग तो किसी को जानते नहीं। जो जैसा बता देता है। कर देते हैं। लोग समझते हैं कि हम पार्टी के मालिक हैं। जबकि सचाई क्या है ? हम तो डमी हैं। असली पार्टी तो इंडस्ट्री वाले हैं। उनके पास पैसा है। उन्हें पैसा कमाना है। हम तो उनके लिए सरकार चला रहे हैं। हमें तो पता भी नहीं चलता। जो वो चाहते हैं वो हो जाता है। हमारी सरकार भी कोई सरकार है। सरकार में शामिल किसी पार्टी को हम कुछ नहीं बोल सकते। चाहे वो चोरी करे चाहे डकैती करे। हमारी पॉलिसी कुछ है और मिनिस्ट्री करती कुछ है। बोल नहीं सकते। क्योंकि गठबंधन धर्म है। अजीब प्राब्लम है इंडिया में। इन सबके लिए मैं गांव गांव घूम रहा हूं। मजाक है न। बाप दादों की इस प्रापर्टी का मैं क्या करूं? कहां तक सम्हालूं। .................................................सुखनवर

Thursday, May 12, 2011

सम्मान और सम्मानित

हमारे देश में पुरस्कार देने और सम्मान देने, अभिनंदन करने की सुदीर्घ परंपरा है। बड़े शहरों में यह खेल बडे़ स्तर पर होता है पर छोटे शहरों में यह बड़े मनोरंजक स्तर पर होता है। कुछ लोग होते हैं जो किसी न किसी का सम्मान करने की फिराक में रहते हैं। इनका जीवन इसी काम के लिए समर्पित रहता है। ये और कुछ नहीं करते बस सम्मान करते हैं। साल भर इसी टोह में रहते हैं कि किसी का सम्मान कर दें। किसी को पुरस्कार दे दें। ये अपने इस काम के प्रति बहुत श्रद्धा रखते हैं और इसे बड़ा रचनात्मक काम मानते हैं। एक तरह से ये एकल खिड़की सुविधा का पर्याय हैं। इधर आपके मन में विचार आया कि अपना सम्मान करवाया जाए उधर आपने उन्हें खबर की और ये लीजिये काम चालू हो गया। प्रेस में समाचार लग गया। हॉल बुक हो गया। पेंटर कसीदाकारी के साथ सम्मान पत्र लिखने लगा। कार्ड छप गये। कुछ ही दिनों बाद सम्मान के इच्छुक किसी मुख्य अतिथि से बाकायदे सम्मानित हो गये। धीरे धीरे कस्बों और शहरों में एक गिरोह बन जाता है। इसमें बहुत से सम्मानित और भविष्य में सम्मानित होने वाले लोग शामिल होते हैं। घूम घूम कर सम्मान वाली कुर्सी में बैठते जाते हैं। जो आज सम्मानित हो रहा है वो कल सम्मान करता नजर आएगा। जो उसके बारे में कहा जा रहा है। वो कल दूसरों के बारे में कहेगा। इन सम्मान कार्यक्रमों में कुछ लोग मुख्य अतिथि बनने में भी माहिर होते हैं। जैसे आयोजक कार्यक्रम आयोजित करने में माहिर होता है वैसे ही ये मुख्य अतिथि या अध्यक्ष पद का दायित्व संभालने में माहिर होते हैं।
सम्मान कार्यक्रम में शामिल होने वाले लोग न केवल तय होते हैं वरन् उनकी वेशभूषा भी तय होती है। ऐसे मौके पर शर्ट पेंट पहनना तो मानो अपराध ही है। सभी लोग यथाशक्ति अपना नया पुराना कुर्ता धोती या कुर्ता पाजामा पहनते हैं। हर सम्मान कार्यक्रम के लिए नया तो बनेगा नहीं इसलिए आवृत्ति बहुत हो जाती है। हर बार वही पहनना पड़ता है। ठंड के दिन हों तो मुख्य अतिथि को सुविधा हो जाती है वो शॉल ओढ़कर बैठ जाते हैं। इससे गरिमा आ जाती है। कुछ अतिथि बहुत बदमाश होते हैं। वो लापरवाही का प्रदर्शन करते हैं लेकिन उनका इरादा खेल और फोटो बिगाड़ने का होता है। वो मंच पर बंदर टोपा लगा कर बैठ जाते हैं। अतिथि को कुछ कहा भी नहीं जा सकता और फोटो तो बिगड़ ही जाता है।
सम्मान कार्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा सम्मानित के घर परिवार के लोग होते हैं। ये एक कोने में गोल बनाकर बैठा दिये जाते हैं। सम्मानित की पत्नी की स्थिति विचित्र होती है। उसे पकड़कर मंच की तरफ खींचा जाता है। वो जाना नहीं चाहतीं। मगर ले जाई जातीं हैं। उनका भी माल्यार्पण हो जाता है। मंच संचालक भाव विभोर हो जाता है। उसकी भी समझ में नहीं आता कि अब इनका क्या करें। थोड़ी देर इसी असमंजस में कट जाते हैं। फिर कहा जाता है कि सम्मानित आज जो भी हैं इन्हीं के कारण हैं। ये न होतीं तो इनकी रचनाएं इस तरह आसमान को न छूतीं। जमीन पर ही रखी रहतीं। कई रचनाएं तो आज भी आसमान में ही उड़ रही हैं। न जाने कितने बल के साथ आसमान की ओर उछाली गई हैं।
सम्मान कार्यक्रम में दिये जाने वाले भाषण भी तय होते हैं। एक युवा तैयार रखा जाता है जो सम्मानित के बारे में एक सुविचारित निबंध रटे रहता है। वो बोल देता है। इसके बाद तात्कालिक भाषण दिये जाते हैं। इसमें सम्मानित सकुचाया सा बैठा रहता है और उसके मित्र उसके बचपन और अंतरंगता के किस्से सुनाते हैं। लगभग हर भाषणकर्ता अपने व्यक्तिगत संस्मरण सुनाता है। इसका फायदा यह होता है कि उसे सम्मानित की रचना और रचना प्रक्रिया पर कुछ नहीं बोलना पड़ता। एक तो रचनाएं इस लायक नहीं होतीं और दूसरे बोलने वाले ने पढ़ी भी नहीं होतीं। मुख्य अतिथि को बहुत गंभीर भाषण देना होता है। इसीलिए वो बहुत धीरे धीरे बोलना शुरू करता है। उसे गरिमामय होने का अभिनय करना है। उसे अपनी रचनाएं भी सुनाना हैं। वो सम्मानित की रचनाएं भी पढ़कर आया है या मंच पर ही पढ़ ली हैं। उनका उल्लेख करना है। उसे अपनी वरिष्ठता भी स्थापित करना होती है। और ये भी देखना होता है कि आगामी सम्मान कार्यक्रमों में भी उसे ही मुख्य अतिथि बनाया जाए। मुख्य अतिथि बताता है कि सोेहन बचपन से ही प्रतिभाशाली था। वो जब पंाचवीं कक्षा में था तभी अपनी कविता लेकर मेरे पास आ गया इत्यादि। यानी सोेहन आज जो कुछ है वो मेरे ही मार्गदर्शन के कारण है। आज भी मेरा स्वास्थय ठीक नहीं था। कुछ मन उचाट सा था। मगर सोेहन के सम्मान का दबाव था। मैथिली शरण गुप्त या माखनलाल चतुर्वैदी या किसी और महान साहित्यकार की कोई रचना या जीवन की कोई घटना सुनाई जाती है जिससे मुख्य अतिथि की विद्वत्ता प्रमाणित होती है। ये घटना सच्ची हो या रचना सचमुच उक्त महाकवि की हो ऐसा जरूरी नहीं है। फिर अपनी एक दो रचनाएं। फिर सोेहन की एक रचना जिससे उसके विराट दार्शनिक चिंतन के बारे में संकेत मिलता है। मुख्य अतिथि अंतिम रूप से तभी विद्वान माना जाता है जब वो श्रोताओं को बताता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने सोहन के सम्मान के संदर्भ में ही मानो ये चौपाई लिखी है। सुनिये तुलसीदास जी कहते हैं। इत्यादि। इस मौके पर यदि संस्कृत के दो तीन न समझ में आने वाले श्लोक सुना दिये जाते हैं तब तो समा ही बंध जाता है।
अब मुख्य कार्यक्रम शुरू होता है। सम्मानित खड़ा है। सभी अतिथि खड़े हैं। अपने पैसे से बनवाया गया विशाल सम्मानपत्र सम्मानित के हाथ मंे है। सभी सामने देख रहे हैं। इतिहास रचा जा रहा है। रचनाकार वह फोटोग्राफर है जो इस क्षण को कैमरे में कैद कर रहा है। फिर माल्यार्पण। एक के बाद एक। मित्रों द्वारा। फिर परिवार जनों द्वारा। फिर उपस्थितों द्वारा। फिर मालाआंे का दूसरा फेरा शुरू हो जाता है। सम्मानित का गला भर जाता है। मालाओं से। वो उतारकर रखता है कि फिर सम्मान का क्रम चालू हो जाता है। जब माला पहनाने वाले थक जाते हैं या हॉल के बाहर चले जाते हैं तभी संयोजक बचे हुए ? सम्मानार्थियों से क्षमा मांगते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाकर स्वल्पाहार की तरफ ले जाता है। सम्मानित का जीवन सफल हो गया। वो संकल्प लेता है कि हो सका तो साल दो साल बाद कोई बहाना लेकर फिर सम्मानित होउंगा। ....................................................सुखनवर

Wednesday, May 4, 2011

भ्रष्टाचार केवल पैसे का नहीं होता

दरअसल ये एक मुगालता है कि भ्रष्टाचार अमीरों या पैसे वालों का चांेचला है। मैं कण कण में व्याप्त हूं। मैं समस्त चराचर जगत को चलाता हूं। मैं संज्ञा भी हूं। सर्वनाम भी हंू। क्र्रिया भी हूं और विशेषण भी हूं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मैं पूरी व्याकरण हूं। समाज मेरे बिना मूक बधिर है। मैं हर गरीब अमीर के साथ हूं। मैं सर्वहारा हूं। अमीर हो या गरीब जब जिसे जहां मौका मिलता है मुझे कर लेता है। जो नहीं कर पाता वो मेरा आलोचक हो जाता है। मैं उससे नहीं डरता क्योंकि मुझे मालूम है वो मेरा विरोधी इसीलिए है कि वो मुझे कर नहीं पाया।
मुझसे अपेक्षा की जाती है कि मैं न होऊं, मगर मैं क्यों न होऊं। मेरे होने में ही समाज की सार्थकता है। जहां जो कुछ भी हो रहा है वो मेरे ही कारण हो रहा है। मैं जगत का स्वामी हूं। मेरे बिना पत्ता भी नहीं खड़कता। मुझे नहीं मालूम की वो पत्ता कहां रखा रहता है जिसके खड़कने का नोटिस लिया जाता है। पर फिर भी कहावत है तो वो सही है। दो परिवारों में शादी की बात चलती है। दोनों ही पवित्र हैं। मगर जब सब तय होता है तो दरअसल लड़की लड़के की बिक्र्री होती है। बाजार भाव के अनुसार। और इसे कहा जाता है हैसियत के अनुसार। हैसियत वो बाजार भाव है जिसके आधार पर लड़की वाला अपनी लड़की के लिए लड़का खरीदने को तैयार हो जाता है। यहां भी मैं हूं। मुझे करने वाले तक नहीं मानते कि शादी ब्याह में मैं हूं पर मैं हूं। मेरी मजबूत उपस्थिति के बिना ब्याह कैसे होगा। दहेज नकदी लेन देन द्वार चार जयमाला सब जगह मैं हूं। आप देखिये तो सही।
चुनावों के समय सबसे ज्यादा चर्चा मेरी ही होती है। सब कोई मुझे मिटा डालना चाहते हैं। चुनाव जीतने के लिये करोड़ों रूपये चाहिये। कोई मेहनत की कमाई से करोड़ों रूपये कमा नहीं सकता और मेहनत की कमाई को चुनावों में गवां नहीं सकता। मैं ही इन सभी उम्मीदवारों के काम आता हूं। मेरे द्वारा कमाई गई दौलत लुटाई जाती है। पर मैं घाटे मंे नहीं रहता। चुनाव जीतते ही जीतने वाला मेरी सेवा में लग जाता है। अगले चुनाव तक उसे चुनाव जीतने के लिए लगाया हुआ पैसा वापस लाना होता है वरन् अगले चुनाव के लिए लगाया जाने वाला पैसा भी उगाहना है। इसीलिये मेरा उपयोग द्विगुणित हो जाता है। मैं दूनी रफतार से काम करता हंू। जो मेरे सबसे बड़े विरोधी हैं वो मीडिया वाले पहले विज्ञापनों आदि के माध्यम से चुनावों में कमाई कर लेते थे। अब चुनाव आयोग के नियमों की मजबूरी में कुछ नए रास्ते निकाले गये हैं। मीडिया का काम होमियोपैथी के समान हो गया है। जैसे होमियोपैथी की दवाई खाने से फायदा न हो नुकसान नहीं होता उसी प्रकार मीडिया को नगद पैसे दे दो तो ये चुप हो जाते हैं नुकसान नहीं करते। यदि दवाई से फायदा लेना हो तो उसका रेट और ज्यादा है। ये बात अलग है कि इस सबके बाद सब मेरी बुराई करने से नहीं चूकते। मैं हूं न।
कई लोगों की मजबूरी है। वो मुझे करना नहीं चाहते। मगर सरकार के नियम ऐसे हैं शिष्टाचार ऐसा है लोकाचार ऐसा है कि मैं हो जाता हूं। कितने ही विभाग ऐसे हैं जहां के अफसर परेशान रहते हैं। कुछ न कहो, कुछ न करो फिर भी देखो कि आज सफाई की और कल फिर करोड़ रूपये घर में पड़े हैं। क्या करें। कुछ समझ में नहीं आता। कुछ बंगले बनवा लिये कुछ फार्म हाउस खरीद लिये मगर ये साला पैसा है कि खत्म ही नहीं होता। कुछ पैसा दीवारों में चुनवा दिया फिर भी पैसा खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। चलो तिरूपति चले गये। दो चार किलो सोना बिना नाम के चढ़ा दिया। भगवान भी खुश हो गये। परलोक सुधर गया। मगर फिर पैसा ही कि आए जा रहा है। मना करो तो और ज्यादा आने लगता है। देेने वाले को लगता है कि साहब को कम पड़ रहा है। वो और पंहुचाने लगता है। देने वाला और लेने वाला दोनों आध्यात्मिक हैं। न वो देना चाहता है न लेने वाला लेना चाहता है मगर मजबूरी दोनों की है न वो देने से पीछे हट रहा है और न लेने वाला लेने से। विनम्रता और ईमानदारी भी कोई चीज होती है भाईसाब। जो कमिटमेंट है वो तो पूरा करना ही है। दस परसेंट की बात हो गई याने हो गई। वो तो साहब पूजापाठ वाले आदमी हैं भगवान को मानते हैं इसीलिए कम रेट लग गए वरना आजकल तो ये साले बीस और पच्चीस परसेंट के लिये मुंह फाड़ते रहते हैं।
हमारे समाज में मेहनत करना नीच काम माना जाता है। बिना मेहनत के यदि दोनों वक्त का खाना भी मिल जाए कोई कमाई भी न हो तो आदमी बहुत खुश होता है। बिना मेहनत के चोरी बदमाशी से पैसा कमा लो तो समाज में पूछ परख होगी। सारी सुख सुविधाएं होंगी। अपने पैसे से आप चाहे जिस मेहनत करने वाले को खरीद सकते हो। ये पवित्र भावना समस्त धरतीपुत्रों में घर कर गई है। जब तक ये भावना रहेगी मुझे कोई कैसे खत्म कर सकता है। लोगों को जब यह मालूम ही नहीं कि मैं कौन हूं और कहां कहां व्याप्त हूं तब तक मुझे कैसे खत्म किया जा सकता है। आज कुछ नौजवान लाखों लाख वेतन पा रहे हैं वो सुबह से रात तक काम करते हैं। उनका कोई जीवन नहीं है। वो पूरी तरह अपनी नौकरी को समर्पित हैं। वो मेरे खिलाफ हैं पर उन्हें नहीं मालूम कि मेहनत करने वालों ने अपना खून सड़कों पर बहाकर काम के घंटे तय करवाये थे। आठ घंटे काम। बाकी समय हमारा। आखिर मैं यहां भी तो हूं।
सरकार के एक विभाग ने एक विचार पत्र तैयार किया है कि क्यों न मुझे कानूनी रूप दे दिया जाए। बहुत अच्छी बात है। जिस दिन आप उसे कानूनी रूप दे देंगे वो मेहनत की कमाई हो जाएगी। उसके उपर की हराम की कमाई फिर चालू हो जाएगी क्योंकि मुझे वो नष्ट नहीं कर सकता जो खुद भ्रष्ट हो। और भ्रष्टाचार केवल पैसे का नहीं होता। ये एक मानसिकता है। ,,,,,,,सुखनवर

सनसनी के थोक व्यापारी

सनसनी के थोक व्यापारी
कलमाडी जेल पंहुच गये हैं। कलमाडी खेल से जुड़े हैं। तो उनमें जेल जाते हुए भी खिलाड़ी भाव है। एकदम उसी तरह की चाल है जो पहलवान की अखाड़े जाते समय होती है। हाथ में एक ब्रीफकेस है। जब कोई महत्वपूर्ण आदमी जेल जाता है तो सिपाही सब इंस्पेक्टर आदि की बन आती है। वो वी आई पी को यूं पकड़ते हैं जैसे यदि ये न पकड़ेंगे तो वो भाग खड़ा होगा। कोई हाथ पकड़े है तो कोई कंधा तो कोई गर्दन। खैर कलमाडी के साथ फिर भी काफी सज्जनता का बर्ताव हुआ। जब से खेल की तैयारी शुरू हुई थी तब से सारे चैनल वाले खेल में भ्रष्टाचार पर अलख जगाए हुए थे। फिर खेल हो गए तो खेल की तारीफ करना पड़ी। जब खेल खत्म हो गए तो फिर वापस राग कलमाडी गाया जाने लगा। उसके बावजूद कलमाडी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। मीडिया काफी निराश था। मीडिया को आदत पड़ चुकी है। जिसे वो चोर कह दे उसे सजा होना ही चाहिए। इसी साध्य का दूसरा चरण है कि जो सरकार में है या जो किसी काम की जिम्मेदारी सम्हाल रहा है उसे चोर कहा जाए और दर्शक को समझाया जाए कि देखो ये सब चोर हैं बस हम भर साहूकार हैं। सरकार को यह प्रयोग करके देख लेना चाहिए कि एक एक दिन के लिए इन्हें किसी काम की जिम्मेदारी सौंप दी जाए और कहा जाए कि आज शाम को तुमसे हम लोग सीखेंगे कि काम कैसे करना चाहिए। ये चैनल वाले हर काम के विशेषज्ञ हैं। तब पता चल पायेगा कि ये 20 25 साल के छोकरे कितने पानी में हैं। इनकी मजबूरी ये है कि इन्हें सनसनी चाहिए। इन्हें पूरे समय हत्या, बलात्कार, घूस, भ्रष्टाचार, स्टिंग आपरेशन जैसी चीजों का वियाग्रा चाहिए। इसके बिना इनका चैनल नकारा हो जाएगा। इसीलिए कोई बहुत सीधी बात कहता है तो ये उसे उलट पलट कर तिरछी बना देते हैं। जब कोई इनके मूर्खतापूर्ण प्रश्न पर इन्हें डपट देता है तो ये चीखते हैं कि हमारे सवालों से ये बौखला गये। शीला दीक्षित दो बार चुनाव जीत चुकी हैं। दिल्ली बी जे पी का गढ़ रहा है। पाकिस्तान से आए हिन्दू व्यापारियों का गढ़। पर शीला दीक्षित यहां लगातार सरकार चला रही हैं। इसीलिए चैनलों की आंख की किरकिरी हैं। इनके हर बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है। अभी खेलों के मामले में भी इन चैनलों का अभियान यही है कि शीला दीक्षित कहीं तो फंस जाएं। एक महिला दिल्ली जैसी राजधानी में सफलतापूर्वक सरकार चला रही है तो उसका साथ देने के बजाए उसी के खिलाफ अभियान चलाए जा रहे हैं।
दरअसल शिकायत इस बात की है कि जनता को समाचार मिलने चाहिए। उसका विश्लेषण जनता स्वयं करेगी। यदि आपको यह लगता है कि आपको ही विश्लेषण ही करना है तो उसके लिए अलग से प्रोग्राम बनाएं मगर समाचार तो बिना लागलपेट के दिखाएं। मीडिया जनशिक्षण का माध्यम है। जनता को मीडिया के माध्यम से सचाई पता चलना चाहिए। मगर................
तो एंकर और एंकरनियां बहुत ही उत्तेजित हैं। सफेद बाल वाले आशुतोष जी तो कुर्सी से उछल उछल पड़ रहे हैं। कलमाडी को हमने गिरफ्तार करवाया। हम न होते तो अंदर न हो पाते। दूसरे चैनल वाले विद्वान एंकर तो एक छड़ी लेकर केक काटकाटकर समझाने चले थे कि अठारह हजार करोड़ रूपये कैसे खर्च हुए पर कुल दो हजार करोड़ रूपये का हिसाब दे पाये। बाकी बता भी नहीं पाये कि कहां खर्च हुआ। कोई ये समझाने को खाली नहीं है कि काम होगा तो खर्च होगा। बड़ा काम होगा तो बड़ा खर्च होगा। कोई काम होगा तो उसका ठेका होगा। कोई ठेका लेगा और कोई न कोई किसी न किसी को ठेका देगा। यही प्रक्रिया है चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो। मगर एंकरों को इससे क्या। यदि इतने साधु तरीके से समझाने लगेंगे तो इनका चैनल कौन देखेगा। इसीलिए सबको चोर कहो। एंकरों की शिकायत ये थी कि हमारे कहने के बावजूद कलमाडी को इतने दिन बाद क्यों गिरफ्तार किया गया। जब बैलगाड़ी चलती है तो बैलगाड़ी वाला अपना कुत्ता भी साथ रख लेता है। ये कुत्ता बैलगाड़ी के नीचे नीचे चलता है। बीच बीच में भांेक लेता है। कुछ देर तक चलने के बाद उसे ये गुमान हो जाता है कि बैलगाड़ी वही खींच रहा है। बैल साले हरामखोर हैं। कोई काम नहीं करते। मैं अकेला बिचारा भोंकता भी हूं और गाड़ी भी खींचता हूं।
एंकरों को एक राग और है कि वो देश की आवाज हैं। जब दिल्ली में लाखांे मेहनतकश मार्च करते हैं तो ये चैनलों के लिए कोई खबर नहीं होती। मगर राखी सावंत इनके लिए देश हो जाती है। उस पर घंटो खर्च हो जाते हैं। सैकड़ों किलोमीटर दूर किसी खेत में किसी कारखाने में कोई मेहनतकश देश के लिए कुछ गढ़ रहा है। समाचार वहां बन रहा है। बशर्ते कि आपकी आंखे और कान वहां तक पंहुचें। ..............................................................सुखनवर

अंतिम राजा

देश की कांग्रेस पार्टी में कई ऐसे महान नेता हुए हैं जो अपने पद पर अंतिम राजा साबित हुए। जब तक इन्होंने राज किया तब तक किसी को बढ़ने न दिया। देश में एक ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिन्हें पी वी नरसिंहाराव के नाम से जाना गया। इन महाशय ने न केवल अपनी देखरेख में बावरी मस्जिद गिराई बल्कि ऐसी सरकार चलाई कि इनके बाद पूरी कांग्रेस पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ गया। या तो हम रहेंगे या फिर कोई नहीं रहेगा। ये इतना प्रभावकारी सिद्धांत साबित हुआ कि कई लोग जो प्रधानमंत्री बन सकते थे उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। अंतिम राजा ने पूरी व्यवस्था कर दी थी कि उनकी पार्टी चुनाव हार जाए। इसीलिए जो विपक्षी ये समझते हैं कि वो चुनाव जीते हैं वो गलत हैं दरअसल वो चुनाव नहीं जीते हैं वरन् नरसिंहाराव चुनाव हारे हैं। यही स्थिति मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की रही। ये नौ साल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पहले पांच साल के बाद जब चुनाव हुए तो सभी मान रहे थे कि कांग्र्रेस चुनाव हार जाएगी मगर जीत गई। जीतने वाले खुद आश्चर्य में पड़ गये कि हम कैसे जीत गये। हम तो अपने आपको हारा हुआ मान रहे थे। इसके बाद दिग्विजय सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनको मालूम था कि यदि पीछे मुड़ कर देखेंगे तो आगे नहीं बढ़ पायेंगे। अगले पांच साल तक मध्यप्रदेश की जनता को दिग्विजय सिंह को जिताने की सजा मिली। इसी बीच दिग्विजय सिंह को ज्ञान प्राप्त हो गया। उन को समझ में आ गया कि यदि बिना कुछ काम किये हम चुनाव जीत जाते हैं तो इसका मतलब चुनाव जीतने के लिए काम जरूरी नहीं है। काम तो होते रहते हैं असल चीज है दाम, जो यदि पास में हों तो चुनाव जीतने से लेकर मैच तक सभी कुछ जीता जा सकता है। इसीलिए भरपूर दाम कमाए गए और जैसा कि तय था इस बार दिग्विजय सिंह हारे और बढ़िया हारे। इसीलिए यदि बी जे पी को ये लगता है कि उन्होंने चुनाव जीता है तो ये उनकी गलतफहमी है। दिग्विजय सिंह राजा हैं और उनका ये राजसी अंदाज हर जगह दिखाई देता है। आज यदि मध्यप्रदेश में बी जे पी सरकार चला रही है तो दिग्विजय सिंह की उदारता के कारण। न वे चुनाव हारते न मध्यप्रदेश में दूसरी सरकार आती। कांग्रेस की हार के पीछे एक कारण ये भी था कि दिग्विजय सिंह को बिना पीपल के झाड़ के नीचे बैठे ये ज्ञान प्राप्त हो गया था कि सरकार चलाना है तो अपना भला देखो। ये जीवन सुख से जीना है और उसके लिए पैसे कमाना है। चुनाव काम करके नहीं जीते जाते गणित करके जीते जाते हैं। दिग्विजय सिंह इंजीनियर आदमी हैं। गणित में अच्छे नंबर मिलते रहे होंगे। तो उनने गणित लगा लिया कि किस जाति के कितने लोग हैं। उनके वोट कैसे प्राप्त किए जाएं। मगर अंततः वही हुआ। दिग्विजय सिंह चुनाव हार गये।इसे कहते हैं दुनिया को समझना। उन्हें मालूम था कि जनता उनसे आजिज चुकी है। इसी बीच उनने बिना मांग के ये घोषणा की कि वो आगामी दस साल तक चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्हें मालूम था कि जो दशा उन्होंने 9 साल में की है उसके कारण आगामी दो चुनाव तक तो कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकती। सो उनने भी कह दिया कि हम दस साल तक चुनाव नहीं लड़ेंगे। बाकी लोग चुनाव लड़ें और हारें। हम न लड़ेंगे और न हारेंगे।
अब यही दिग्विजय सिंह जो मध्यप्रदेश में सरकार नहीं चला पाये कांग्रेस को पूरे देश में चलाने की जिम्मेदारी निभाने पर उतारू हैं। पूरे देश में अपना दायित्व निभा रहे हैं। आजकल अन्ना हजारे की मुहिम के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। उनका काम है दिनभर में कोई एक ऐसी बात बोल देना जिससे दिनभर मामला गर्म रहे। अब लोकपाल बिल की बात कम और दिग्विजय की बात ज्यादा चल रही है। वो हर नो बॉल खेल रहे हैं। विरोधी छक्के मार रहे हैं और खुश हैं कि वो बहुत अच्छा खेल रहे हैं।उनका काम असल मुद्दे से ध्यान हटाना था जो पूरा हो गया। अन्ना हजारे के प्रेशर कुकर की हवा निकल चुकी है। मुहिम का भट्टा बैठ चुका है। हो सकता है कि ये झगड़ा इतना बढ़े कि आसां हो जाए। केवल झगड़े होते रहें और असल मुद्दा दफ्न हो जाए। अब असल मुद्दा लोकपाल बिल नहीं है असल मुद्दा है बिल बनाने वाली कमेटी में कौन रहेगा। जो भी रहेगा उसके खिलाफ आरोप लगाए जाएंगे जिससे वो न रह पाये। इस तरह जब कमेटी ही नहीं रहेगी तो बिल कहां से बनेगा और जिम्मेदारी भी अन्ना हजारे की है कि वो भ्रष्टाचार हटाना चाहते हैं पर दो पाक साफ लोग नहीं बता पा रहे। ..........................................................सुखनवर

गुस्सा मोमबत्ती और मशालें

जंतर मंतर से चला आंदोलन छूमंतर हो गया। होना ही था। जब जे पी का आंदोलन चला तब देश में टी वी नहीं था। अब टी वी है। पहले जे पी थे अब अन्ना हजारे हैं। पहले इंदिरा गांधी थीं अब मनमोहन सिंह है। पहले भी अमेरिका था अब भी अमेरिका है। पहले भी भ्रष्टाचार था अब भी भ्रष्टाचार है। जे पी ने आंदोलन शुरू नहीं किया था। सबसे पहले गुजरात में छात्रों का एक आंदोलन शुरू हुआ था नवनिर्माण सेना के नाम से जिसने उस समय के मुख्यमंत्री चिमन भाई को घेरा था। चिमन भाई भ्रष्टाचार के प्रतीक बन गये थे। उस आंदोलन से प्रेरणा लेकर बिहार में पटना में छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ। जे पी उस समय पटना में रिटायर्ड जीवन गुजार रहे थे। जे पी सन् 1942 के हीरो थे। समाजवादी विचारों के थे। बुजुर्ग थे तो लोग इज्जत करते थे और उनके पुराने रिकार्ड को याद करते थे। नेहरू के विराट व्यक्तित्व के सामने बड़े बड़े बौने हो जाते थे। जय प्रकाश जी भी उनसे पीड़ित थे। इसीलिए अपने सक्रिय दिनांे में ही रिटायर हो गये। जब पटना में छात्र आंदोलन शुरू हुआ तो कमान समाजवादी युवजनों के हाथ में थी। वो जाकर जयप्रकाश को घर से उठा लाये। जयप्रकाश जी के पास आशीर्वाद देने के अलावा कुछ था नहीं। जब आंदोलन फैलने लगा तो उसके अंदर इंदिरा गंाधी के विरोध की गुंजाइश नजर आई। इंदिरा गंाधी की राजनीति की खासियत ये थी कि जब उन पर हमला होता था तो वो वामपंथ की ओर झुकती थीं। अमेरिका को यह बात क्योंकर पसंद होती। इसीलिए उनके खिलाफ चलते आंदोलन को अमेरिका का आशीर्वाद मिलने लगा। परिणामस्वरूप कुछ ही दिनों में तत्कालीन जनसंघ और आर एस एस उसमें शामिल हो गए। समाजवादियों को कभी फासिस्टोें से परहेज नहीं रहा है। पूरी दुनिया में जब भी मौका आया तो समाजवादी दक्षिणपंथ के साथ नजर आए। हिटलर मुसोलिनी के जमाने से लेकर आज तक। आज भी शरद यादव भाजपा के साथ हैं और समाजवादी भी हैं। नितीश कुमार भाजपा के साथ सरकार चला रहे हैं और नरेन्द्र मोदी को गाली भी देते हैं। यह खोज का विषय है कि समाजवादियों या लोहियावादियों ने सत्ता में आने पर कौन सा ऐसा काम किया जिससे उनका समाजवादित्व दृष्टिगोचर हो। छात्रों के आंदोलन को आशीर्वाद देने का मौका मिलने से जे पी अति प्रसन्न भये और वो सब कुछ बोलने लगे जिससे आंदोलन को बढ़़े और इंदिरा सरकार मुसीबत में आ जाए। सन् 1971 में बंगला देश की विजय के बाद से इंदिरा जी का भी आत्मविश्वास चरम पर था इसीलिए उस समय देश में मंहगाई बेरोजगारी सभी कुछ आसमान छू रहा था और कोई सुनवाई नहीं थी। कांग्रेस के अंदर कोई चंू नहीं कर सकता था। सचाई भी नहीं बता सकता था। तत्कालीन रेलमंत्री ललितनारायण मिश्र की बिहार में हत्या हो गई। स्थितियां अराजक होती गईं। छात्रों का अंादोलन जनता का आंदोलन बन कर पूरे देश में रंग लाने लगा। इसी बीच जार्ज फर्नाडिज ने रेल हड़ताल का आव्हान किया। सरकार ने रेल हड़ताल को रोका। रेल हड़ताल तो असफल हो गई लेकिन जार्ज फर्नांडिज पूरे देश में रेलकर्मचारियांे पर इंदिरा सरकार के जुल्म की कहानियां सुना सुनाकर माहौल बनाते रहे। तीन तीन घंटे उनका भाषण चलता जिसमें जुल्म का आखांे देखा हाल बताया जाता। जनता सुनने को तैयार थी और समाजवादी अपने जोरदार भाषण के लिए ही जाने जाते हैं। कवि सम्मेलन के समान रात रात भर भाषण चलते जिसमें जनता को भावुक कर कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित किया जाता। जे पी नाम के लिए सामने थे। कमान जनसंघ और समाजवादियांे ने सम्हाल ली थी। इसी बीच जबलपुर के सांसद सेठ गोविन्ददास की मृत्यु के कारण उपचुनाव हुआ जिसमें शरद यादव को विरोध पक्ष का साझा उम्मीदवार बनाया गया। वो जीते। कहा गया कि साझा विरोध का प्रयोग सफल रहा।
जनभावनाओं को पूरी उंचाई तक भड़काया जा चुका था। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का नारा बुलंद था कि इंदिरा गांधी ने पूरी दुनिया को चौंका दिया। 26 जून 1975 की रात इमरजैंसी लगाकर पूरी अराजक स्थितियों पर रोक लगा दी। ये और बात है कि इमरजैंसी ने कुछ समय बाद जो दमघोंटू और लोकतंत्र विरोधी माहौल पैदा किया उसका परिणाम इंदिरा जी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा।
अन्ना हजारे का पूरा अभियान मीडिया और एन जी ओ संचालित था। भ्रष्टाचार से जनता त्राहि त्राहि कर रही है। पर जनता और सत्ता के बीच में इतनी दूरी बढ़ चुकी है कि जनता केवल त्राहि त्राहि ही कर सकती है। आज जिस सनसनाते आंदोलन की जरूरत है वो कैसे पैदा हो सकता है। जो पापी न हो वो पहला पत्थर मारे। इसीलिए अन्ना हजारे को आगे किया गया। पर उनके पीछे कौन थे ? भाजपा ने काफी झिझक के साथ धीरे धीरे कदम बढ़ाये पर आर एस एस को मंच पर पूरी छूट थी इसीलिए वो निश्ंिचत थे। जो मीडिया बिना पैसा खाए कोई समाचार नहीं दिखाता वो क्रांतिकारी बना अन्ना हजारे के साथ खड़ा था। जब दिल्ली में लाखों मजदूर अपनी मांगों के लिए उतरते हैं तब इस मीडिया के पास दिखाने के लिए एक सेकेण्ड का फुटेज नहीं रहता वही मीडिया कैमरे को सीमित कर कर के कुछ लोगों को लाखों की भीड़ बताता रहा। देश में कमरों और सड़कों पर बैठकर कुछ ईमानदार लोगों ने धरना दिया। मगर इन सबके उपर बैठे अमेरिका को मनमोहन सिंह की सरकार से कोई शिकायत नहीं है। देश के पूंजीपतियों और करोड़पतियों को कोई शिकायत नहीं है। इसीलिए ये आंदोलन फुस्स होना था। फुस्सा हुआ। आजकल जहां लोग गुस्से के मारे मोमबत्ती लेकर चल पड़ें तो समझ लेना चाहिए कि गुस्से से मशालें जलाने वाले अब नहीं हैं। मोमबत्ती जलाओ और रोओ और अंग्रेजी बोलो। ये वो भारत तो नहीं जिसने अंग्रेजों को भगाया था। .........................................सुखनवर

चुनाव आयोग का ब्रांड एम्बैसेडर

आजकल हर किसी को ब्रांड एम्बेसेडर की जरूरत पड़ रही है। साबुन तेल शैम्पू वालों का समझ मंे आता है कि उनका कोई ब्रांड है इसीलिए उनको एक नामी गिरामी चेहरा चाहिए जिसे वे बेच सकें और उसके साथ अपना साबुन तेल शैम्पू आदि बेच सकें। धंधे का मामला है। आदमी बेचने और मुनाफा कमाने के लिए कुछ भी कर सकता है। एक मसाले की कंपनी ने अपने दादा जी को ही अपना सामान बेचने के लिए मॉडल बना लिया है। कुछ दिन तक कोफ्त होती थी अब वही स्थापित हो गए हैं। पर क्या चुनाव आयोग कोई गरम मसाला या साबुन या टूथपेस्ट है ? चुनाव आयोग को क्या बेचना है कि वो बंगाल में सौरव गांगुली को ब्रांड एम्बैसेडर बना बैठा है। अब क्या सौरव गांगुली बंगाल में गली गली घूम घूम कर प्रचार करेंगे कि आइये चुनाव आयोग द्वारा आयोजित चुनावों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लीजिए। नक्कालों से सावधान। केवल चुनाव आयोग द्वारा आयोजित चुनाव ही असली हैं। हमारे द्वारा अधिकृत चुनाव केन्द्रों में जाकर ही मत डालें। अपने मत की कीमत समझें। बहकावे में आकर कहीं और वोट न डाल दें। अपना पैसा और वक्त बर्बाद न करें। जब यह बात सौरव गांगुली कहेंगे तो लोग मानने के लिए विवश हो जायेंगे। अभी अभी क्र्रिकेट की दुनिया में बेइज्जत होने के कारण काफी खाली हैं। जब उन्हें क्र्रिकेट से हकाला जा रहा था तो वामपंथियों ने ऐसा माहौल बनाया कि सौरव को बंगाली होने के कारण हकाला गया है। इसीलिए क्रिकेट से सौरव का हकाला जाना बंगालियों के बीच मुद्दा बन गया। अभी सौरव को चुनाव आयोग ने ब्रांड एम्बैसेडर बनाया तो तृणमूल कांग्रेस और ममता बैनर्जी ने आपत्ति दर्ज कर दी। ये तो वामपंथियों से मिला हुआ है। इसे क्यों बनाया गया ? इससे वामपंथियों को फायदा होगा। उधर सौरव गांगुली नई नौकरी पाकर इतने गदगद थे कि तुरंत सफाई दे दी कि मेरा किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है। मैं किसी का प्रचार नहीं करूंगा।
अभी कुछ दिन पहले अमिताभ बच्चन गुजरात के ब्रांड एम्बैसेडर बन गये। अभिताभ जी की एक खासियत है कि जहां भी उन्हें पैसा मिलता है वहां वो कुछ नहीं देखते। पैसे के बदले वो हरकुछ के लिए तैयार हो सकते हैं। पहले जब गोविन्दा ने नवरत्न तेल का विज्ञापन किया तो उसकी बहुत आलोचना हुई। फिर जब इसे अमिताभ बच्चन करने लगे तो सब चुप हो गये। अमिताभ बच्चन ने भी वही कहा था जो सौरव ने कहा है कि मेरी इस नियुक्ति का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। गुजरात मेरे देश का एक प्रदेश है उसकी भलाई करना देश की भलाई करना है। अमिताभ को मोदी जी और उनके दंगा आयोजन की क्षमता से कोई बुराई नहीं है। आजकल तो हर धंधे वाले को मोदी जी आदर्श लग रहे हैं। धंधे करने की निर्बाध गारंटी दे रहे हैं। कुछ भी करो। हम हर रोकने वाले के हाथ पैर तोड़ डालेंगे। हमारे प्रदेश में कोई नियम कानून नहीं चलेगा। हम जो चाहेंगे वो होगा। यही तो हिटलर भी कहता था। अमिताभ जी चाहे जब बाल ठाकरे से भी मिल आते हैं। ये सब गैर राजनैतिक है। अभी भी मुलायम सिंह और अमर सिंह सबको एक साथ साध रहे हैं। ये मुलायम सिंह बहुत अद्भुत राजनीतिज्ञ हैं। ये लाल टोपी लगाते हैं और अपने को लोहिया जी का चेला कहते हैं। इस जीवन में पूरे राजनैतिक जीवन में इन्होंने कौन सा ऐसा काम किया है जिससे इन्हें लोहिया जी का चेला कहा जा सके ? इनकी पार्टी का कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है। ये इसीलिए हैं कि क्योंकि कोई दूसरा नहीं है। इनके दरवाजे हर किसी के लिए खुले हैं।
आजकल जब तब किसी के द्वारा किसी को ब्रांड एम्बैसेडर बनाने के समाचार आते रहते हैं। चड्डी बनियान तेल साबुन टूथपेस्ट कपड़े लत्ते जूते हर चीज को बेचने के लिए ब्रांड एम्बैसेडर की जरूरत आ पड़ी है। जिन लोगों ने फिल्म आदि में नाम कमा लिया है उनका नाम और चेहरा बिकाउ है। उसे खरीदकर तत्काल सामान बेचने के काम पर लगा दिया जाता है। व्यापारी को अपना सामान बेचने के लिये सबकुछ करना पड़ता है। प्रसिद्धि पाये लोग अपनी प्रसिद्धि को तत्काल भुनाने के लिए बिकने के लिये तत्पर रहते हैं। इससे पहले कि दाम घट जाएं जल्दी जल्दी बिक जाओ। पर चुनाव आयोग किस व्यापारी का सामान है जिसे जनता के बीच बेचना है। ये क्या बेचेंगे? विश्वसनीयता ? ....................................................सुखनवर

Tuesday, March 29, 2011

ये विकीलीक्स क्या है

प्रश्न ये है कि ये विकीलीक्स क्या है ? उत्तर ये है कि भारतवर्ष के लिये ये सबसे बड़ा टाइमपास है। जब दूसरे पर गाज गिरे तो विकीलीक्स की लीक सही है जब अपने पर गिरे तब गलत है। विकीलीक्स को लीक करने वाला बहुत पंहुचा हुआ है। वो एक बार में लीक नहीं करता। एक बार लीक करता है फिर कुछ दिन मजे लेता है। फिर दूसरी लीक कर देता है। फिर मजे लेता है और फिर तीसरी लीक कर देता है। पहले उसने प्रधानमंत्री को फंसाया और संसद में हंगामा करवाया। प्रधानमंत्री और कांग्रेस कहती रही कि ये झूठ है विकीलीक्स की लीक्स भरोसे लायक नहीं हैं। इसके बाद विकीलीक्स ने भाजपा को घेर दिया। अरूण जेटली को फंसा दिया और आडवाणी को फंसवा दिया कि ये कह रहे थे कि आप हमारे अमेरिकाविरोधी बयानों को गंभीरता से न लें हम लोग भारतीय लोग समय समय पर राजनैतिक जरूरत के अनुसार आपको भला बुरा कहते हैं मगर दिल दिमाग से आपके साथ हैं। हम आपको ही अपना माई बाप मानते हैं। हम तो दिखावे के लिए परमाणु संधि का विरोध कर रहे हैं। हम सरकार में होते तो आपको बिलकुल तकलीफ न होती। हम तो बिना कागज देखे दस्तखत कर देते।
दो चक्कर पूरे हो जाने के बाद विकी साहब ने तीसरी लीक कर दी। चिदंबर को फंसवा दिया। कह दिया कि ये हमारे राजदूस से कह रहे थे कि अगर भारत में पश्चिम और दक्षिण हिस्से भर होते तो अच्छा रहता खूब प्रगति होती। बाकी हिस्से देश की सारी प्रगति खा जाते हैं। बस बाकी हिस्सों वाले नेताओं की बन आई। तीसरा मोर्चा खुल गया। इस बार मुलायम सिंह जी यज्ञ की वेदी पर बैठे और अपना आहुति दी। स्वाहा स्वाहा किया और चैन सेे सोये। संसद नहीं चलने दी। कहा चिदंबरम माफी मंागें। अब तो लोकसभा अध्यक्ष को भी समझ में आ गया है कि संसद कैसे चलाना है। उनने मनमोहनसिंह जी से सीख लिया। पहले मामले को टालो। फिर कमेटी या आयोग या समिति के हवाले करने के नाम पर बरकाओ फिर भी बात न बने तो मामले को मचा दो। सो मुलायम सिंह ने संसद नहीं चलने दी और भाजपा ने भी कहा कि हम भी आज बहिष्कार करेंगे और आज के दिन का भत्ता पक्का करेंगे और विश्राम करेंगे। चिदंबर को जी भर कोसा गया। वो थे नहीं। कांग्रेस के मंत्री ने कहा कि विकी लीक्स का भरोसा न किया जाए। कोई आदमी अपने घर चिठ्ठी में क्या लिखता है इससे आपको क्या मतलब ? वो अपनी नौकरी कर रहा है। वो अपने मालिक को खुश करना चाहता है। करे। हमारे चिंदंबर साहब तो संसद में थे नहीं । उनसे बाहर पूछा गया तो हंसे। उनने कहा कि मैं केबिल की निंदा करता हूं। वो हंसे इसलिए कि यदि विरोधी बेवकूफ हो तो राजकाज आसान हो जाता है। उनका राजकाज आसान हो गया। अब संसद में उन्हें कठिन प्रश्नों का उत्तर नहीं देना है। अब उन्हें कोई खतरा नहीं। वो आराम से बैटिंग करेंगे और रन बनायेंगे। अब मंहगाई, बजट की बदमाशियों पर कोई चर्चा नहीं होगी। अब देश में अराजकता और गंुडाराज पर कोई चर्चा नहीं होगी।
मनमोहन सिंह जी की सरकार गिरने वाली थी। उनने रातों रात बहुमत जुटा लिया। बहुत सारे सांसद अपनी पार्टी से पूछ कर या बिना पूछे सरकार के लिए वोट देने राजी हो गए। दरअसल उनका ह्दय परिवर्तन हो गया। उन्हें लगा कि मनमोहन सिंह जी मुसीबत में हैं याने राष्ट्र मुसीबत में है। तो राष्ट्र बचाने के लिए उनने पाला बदल लिया। सब जानते हैं कि इनका हदय परिवर्तन फ्री में तो होता नहीं। जैेसे कोई फ्री में चुनाव जीतता नहीं। इतने समय बाद ये उजागर बात विकीलीक्स ने लीक की। जनता को कोई आश्चर्य नहीं हुआ। आश्चर्य हुआ तो भाजपा को। इसके सांसद उस दिन नोटों के बंडल संसद के अंदर उछाल रहे थे। ये बताने के लिये कि देखो ये पैसे हमें खरीदने को दिये गये पर हम बिके नहीं। कोई बात नहीं। जबकि ये ही सांसद पैसे लेकर संसद में प्रश्न पूछने के आरोप में दंडित हुए।
संसद में एक अद्भुत खिलाड़ी भावना का संचार हो गया है। अब संसद में जो होना चाहिए उसके अलावा सब हो रहा है। रोज संसद ठप्प होती है। रोज हंगामा होता है। रोज आरोप प्रत्यारोप लगते हैं। कोई जीतता नहीं कोई हारता नहीं। दूसरे दिन फिर अखाड़े में लोग जमा हो जाते हैं। वो दिन कब आएगा जब संसद में गंभीर बातचीत होगी। बिलों पर बहस होगी। बहस का परिणाम निकलेगा। पूरी राजनीति दिनभर की मेहनत के बाद शाम को टी वी में प्रमुखता से चर्चित होने पर केन्द्रित हो गई है।
............................सुखनवर

देश चल रहा है।

मैं पिछले कई दिनांे से काफी परेशान हूं। मैं राष्ट्र निर्माण में अपना योगदान देना चाहता हूं। मैं अपने देश का श्रेष्ठ नागरिक बनना चाहता हूं। इसके लिए मैं कुछ भी करने को तैयार हूं। यहां तक की मैं लगातार टी वी देखने तक को राजी हूं। राजी हूं क्या बल्कि देख ही रहा हूं। इस देश का आम नागरिक टी वी में जो कुछ दिखाया जा रहा है और अखबारों मंे जो कुछ छप रहा है उसी को देखने और पढ़ने के लिए मजबूर है। युवा पीढ़ी जरूर इन्टरनेट देखती है। और उसमंे जो ज्ञान का भंडार संचित है बल्कि सूचनाओं का भंडार संचित है उसका प्रस्फुटन उसके दिमाग और व्यवहार में दिखाई दे रहा है। मगर मैं युवा पीढ़ी से क्यों जलूं ? जब मैं युवा था तब मैंने अपने समय में क्या जुलुम नहीं ढ़ाए ? मैं तो आज की बात कर रहा हूं मैं टी वी देख देख कर राष्ट निर्माण के लिए प्रेरित हो रहा हूं। इसके तहत मुझे सुबह उठकर योग करना चाहिए। ये बात तो मेरी समझ में आ गई है। सुबह घूमने भी जाना चाहिए। जब मैं सुबह घूमने जाता हूं तो देखता हूं कि इक्का दुक्का लोग घूम रहे हैं। और ये भी इसीलिए घूम रहे हैं क्योंकि इन्हें डाक्टर ने कहा है। हमारे देश में यदि कोेई सुबह घूमता मिले तो समझ लीजिए कि ये ब्लड प्रेशर या डायबिटीस का ताजा मरीज है और इसे कल परसों ही डाक्टर ने घूमने को कहा है। ये ताजा मरीज जरूर एक नया खरीदा टेकिंग सूट धारण किए होगा। ये आदमी एकाध महीने से ज्यादा मार्निंग वॉक न करेगा। व्यायाम और मेहनत हमारे खून में ही नहीं है।
तो हमारे खून में क्या है ?
सुस्ती, अपने काम से काम। काम भी यदि हो तो वरना बैठे रहो। पहले घर के बाहर बैठो। फिर चौराहे पर जाकर बैठो। फिर घर आकर टी वी के सामने बैठ जाओ। आजादी मिलने के पहले कुछ लोगों के पास अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन चलाने का काम था। ये लोग व्यस्त रहते थे। अंग्र्रेज चले गए तो ये लोग भी बेरोजगार हो गए। इन लोगों को जेल जाने की आदत पड़ गई थी। ये आदत गांधी जी ने डलवायी थी। आजादी के बाद काफी दिनों तक ये अपनी ही सरकार के खिलाफ आंदोलन करते रहे और जेल जाते रहे। दूसरी आदत उन्होंने बहुत सोच समझ कर डलवायी थी। भूखे रहने की। उपवास करने की। उन्हें मालूम था कि कोई आदमी यदि कोई काम न करेगा तो उसके भूखे रहने के दिन आएंगे। उसके लिए भूखे रहने को एक आदर्श नाम दे दो। उपवास। एक और शब्द उन्होंने ईजाद किया था। वो भी इसी मजबूरी की उपज थी। वो है सत्याग्रह। कहीं भी जाकर बैठ जाओ। उठो नहीं कहो हम सत्याग्रह कर रहे हैं। आज भी हमारे यहां करोड़ों निखट्टू बिना काम किए अपने घर में सत्याग्रह करते रहते हैं। आखिरकार उन्हें बिना कुछ किए भोजन मिल ही जाता है। घर की महिला चाहे मां हो या पत्नी इन निखट्टुओं के लिए खाने का इंतजाम तो कर ही देती है।
सुबह आप ऑफिस चालू होने के पहले पंहुच जाएं और ऑफिस में काम करने वालों को आते हुए देखें। ऑफिस कर्मी बहुत धीरे से ऑफिस में प्रवेश करेंगे और इतने हारे थके दिखेंगे कि लगता है दसेक मील पैदल चलकर आ रहे हैं। इनकी दाढ़ी बढ़ी होगी जो ये साबित करेगी कि इन्हें समय नहीं मिला दाढ़ी बनाने का। कपड़े गंदे होेंगे क्योंकि इन्हें धोने का समय नहीं मिला। पर एक बात इनके चेहरे को देखते ही पता चलेगी कि इन्होंने नहाया है। इनके माथे पर भांति भांति के तिलक लगे रहेंगे। पूजा पाठ जरूर करेंगे। ऑफिस में पंहुचते ही ये लोग धम्म से कुर्सी पर गिर जाएंगे। अब काफी देर तक इनसे कोई उम्मीद नहीं की जाए। ये आफिस आने में थक चुके हैं और वैसे भी इनके जीवन का आज के दिन का सबसे महत्वपूर्ण काम हो चुका है। आफिस में ये हाजिर हो चुके हैं। जब ऐसे हारे थके लोगों का एक समूह बन जाएगा तो ये अपने शरीर को उठायेंगे और चाय पीने चले जाएंगे। धीरे धीरे जाएंगे और धीरे धीरे आएंगे। उनके लौटने के बाद ये लोग कुछ लोगों को ये कहकर टरकाएंगे कि बहुत काम है कल आना या साहब नहीं आए हैं। इस तरह टरकाने पर आदमी पैसे दे देता है। इसी बीच खाना खाने का समय हो जाएगा। ये खाना खायेंगे या घर चले जाएंगे या सो जाएंगे। शाम होने लगी है। घर चले जाएंगे। ये एक आम ऑफिसकर्मी की दिनचर्या है।
जो लोग ऑफिस नहीं जाते उनकी दिनचर्या भी कोई दिनचर्या है। वो धंधा करते हैं। और इन्हीं आफिसों में काम कराने के लिए चक्कर लगाते हैं। देश चल रहा है।

Sunday, March 13, 2011

इस देश को कौन चला रहा है

पूरा देश विश्वकप में डूब उतरा रहा है। हर समस्या का हल देश का क्र्रिकेट है। इसीलिए इस देश में पूरे समय क्र्रिकेट होता है। ठंड बरसात गर्मी हर मौसम क्र्रिकेट का मौसम। इसी में रहस्य छुपा है। क्र्रिकेट हर समस्या का हल है। जैसे हर आदमी थकहार कर शराब पी लेता है या कोई दूसरा नशा कर लेता है वैसे क्र्रिकेट में डूब जाना भी एक नशा है। इस नशे में देश की बड़ी से बड़ी समस्या भूली जा सकती है। ये मार्च का महीना है। 28 फरवरी को बजट पेश होता है। बजट पेश होते ही विश्व कप क्र्रिकेट शुरू हो जाता है। बजट की आलोचना एक दो दिन में विश्वकप की चर्चा में गुम हो जाती है।
क्या क्र्रिकेट इस देश के बच्चों का भविष्य नष्ट करने के लिये नहीं हैं ? मार्च में पूरे देश में बच्चों और कालेजी छात्रों की परीक्षाएं होती हैं। मार्च में विश्वकप का रखा जाना किसी अंतर्राष्टीय षडयंत्र का हिस्सा नहीं है ? यही नहीं विश्व कप समाप्त होते ही आई पी एल शुरू हो जाएगा। वो तो शुद्ध धंधा है। पैसे से पूरी दुनिया के खिलाड़ी खरीदे और फिर उनसे कहा खेलो सालों जब तक हमें मजा न आए। नहीं खेलोगे तो निकाल देंगे और पैसा नहीं देंगे। खराब खेलोगे तो निकाल देंगे और पैसा नहीं देंगे। बूढ़े हो जाओगे तो नहीं खिलाएंगे और पैसा तो खैर देंगे ही नहीं। आज से पचास साल पहले राजा हरिश्चंद्र फिल्म आई थी। उसमें एक दृश्य था एक मंडी है जहां बहुत से गुलाम खड़े है और एक आदमी उनकी बोली लगा रहा है। राजा हरिश्चंद्र भी गुलामों के बीच में खड़े हैं और उन्हंे भी एक चांडाल बोली लगाकर खरीदकर ले जाता है। हमारे आज की दुनिया के धुरंधर खिलाड़ी भी मंडी में खड़े होते हैं और बिकते हैं। न बिकने पर रोते हैं। खरीदने वाले भी कहते हैं कि हम जवान और सुंदर को खरीदेंगे बूढ़ों अधेड़ों को नहीं खरीदेंगे। एक बूढ़े ने न बिकने पर शिकायत भी कि मेरा मन इस बात से खट्टा हो गया है। अब मैं कभी बिकने नहीं जाउंगा। सब कुछ लुटा के होश में आए तो क्या किया।
क्र्रिकेट, क्र्रिकेट और क्र्रिकेट। उसी के चैनल, उसी की पत्रिकाएं और उसी के अखबार। जब भी आप कुछ पढ़ना चाहो कुछ देखना चाहो तो आपको केवल क्र्रिकेट देखना होगा। रास्ते में जाओगे तो दुकानों में झांक झांक कर क्र्रिकेट देखते लोग दिखंेगे। ऑफिस में काम करोगे तो चारों ओर कल का देखा हुआ मुंह से उगलते सहकर्मी मिलेंगे। ये कोई आज ही हो रहा है ऐसा नहीं है। क्र्रिकेट का जुनून इस देश में बहुत सोच समझ कर बनाया गया है। जब टी वी नहीं था तब रेडियो और कमेन्टी सबको उलझाए रखती थी। पर तब कम से कम आंखें खाली रहती थीं। कान और मुंह व्यस्त रहता था। अब तो क्र्रिकेट पूरे देश की रफतार रोक देता है। सारे काम बंद। बच्चों की पढ़ाई बंद।
मगर सबसे अच्छी बात ये है कि दुनिया में प्रलय आ जाए और देश में क्र्रिकेट चल रहा हो तो प्रलय का समाचार रोक दिया जाएगा। जापान में इस शताब्दी का सबसे बड़ा भूकंप आया सुनामी से न जाने कितने मारे गये लेकिन यदि आप टी वी देखें अखबार देखें तो यह त्रासदी पूरी तरह गायब है। एक एस एम एस चलाया गया कि उनके लिए प्रार्थना करो क्योंकि हम यही कर सकते हैं। और यह कह कर छुट्टी पा ली गई। पर क्र्रिकेट चल रहा है। इंडिया जीत रही है या हार रही है। बस यही जीवन है। यही जीवन मरण का प्रश्न है। इस बीच सतर्कता आयुक्त थॉमस का मामला चल रहा था। प्रधानमंत्री ने अपनी गलती मान ली। पर मानी तब जब सुप्रीम कोर्ट ने मनवायी। जब थॉमस को नियुक्त किया जा रहा था तो ये बात सच है कि सुषमा स्वराज ने उस मीटिंग में आपत्ति की थी और बहुत शालीन आपत्ति की थी। उनने कहा था कि तीन लोगों का पैनल है। जब थॉमस के नाम पर कुछ आपत्तियां हैं तो इन्हें न बनाकर दूसरे बेदाग आदमी को बनाइये। ये बात दूसरे ही दिन अखबारों में छपी थी। मगर जो भी कारण रहा हो इन्हीं प्रधानमंत्री महोदय ने थॉमस को बनवाया और फिर अड़े भी रहे कि बिलकुल ठीक किया है। उधर थॉमस भी अड़े रहे कि मैं क्यों दूं स्तीफा। नहीं दूंगा। अब सुप्रीम कोर्ट के आदेश पर थॉमस हटे। उन्हें बनाने वाले प्रधानमंत्री ने माफी मंागी। ऐसा लग रहा है जैसे मनमोहन सिंह जी से कोई व्यक्तिगत गलती हो गई हो। पर मनमेाहन सिंह जी आप जब माफी मांग रहे हैं तो आप भारत की संप्रभु सरकार की विश्वसनीयता दांव पर लगा रहे हैं। ये कैसी सरकार है जो देश के सबसे बड़े चौकीदार की नियुक्ति में जानबूझकर एक दागी को चुनती है और फिर उसे पाक साफ बताती है और फिर माफी मांग लेती है। ये कोई छोटी मोटी बात नहीं है। इससे पता चलता है कि देश कौन चला रहा है। कम से कम वो लोग तो नहीं चला रहे जो चलाते दिख रहे हैं। मगर क्र्रिकेट के हल्ले में सबकुछ डूब जाता है। इसीलिए तो क्र्रिकेट है।

...........................सुखनवर

बाबा का फुग्गा कब फूटेगा

बाबा का फुग्गा कब फूटेगा
बाबा के केश घने हैं। अच्छे काले हैं। ब्रम्हचर्य, योग, शीर्षासन, महाभृंगराज तेल इत्यादि का प्रताप है। केशों कोे लहराते हुए, कभी बांध कर पोनी टेल बनाकर बाबा योग करवाते हैं। बाबा ने योग की मार्केटिंग की। अब तक योग सीखना सिखाना पुण्य का काम माना जाता था। कोई योग के लिए पैसा ले तो उसे पापी माना जाता था। बाबा ने उसका अच्छा व्यापार किया। थोक व्यापार। प्रायः 10 15 लोगों को इकठ्ठा करके योग शिक्षक योग कराते हैं ताकि हरेक पर पूरा ध्यान दिया जा सके। बाबा ने इस रिटेल को थोक में बदला। 2-5 हजार लोगोें को एक साथ योग सिखाया। बाबा ने इस योग की फीस लगाई। न्यूनतम रू 500। बाकी फिर डीलक्स योग 1000। सुपर डीलक्स योग 2000। हाई प्रोफाइल योग रू 5000, 10000। एक बार में एक शहर से बाबा 30 -40 लाख रूपया उठाते हैं। इसके अलावा हर रोज दानदाताओं को प्रेरित करते हैं। पातंजलि ट्रस्ट में दान के लिए। उससे भी पैसा आ जाता है। कुछ लाख रूपये और। हर शहर में जब बाबा पंहुचते हैं तो महीनों पहले एक आयोजन समिति बन जाती है। शहर के प्रमुख व्यापारी और भाजपा नेता उसमें जुड़ जाते हैं। इस योग शिविर के लिए लाखों रूपये चंदा होता है। मैदान बुक होता है। लाखांे रूपयों की हरे रंग की दरी बिछाई जाती है। माइक सिस्टम लगता है। सभी कुछ अति भव्य। हम सबने अपने शहरों में देखा ही है बाबा के साथ जो पवित्र व्यापारी पवित्र राजनेता और पवित्र धर्माचार्य बैठते हैं। इनके पास केवल सफेद पैसा होता है। कभी कभी तो सरकार इतनी बेशर्म हो जाती है कि इनसे इनका सफेद पैसा ही काला कहकर जब्त कर लेती है। इन पवित्र लोगों पर छापे मारे जाते हैं। करोड़ों रूपये जब्त होते हैं। फिर भी ये लोग पीछे नहीं हटते। अच्छे काम किये ही जाते हैं। किये ही जाते हैं। हाय रे संसार की महिमा अजब कौतुक।
संसार का नियम है कि ज्यों ही पैसा आता है आदमी को और पैसा कमाने की सूझती है। और साथ में पैसे को न्यायपूर्ण साबित करने के लिए कुछ भले काम करने की सूझती है। छोटे लोग मंदिर बनाते हैं। सड़क के बीचोंबीच बन जाए तो उसका पुण्य ही अलग होता है। इसके बाद राजनीति करने की इच्छा जोर पकड़ लेती है। बाबा ने जब अटाटूट धन कमा लिया तो उन्हें राजनीति करने की सूझने लगी। बाबा को लग रहा है कि जो लाखों लोग उनसे फीस लेकर योग सीख रहे हैं और एक एक दो दो दिन में उनकी वर्षों की व्याधियां दूर हो रही हैं तो इस चमत्कार को वोट में बदला जाए। पिछले चुनाव में बहुत सोच समझ कर भाजपा ने योजनाबद्ध तरीके से यह मामला उठाया था कि विदेशी बैंकों में विदेशों में जो भारतीयों का कालाधन जमा है उसे वापस लाया जाए। चुनाव में पटकनी खाने के बाद भाजपा ने इस मुद्दे को बाबा रामदेव को सौंप दिया। बाबा इस बॉल से अब कुछ दिन आप खेल लो। बाबा ने अपनी पार्टी बना ली है। चुनाव लड़ने की घोषणा भी कर दी है। बाबा की आर एस एस से दोस्ती जगजाहिर है। भाजपा उनके साथ है ही। भगवा वस्त्रधारी सब एक हो चुके हैं। तो बाबा ने कहा कि काला धन वापस आना चाहिए। इससे देश की सभी समस्याओ का हल हो जाएगा।
होम्योपैथी और आयुर्वेद में रोग को जड़ से खत्म करने की बात की जाती है। केवल लक्षण और बाहरी दर्द को खत्म नहीं करना है बल्कि रोग को जड़ से उखाड़ देना है। बाबा ने यहां थ्योरी बदल दी। रोग की जड़ के बारे में बात ही नहीं करते। काला धन वापस ले आओ। बस। सारा देश ईमानदार हो जाएगा। सरकारी लोग रिश्वत खाना बंद कर देंगे। व्यापारी रिश्वत देना बंद कर देंगे। भ्रष्टाचार बंद हो जाएगा। बाबा के पास हर चीज का हल है। भ्रष्टाचार मिटाओ। कांग्रेेस मिटाओ। मनमोहन सिंह, सोनिया गांधी चिदंबरम सबको हटाओ। बाबा के पास हर समस्या का हल है। करेंसी बदल दो काला धन बाहर आ जाएगा। संधि तोड़ तो काला धन वापस आ जाएगा। पर बाबा यह नहंीं बताते कि जिन लोगों का काला धन विदेशों में रखा है उनके साथ क्या सलूक किया जाना है। ये काला धन हमारे देश की पवित्र लोकतंात्रिक व्यवस्था की पैदाइश है। भ्रष्टाचार कोई व्यवस्था नहीं है। यह हमारी व्यवस्था की पवित्र संतान है। जब तक व्यवस्था नहीं बदलोगे तब तक भ्रष्टाचार जारी रहेगा। बाबा तो निजाम बदलने की बात ही नहीं करते। गरीब किसान मजदूर की बात ही नहीं करते। देश की सबसे बड़ी समस्या जनसंख्या है। उसकी बात नहीं करते।
हर समझौते हर ठेके में पैसा लगता है। चुनाव लड़ने में हर चुनाव क्षेत्र में आज कल करोड़ों रूपये लगते हैं। बाबा चुनाव लड़ेंगे तो उनके उम्मीदवारों को भी हर चुनाव क्षेत्र में करोड़ों रूपये खर्च करने होंगे। ये कहां से आएंगे। बाबा किसी को मुफ्त में योग सिखाते नहीं। बाबा का काम कौन कार्यकर्ता मुफ्त मेें करेगा। ये करोड़ों रूपये कहां से आयेंगे। सवाल इस व्यवस्था का है जिसमें आर्थिक असुरक्षा इतनी है कि हर कोई ज्यादा से ज्यादा कमा लेना चाहता है। इसीलिये आज कल बाबा बनना भी धंधा हो गया है। संतों के रंगीन विज्ञापन छपते हैं। इंडिया टुडे में जैन संत अपने आपको विज्ञापित करते हैं। क्यों ? संतों को विज्ञापन की क्या जरूरत ? प्रतियोगिता का जमाना है। संतगिरी में भी प्रतियोगिता है। प्रवचन देना भी धंधा है। हर चीज धंधा है। तो जरूरत इस व्यवस्था को बदलने की है जिसकी चिंता कम से कम बाबा रामदेव को तो नहीं है। इसी लिए ये फुग्गा फूट्रेगा। कब फूटता है यही देखना है। ..........सुखनवर