Wednesday, May 25, 2011

बहुत कठिन है डगर राजनीति की

बहुत कठिन है डगर राजनीति की
बाबा तूफानी दौरे पर हैं। दिन रात चल रहे हैं। हजारों किमी चल चुके हैं। अभी हजारों किमी और चलेंगे। बहुत जोश में हैं। हर रोज दो दो शिविर ले रहे हैं। पांच पंाच सभाएं कर रहे हैं। उनका अपना टेंट हाउस है। अपना खुद का साउंड सिस्टम है। अपना खुद का टी वी चैनल है। हर शहर कस्बे में इनकी दुकान खुल चुकी है। उसके संचालक को सख्त निर्देश है बाबा की पूरी व्यवस्था करो वरना दुकान बंद। बाबा ने घोषणा कर दी है कि सब पार्टियां बेईमान हैं। मेरी खुद की पार्टी बनेगी। मेरे ईमानदार लोग चुनाव लड़ेंगे। वो ईमानदार सरकार बनाएंगे। इस चक्कर में सब पार्टियों के नेताओं ने हाथ खींच लिए। जब संयोजकगण चंदा मांगने गए तो हाथ जोड़ लिए। भैया जब तक बाबा योग सिखा रहे थे तब तक ठीक था। अब वो पार्टीबाजी कर रहे हैं तो हम भी पार्टी से बंधे हैं। हम तो पूरा शिविर करवा देते पर अब नहीं करवा सकते। हम पूरी तरह साथ हैं पर सामने नहीं आ सकते। चंदा ले जाओ। दो पांच हजार। ईमानदारी का इतना ही पैसा है। इससे ज्यादा तो कालाधन ही दिया जा सकता है। वो बाबा लेंगे नहीं। हम देंगे नहीं। अब बाबा का एक यात्रा का खर्च है एक दिन का पन्द्रह से बीस लाख रूपये। इसमें उनके टेन्ट हाउस साउंड सिस्टम और आस्था चैनल की फीस शामिल है। खैरियत है। इतना सारा सफेद धन हर शहर में कहां है। कुछ तो काला मिलाना पड़ता है। कार्यकर्ता परेशान है। जिस पैसे वाले के पास जाओ उसके पास सफेद धन की कमी है। काला लेना नहीं है।
पहले बाबा तीन दिवसीय शिविर करवाते थे। बड़ी तैयारी होती थी। पूरी भाजपा जुट जाती थी। मंत्री से लेकर संत्री तक पूरा सरकारी अमला जुट जाता था। एक बार के आयोजन का बजट बनता था एकाध करोड़ रूपये। अस्थायी कार्यालय खुल जाता था। स्वागत समिति बन जाती थी। स्थान चयन से लेकर टिकिट बिक्री तक सभी व्यवस्थाएं होती थीं। बाबा के शिविर में कोई फ्री सर्विस नहीं थी। कम से कम पांच सौ तो लगना ही है। एक शिविर पचास साठ लाख के फायदे में जाता था। फिर लोगों को पातंजलि ट्रस्ट के लिए दान देना होता था। सभी राजनेता उद्योगपति अपना अपना धन बाबा को दान करते थे। उस समय तक बाबा ने सफेद काले का कोई भेदभाव रखा नहीं था। जिसके पास जो हो सो दे।
अब बाबा को कुछ और सूझ गया है। अब योग एक बहाना हो गया है। अब राजनीति सूझ रही है। अब इंस्टेंट काफी के समान इंस्टेंट योग शुरू हो गया है। बीमार परेशान आदमी ऐलोपैथी फिर आयुर्वेद फिर होम्योपैथी में जाता है। जब कहीं फायदा नहीं मिलता तो भगवान की शरण में जाता है। यहां बाबा के यहां सबकुछ है। भगवान भी हैं बाबा स्वयं हैं आयुर्वेद भी है और योग भी है। आस्था चैनल भी है। और सबकुछ तुरंती है। एकदम तुरंत फायदा होता है। मैदान मंे योग करो। तुरंत बताओ कि ब्लडप्रेशर कम हो गया। फिर बाहर आकर दवाईयां खरीद लो। सिंगल विंडो सिस्टम। एक ही खिड़की से सभी सुविधाएं उपलब्ध। अब दवाईयां ही नहीं आटा और कास्मैटिक्स भी बाबा बेच रहे हैं। सामान अच्छा है और अपेक्षाकृत सस्ता है।
बाबा से भाजपा को बहुत उम्मीदें थीं। भाजपा को बाबा से बहुत उम्मीदें थीं। बाबा भी राष्ट्र राष्ट्र करते हैं। भाजपा तो राष्ट्र राष्ट्र करती ही है। अभी अभी बाबा अन्ना हजारे के अनशन में अपने निजी विमान से दिल्ली आए तो साथ में विमान में आर एस एस के प्रवक्ता राम माधव को लाए। ये एक संकेत है। बाबा ने योग बेचकर एक नये उद्योग को जन्म दिया है। पहले योग व्यायाम और आध्यात्म से जुड़ा था। बाबा ने उसे घर घर पंहुचाया और स्वास्थ्य व धंधे से जोड़ा। योग सीखने का पैसा देना होगा। लोगों ने दिया। बाबा ने प्रवचन नहीं दिया। धर्म के नाम पर धंधा नहीं किया। बाबा ने स्वदेशी सामान बनाया। अच्छा बनाया और उसे बेच रहे हैं। इसीलिए बाबा यह चाहते हैं कि विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार हो स्वदेशी का इस्तेमाल हो। सभी स्वदेशी कंपनियों का भला होगा। स्वदेशी कंपनियां बच नहीं पा रही हैं। सबको उदारीकरण चाट गया है।
बाबा को न जाने किसने ज्ञान दे दिया कि जितने लोग तुम्हें सुनने देखने और योग करने आते हैं वो सब तुम्हारे वोटर हैं। तुम वोट मांगोगे तो वोट दे सकते हैं। तो बाबा को राजनीति सूझ गई है। बाबा का एजेंडा है विदेशों में जमा काला धन वापस लाना है। काला धन कांग्रेस का है। इसी की सरकार वापस नहीं लाना चाहती। इसी को बदलना है। चोर राष्ट्रद्रोही और गद्दार जो शासन कर रहे हैं उन्हें मार भगाना है। बड़े नोट बंद करना है। जनलोकपाल बिल बनवाना है। बाबा अनशन पर बैठ रहे हैं। अब अनशनों की लड़ाई शुरू होगी। पहले अन्ना हजारे बैठे। अब बाबा बैठे। जबसे बाबा रामदेव ने राजनैतिक तेवर अपनाए हैं तबसे राजनीतिज्ञों ने उनके पीछे से हाथ खींच लिए हैं। प्रेस और इलेक्टॉनिक मीडिया से बाबा गायब हो चुके हैं। राजनीति शुरू हो चुकी है।
पहले भी अनेक बाबाओं ने राजनैतिक पार्टी बनाई है। चुनाव लड़े हैं। हारे हैं। राजनैतिक पार्टी एकसूत्री या दो सूत्री एजेंडे पर नहीं बनती। हमारे देश में बहुत सी प्रादेशिक पार्टियां हैं जो बिना किसी आर्थिक नीति, विदेश नीति के बनती हैं और चलती रहती हैं। ये केन्द्र सरकार में शामिल भी रहती हैं। पर इनका काम एकसूत्री होता है अपना भला करना जैसे तृणमूल का हो या डी एम के का हो। मगर यदि आप देश पर शासन करना चाहते हो तो अपनी पार्टी को सामने तो लाओ। बताओ तो कि इसमें कौन शामिल हैं। जनसंख्या, पेयजल, पर्यावरण, साम्प्रदायिकता, असंगठित मजदूर, बेरोजगारी, बंद होते कारखाने, करोड़ों शिक्षित बेरोजगार, अशिक्षा, मंहगी होती उच्च शिक्षा, आर्थिक असमानता, स्वास्थ्य, उर्जा संकट, पेट्रोल के दाम यातायात इन सबके बारे में आपकी नीति घोषित होना चाहिए। आर्थिक नीति, विदेश नीति, प्रजातंत्र, लोकतंत्र, गणतंत्र, जनतंत्र, पंूजीवाद, समाजवाद, साम्यवाद, तानाशाही ये शब्द दुनिया में यूं ही नहीं हैं इन सबका मायने है।
बाबा अभी बहुत दूर जाना है। .........................................................सुखनवर

Wednesday, May 18, 2011

बाप दादों की प्रापर्टी

मजबूरी है साहब। बाप दादों की प्रापर्टी है। ऐसे कैसे छोड़ दें। मेरा तो पालिटिक्स में कोई इंटरेस्ट नहीं है। मैं तो अच्छा भला स्टेट्स में रह रहा था। सिस्टर यहां थी ही। उसका इंटरेस्ट भी है। उसमें ग्रेंड मा के समान लुक भी है। वो सम्हाल रही थी। मगर मेरे पीछे पड़ गए। मदर भी अकेली पड़ रही थीं। उनने भी कहा बेटा आओ मदद करो। यहां तो एक से एक घाघ हैं। क्या बताऊं आपको।े कहा कि मॉम की मदद करने आ जाओ। तो आ गए हैं साहब। घूम रहे हैं गांवों में। क्या क्या नहीं करना पड़ रहा है ? कभी तो लगता है कि सब कुछ छोड़ो छाड़ो और वापस चलो। यहां इंडिया में तो इतनी धूप है इतनी गर्मी है कि जीना मुश्किल है। न जाने लोग कैसे रहते हैं।
क्या था कि जब तक ग्रेंड मा थीं तब तक चलता था। वो पॉलिटिक्स जानती थीं। वो सबको चराती रहती थीं। पूरी पार्टी में कोई चीं नहीं बोल सकता था। वो जानती थीं कब क्या करना है। कब किसे उठाना है कब किसे गिराना है। लोग कहते हैं कि हममें उनका खून है। हमें स्वाभाविक रूप से ये सब आना चाहिए। पर पहले बहुत लायक लोग हुआ करते थे। लायकों में से नालायक निकालना बहुत बड़ा काम हुआ करता है। अब क्या हाल हैं ? कितने स्टेट हैं जिसमें हमारी पार्टी ही नहीं है। अब बताइये क्या करें। ग्रेंड मा के जमाने में और आज के जमाने में बहुत फर्क है। तब सोवियत यूनियन था। उधर स्टेट्स से प्रेशर आया और यहां ग्रंेड मा ने मास्को फोन लगाया उधर वाशिंगटन वाले सीधे हो गए। अब कौन है जिसके बल पर हम एंेठें। और हमारी पार्टी ? कितने स्टेट में तो है ही नहीं। लोग कांग्रेेेस को वोट क्यों दें ? कांग्रेस हो तब न वोट दें। हमारा फार्मूला लेकर न जाने कितने प्रोडक्ट मार्केट में हैं। कितना काम्पटीशन है। आप समझिये। ये मुलायम सिंह ये मायावती ये लालू यादव ये पासवान ये करूणानिधि ये जयललिता ये ममता बैनर्जी ये सब कांग्रेस ही तो हैं। मगर इस बीच जो वैक्यूम क्रियेट हुआ है उसके कारण इन लोगों की बन आई है। हर स्टेट में अलग अलग पॉकिट्स बन गए हैं। वो तो भला हो इस भारतीय जनता पार्टी का जो हिन्दुत्व का मुद्दा लिए हुए है। ये यदि इस मुद्दे को छोड़ दे तो आज इसका कब्जा हो जाए देश पर। आखिर बताइये हममें और इनमें क्या फर्क है। इकॉनॉमिक पॉलिसी एक। फॉरिन पॉलिसी एक। फर्क ये है कि हम लोगों को कुछ वैल्यूज़ हमारे पुरखे सिखा गये हैं वैसे ही इनके पुरखे इन्हें सिखा गये हैं दंगे और धर्म की पॉलिटिक्स। हम लोग ये नहीं करते बस। अब तो मुझे भी समझ में आ गया है कि इन्हें धर्म की पॉलिटिक्स करने से मत रोको। खूब करने दो। और दो की चार लगाओ। जब तक ये सब करते रहेंगे गलतफहमी में बने रहंेगे कि हम सत्ता में आने वाले हैं। एक बार आ गए थे। फिर कैसे चले गए। कहां गया शाइनिंग इंडिया।
मेरी तो बड़ी मुश्किल है। मुझे पॉलिटिक्स आती नहीं। मुझे भाषण देना नहीं आता। बीसों साल से हिन्दी बोली नहीं। गांवों में अनपढ़ लोग हैं। अंग्रेजी आती नहीं। कैसे मैं अपने थॉट्स को कन्वे करूं। पापा को भी मेरी तरह पॉलीटिक्स में धक्का दिया गया था। वो तो पाइंट्स बनवा लेते थे और चिट्स रखे रहते थे। मैं क्या करूं। मेरी क्या हालत है बताऊं आपको। मुझे तो पानी में फेंक दिया है। अब सिवाए तैरने के कोई चारा नहीं है। दौड़े जाओ। एक स्टेट में चुनाव खत्म होते हैं तो दूसरे में चालू। उस पर से मुझे यूथ कांग्रेस सम्हालने को दे दी। अरे बाप रे। ये कांग्रेस का यूथ है ? इनकी शकल देखकर तो खून ठंडा हो जाता है। दे आर जस्ट..... खैर जाने दीजिए पार्टी का मामला है। कुछ मुंह से निकल गया तो मीडिया वाले जान ले लेंगे। एक तो इस देश के मीडिया से मैं बहुत परेशान हूं। इन्हें लगता है कि देश इनसे पूछ कर चलाया जाए। क्यों भई हम लोग चुनाव लड़ कर सत्ता में आए हैं। हमें जो करना है करेंगे। आपसे क्यों पूछेंगे। आप कोई कोर्ट हैं कि रोज हर बात का जवाब देते रहें। पर वैसे पिछले चुनाव से काफी ठीक हो गया है। रेट तय हो गया है। पैसा ले लेते हैं और चुप रहते हैं। अब बेसिक प्राब्लम्स पर बात नहीं करते। क्राइम वगैरह दिखाकर समय काटते रहते हैं।
अब बताऊं आपको परमाणु समझौते के बारे में। बुश का टाइम खत्म हो रहा था। उसने कहा कि मुझे तो एग्रीमेंट करना है। आपको करना पड़ेगा। पी एम ने कहा कि हमारे यहां सी पी एम वाले समर्थन वापस ले लेंगे। बुश ने कहा नथिंग डूइंग। कह दिया मतलब कह दिया। कल आ जाओ और साइन करो। अब बताइये। इस कंडीशन में हम क्या करते। वैसे भी सरकार गिरती और ऐसे भी सरकार गिरती। तो सी पी एम वाले बुरा मान गए। अब मान गए तो माने रहो। हमारी भी मजबूरी थी। अच्छा ही हुआ। इन लोगों से पीछा छूटा। सरकार में शामिल भी नहीं होते थे। जिम्मेदारी भी नहीं लेते थे और काम भी नही करने देते थे। इधर ये ब्लैकमेलिंग कर रहे थे उधर बुश ब्लेकमेलिंग कर रहे थे।
अब हम लोग तो किसी को जानते नहीं। जो जैसा बता देता है। कर देते हैं। लोग समझते हैं कि हम पार्टी के मालिक हैं। जबकि सचाई क्या है ? हम तो डमी हैं। असली पार्टी तो इंडस्ट्री वाले हैं। उनके पास पैसा है। उन्हें पैसा कमाना है। हम तो उनके लिए सरकार चला रहे हैं। हमें तो पता भी नहीं चलता। जो वो चाहते हैं वो हो जाता है। हमारी सरकार भी कोई सरकार है। सरकार में शामिल किसी पार्टी को हम कुछ नहीं बोल सकते। चाहे वो चोरी करे चाहे डकैती करे। हमारी पॉलिसी कुछ है और मिनिस्ट्री करती कुछ है। बोल नहीं सकते। क्योंकि गठबंधन धर्म है। अजीब प्राब्लम है इंडिया में। इन सबके लिए मैं गांव गांव घूम रहा हूं। मजाक है न। बाप दादों की इस प्रापर्टी का मैं क्या करूं? कहां तक सम्हालूं। .................................................सुखनवर

Thursday, May 12, 2011

सम्मान और सम्मानित

हमारे देश में पुरस्कार देने और सम्मान देने, अभिनंदन करने की सुदीर्घ परंपरा है। बड़े शहरों में यह खेल बडे़ स्तर पर होता है पर छोटे शहरों में यह बड़े मनोरंजक स्तर पर होता है। कुछ लोग होते हैं जो किसी न किसी का सम्मान करने की फिराक में रहते हैं। इनका जीवन इसी काम के लिए समर्पित रहता है। ये और कुछ नहीं करते बस सम्मान करते हैं। साल भर इसी टोह में रहते हैं कि किसी का सम्मान कर दें। किसी को पुरस्कार दे दें। ये अपने इस काम के प्रति बहुत श्रद्धा रखते हैं और इसे बड़ा रचनात्मक काम मानते हैं। एक तरह से ये एकल खिड़की सुविधा का पर्याय हैं। इधर आपके मन में विचार आया कि अपना सम्मान करवाया जाए उधर आपने उन्हें खबर की और ये लीजिये काम चालू हो गया। प्रेस में समाचार लग गया। हॉल बुक हो गया। पेंटर कसीदाकारी के साथ सम्मान पत्र लिखने लगा। कार्ड छप गये। कुछ ही दिनों बाद सम्मान के इच्छुक किसी मुख्य अतिथि से बाकायदे सम्मानित हो गये। धीरे धीरे कस्बों और शहरों में एक गिरोह बन जाता है। इसमें बहुत से सम्मानित और भविष्य में सम्मानित होने वाले लोग शामिल होते हैं। घूम घूम कर सम्मान वाली कुर्सी में बैठते जाते हैं। जो आज सम्मानित हो रहा है वो कल सम्मान करता नजर आएगा। जो उसके बारे में कहा जा रहा है। वो कल दूसरों के बारे में कहेगा। इन सम्मान कार्यक्रमों में कुछ लोग मुख्य अतिथि बनने में भी माहिर होते हैं। जैसे आयोजक कार्यक्रम आयोजित करने में माहिर होता है वैसे ही ये मुख्य अतिथि या अध्यक्ष पद का दायित्व संभालने में माहिर होते हैं।
सम्मान कार्यक्रम में शामिल होने वाले लोग न केवल तय होते हैं वरन् उनकी वेशभूषा भी तय होती है। ऐसे मौके पर शर्ट पेंट पहनना तो मानो अपराध ही है। सभी लोग यथाशक्ति अपना नया पुराना कुर्ता धोती या कुर्ता पाजामा पहनते हैं। हर सम्मान कार्यक्रम के लिए नया तो बनेगा नहीं इसलिए आवृत्ति बहुत हो जाती है। हर बार वही पहनना पड़ता है। ठंड के दिन हों तो मुख्य अतिथि को सुविधा हो जाती है वो शॉल ओढ़कर बैठ जाते हैं। इससे गरिमा आ जाती है। कुछ अतिथि बहुत बदमाश होते हैं। वो लापरवाही का प्रदर्शन करते हैं लेकिन उनका इरादा खेल और फोटो बिगाड़ने का होता है। वो मंच पर बंदर टोपा लगा कर बैठ जाते हैं। अतिथि को कुछ कहा भी नहीं जा सकता और फोटो तो बिगड़ ही जाता है।
सम्मान कार्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा सम्मानित के घर परिवार के लोग होते हैं। ये एक कोने में गोल बनाकर बैठा दिये जाते हैं। सम्मानित की पत्नी की स्थिति विचित्र होती है। उसे पकड़कर मंच की तरफ खींचा जाता है। वो जाना नहीं चाहतीं। मगर ले जाई जातीं हैं। उनका भी माल्यार्पण हो जाता है। मंच संचालक भाव विभोर हो जाता है। उसकी भी समझ में नहीं आता कि अब इनका क्या करें। थोड़ी देर इसी असमंजस में कट जाते हैं। फिर कहा जाता है कि सम्मानित आज जो भी हैं इन्हीं के कारण हैं। ये न होतीं तो इनकी रचनाएं इस तरह आसमान को न छूतीं। जमीन पर ही रखी रहतीं। कई रचनाएं तो आज भी आसमान में ही उड़ रही हैं। न जाने कितने बल के साथ आसमान की ओर उछाली गई हैं।
सम्मान कार्यक्रम में दिये जाने वाले भाषण भी तय होते हैं। एक युवा तैयार रखा जाता है जो सम्मानित के बारे में एक सुविचारित निबंध रटे रहता है। वो बोल देता है। इसके बाद तात्कालिक भाषण दिये जाते हैं। इसमें सम्मानित सकुचाया सा बैठा रहता है और उसके मित्र उसके बचपन और अंतरंगता के किस्से सुनाते हैं। लगभग हर भाषणकर्ता अपने व्यक्तिगत संस्मरण सुनाता है। इसका फायदा यह होता है कि उसे सम्मानित की रचना और रचना प्रक्रिया पर कुछ नहीं बोलना पड़ता। एक तो रचनाएं इस लायक नहीं होतीं और दूसरे बोलने वाले ने पढ़ी भी नहीं होतीं। मुख्य अतिथि को बहुत गंभीर भाषण देना होता है। इसीलिए वो बहुत धीरे धीरे बोलना शुरू करता है। उसे गरिमामय होने का अभिनय करना है। उसे अपनी रचनाएं भी सुनाना हैं। वो सम्मानित की रचनाएं भी पढ़कर आया है या मंच पर ही पढ़ ली हैं। उनका उल्लेख करना है। उसे अपनी वरिष्ठता भी स्थापित करना होती है। और ये भी देखना होता है कि आगामी सम्मान कार्यक्रमों में भी उसे ही मुख्य अतिथि बनाया जाए। मुख्य अतिथि बताता है कि सोेहन बचपन से ही प्रतिभाशाली था। वो जब पंाचवीं कक्षा में था तभी अपनी कविता लेकर मेरे पास आ गया इत्यादि। यानी सोेहन आज जो कुछ है वो मेरे ही मार्गदर्शन के कारण है। आज भी मेरा स्वास्थय ठीक नहीं था। कुछ मन उचाट सा था। मगर सोेहन के सम्मान का दबाव था। मैथिली शरण गुप्त या माखनलाल चतुर्वैदी या किसी और महान साहित्यकार की कोई रचना या जीवन की कोई घटना सुनाई जाती है जिससे मुख्य अतिथि की विद्वत्ता प्रमाणित होती है। ये घटना सच्ची हो या रचना सचमुच उक्त महाकवि की हो ऐसा जरूरी नहीं है। फिर अपनी एक दो रचनाएं। फिर सोेहन की एक रचना जिससे उसके विराट दार्शनिक चिंतन के बारे में संकेत मिलता है। मुख्य अतिथि अंतिम रूप से तभी विद्वान माना जाता है जब वो श्रोताओं को बताता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने सोहन के सम्मान के संदर्भ में ही मानो ये चौपाई लिखी है। सुनिये तुलसीदास जी कहते हैं। इत्यादि। इस मौके पर यदि संस्कृत के दो तीन न समझ में आने वाले श्लोक सुना दिये जाते हैं तब तो समा ही बंध जाता है।
अब मुख्य कार्यक्रम शुरू होता है। सम्मानित खड़ा है। सभी अतिथि खड़े हैं। अपने पैसे से बनवाया गया विशाल सम्मानपत्र सम्मानित के हाथ मंे है। सभी सामने देख रहे हैं। इतिहास रचा जा रहा है। रचनाकार वह फोटोग्राफर है जो इस क्षण को कैमरे में कैद कर रहा है। फिर माल्यार्पण। एक के बाद एक। मित्रों द्वारा। फिर परिवार जनों द्वारा। फिर उपस्थितों द्वारा। फिर मालाआंे का दूसरा फेरा शुरू हो जाता है। सम्मानित का गला भर जाता है। मालाओं से। वो उतारकर रखता है कि फिर सम्मान का क्रम चालू हो जाता है। जब माला पहनाने वाले थक जाते हैं या हॉल के बाहर चले जाते हैं तभी संयोजक बचे हुए ? सम्मानार्थियों से क्षमा मांगते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाकर स्वल्पाहार की तरफ ले जाता है। सम्मानित का जीवन सफल हो गया। वो संकल्प लेता है कि हो सका तो साल दो साल बाद कोई बहाना लेकर फिर सम्मानित होउंगा। ....................................................सुखनवर

Wednesday, May 4, 2011

भ्रष्टाचार केवल पैसे का नहीं होता

दरअसल ये एक मुगालता है कि भ्रष्टाचार अमीरों या पैसे वालों का चांेचला है। मैं कण कण में व्याप्त हूं। मैं समस्त चराचर जगत को चलाता हूं। मैं संज्ञा भी हूं। सर्वनाम भी हंू। क्र्रिया भी हूं और विशेषण भी हूं। संक्षेप में कहा जा सकता है कि मैं पूरी व्याकरण हूं। समाज मेरे बिना मूक बधिर है। मैं हर गरीब अमीर के साथ हूं। मैं सर्वहारा हूं। अमीर हो या गरीब जब जिसे जहां मौका मिलता है मुझे कर लेता है। जो नहीं कर पाता वो मेरा आलोचक हो जाता है। मैं उससे नहीं डरता क्योंकि मुझे मालूम है वो मेरा विरोधी इसीलिए है कि वो मुझे कर नहीं पाया।
मुझसे अपेक्षा की जाती है कि मैं न होऊं, मगर मैं क्यों न होऊं। मेरे होने में ही समाज की सार्थकता है। जहां जो कुछ भी हो रहा है वो मेरे ही कारण हो रहा है। मैं जगत का स्वामी हूं। मेरे बिना पत्ता भी नहीं खड़कता। मुझे नहीं मालूम की वो पत्ता कहां रखा रहता है जिसके खड़कने का नोटिस लिया जाता है। पर फिर भी कहावत है तो वो सही है। दो परिवारों में शादी की बात चलती है। दोनों ही पवित्र हैं। मगर जब सब तय होता है तो दरअसल लड़की लड़के की बिक्र्री होती है। बाजार भाव के अनुसार। और इसे कहा जाता है हैसियत के अनुसार। हैसियत वो बाजार भाव है जिसके आधार पर लड़की वाला अपनी लड़की के लिए लड़का खरीदने को तैयार हो जाता है। यहां भी मैं हूं। मुझे करने वाले तक नहीं मानते कि शादी ब्याह में मैं हूं पर मैं हूं। मेरी मजबूत उपस्थिति के बिना ब्याह कैसे होगा। दहेज नकदी लेन देन द्वार चार जयमाला सब जगह मैं हूं। आप देखिये तो सही।
चुनावों के समय सबसे ज्यादा चर्चा मेरी ही होती है। सब कोई मुझे मिटा डालना चाहते हैं। चुनाव जीतने के लिये करोड़ों रूपये चाहिये। कोई मेहनत की कमाई से करोड़ों रूपये कमा नहीं सकता और मेहनत की कमाई को चुनावों में गवां नहीं सकता। मैं ही इन सभी उम्मीदवारों के काम आता हूं। मेरे द्वारा कमाई गई दौलत लुटाई जाती है। पर मैं घाटे मंे नहीं रहता। चुनाव जीतते ही जीतने वाला मेरी सेवा में लग जाता है। अगले चुनाव तक उसे चुनाव जीतने के लिए लगाया हुआ पैसा वापस लाना होता है वरन् अगले चुनाव के लिए लगाया जाने वाला पैसा भी उगाहना है। इसीलिये मेरा उपयोग द्विगुणित हो जाता है। मैं दूनी रफतार से काम करता हंू। जो मेरे सबसे बड़े विरोधी हैं वो मीडिया वाले पहले विज्ञापनों आदि के माध्यम से चुनावों में कमाई कर लेते थे। अब चुनाव आयोग के नियमों की मजबूरी में कुछ नए रास्ते निकाले गये हैं। मीडिया का काम होमियोपैथी के समान हो गया है। जैसे होमियोपैथी की दवाई खाने से फायदा न हो नुकसान नहीं होता उसी प्रकार मीडिया को नगद पैसे दे दो तो ये चुप हो जाते हैं नुकसान नहीं करते। यदि दवाई से फायदा लेना हो तो उसका रेट और ज्यादा है। ये बात अलग है कि इस सबके बाद सब मेरी बुराई करने से नहीं चूकते। मैं हूं न।
कई लोगों की मजबूरी है। वो मुझे करना नहीं चाहते। मगर सरकार के नियम ऐसे हैं शिष्टाचार ऐसा है लोकाचार ऐसा है कि मैं हो जाता हूं। कितने ही विभाग ऐसे हैं जहां के अफसर परेशान रहते हैं। कुछ न कहो, कुछ न करो फिर भी देखो कि आज सफाई की और कल फिर करोड़ रूपये घर में पड़े हैं। क्या करें। कुछ समझ में नहीं आता। कुछ बंगले बनवा लिये कुछ फार्म हाउस खरीद लिये मगर ये साला पैसा है कि खत्म ही नहीं होता। कुछ पैसा दीवारों में चुनवा दिया फिर भी पैसा खत्म होने का नाम नहीं ले रहा। चलो तिरूपति चले गये। दो चार किलो सोना बिना नाम के चढ़ा दिया। भगवान भी खुश हो गये। परलोक सुधर गया। मगर फिर पैसा ही कि आए जा रहा है। मना करो तो और ज्यादा आने लगता है। देेने वाले को लगता है कि साहब को कम पड़ रहा है। वो और पंहुचाने लगता है। देने वाला और लेने वाला दोनों आध्यात्मिक हैं। न वो देना चाहता है न लेने वाला लेना चाहता है मगर मजबूरी दोनों की है न वो देने से पीछे हट रहा है और न लेने वाला लेने से। विनम्रता और ईमानदारी भी कोई चीज होती है भाईसाब। जो कमिटमेंट है वो तो पूरा करना ही है। दस परसेंट की बात हो गई याने हो गई। वो तो साहब पूजापाठ वाले आदमी हैं भगवान को मानते हैं इसीलिए कम रेट लग गए वरना आजकल तो ये साले बीस और पच्चीस परसेंट के लिये मुंह फाड़ते रहते हैं।
हमारे समाज में मेहनत करना नीच काम माना जाता है। बिना मेहनत के यदि दोनों वक्त का खाना भी मिल जाए कोई कमाई भी न हो तो आदमी बहुत खुश होता है। बिना मेहनत के चोरी बदमाशी से पैसा कमा लो तो समाज में पूछ परख होगी। सारी सुख सुविधाएं होंगी। अपने पैसे से आप चाहे जिस मेहनत करने वाले को खरीद सकते हो। ये पवित्र भावना समस्त धरतीपुत्रों में घर कर गई है। जब तक ये भावना रहेगी मुझे कोई कैसे खत्म कर सकता है। लोगों को जब यह मालूम ही नहीं कि मैं कौन हूं और कहां कहां व्याप्त हूं तब तक मुझे कैसे खत्म किया जा सकता है। आज कुछ नौजवान लाखों लाख वेतन पा रहे हैं वो सुबह से रात तक काम करते हैं। उनका कोई जीवन नहीं है। वो पूरी तरह अपनी नौकरी को समर्पित हैं। वो मेरे खिलाफ हैं पर उन्हें नहीं मालूम कि मेहनत करने वालों ने अपना खून सड़कों पर बहाकर काम के घंटे तय करवाये थे। आठ घंटे काम। बाकी समय हमारा। आखिर मैं यहां भी तो हूं।
सरकार के एक विभाग ने एक विचार पत्र तैयार किया है कि क्यों न मुझे कानूनी रूप दे दिया जाए। बहुत अच्छी बात है। जिस दिन आप उसे कानूनी रूप दे देंगे वो मेहनत की कमाई हो जाएगी। उसके उपर की हराम की कमाई फिर चालू हो जाएगी क्योंकि मुझे वो नष्ट नहीं कर सकता जो खुद भ्रष्ट हो। और भ्रष्टाचार केवल पैसे का नहीं होता। ये एक मानसिकता है। ,,,,,,,सुखनवर

सनसनी के थोक व्यापारी

सनसनी के थोक व्यापारी
कलमाडी जेल पंहुच गये हैं। कलमाडी खेल से जुड़े हैं। तो उनमें जेल जाते हुए भी खिलाड़ी भाव है। एकदम उसी तरह की चाल है जो पहलवान की अखाड़े जाते समय होती है। हाथ में एक ब्रीफकेस है। जब कोई महत्वपूर्ण आदमी जेल जाता है तो सिपाही सब इंस्पेक्टर आदि की बन आती है। वो वी आई पी को यूं पकड़ते हैं जैसे यदि ये न पकड़ेंगे तो वो भाग खड़ा होगा। कोई हाथ पकड़े है तो कोई कंधा तो कोई गर्दन। खैर कलमाडी के साथ फिर भी काफी सज्जनता का बर्ताव हुआ। जब से खेल की तैयारी शुरू हुई थी तब से सारे चैनल वाले खेल में भ्रष्टाचार पर अलख जगाए हुए थे। फिर खेल हो गए तो खेल की तारीफ करना पड़ी। जब खेल खत्म हो गए तो फिर वापस राग कलमाडी गाया जाने लगा। उसके बावजूद कलमाडी पर कोई कार्यवाही नहीं हुई। मीडिया काफी निराश था। मीडिया को आदत पड़ चुकी है। जिसे वो चोर कह दे उसे सजा होना ही चाहिए। इसी साध्य का दूसरा चरण है कि जो सरकार में है या जो किसी काम की जिम्मेदारी सम्हाल रहा है उसे चोर कहा जाए और दर्शक को समझाया जाए कि देखो ये सब चोर हैं बस हम भर साहूकार हैं। सरकार को यह प्रयोग करके देख लेना चाहिए कि एक एक दिन के लिए इन्हें किसी काम की जिम्मेदारी सौंप दी जाए और कहा जाए कि आज शाम को तुमसे हम लोग सीखेंगे कि काम कैसे करना चाहिए। ये चैनल वाले हर काम के विशेषज्ञ हैं। तब पता चल पायेगा कि ये 20 25 साल के छोकरे कितने पानी में हैं। इनकी मजबूरी ये है कि इन्हें सनसनी चाहिए। इन्हें पूरे समय हत्या, बलात्कार, घूस, भ्रष्टाचार, स्टिंग आपरेशन जैसी चीजों का वियाग्रा चाहिए। इसके बिना इनका चैनल नकारा हो जाएगा। इसीलिए कोई बहुत सीधी बात कहता है तो ये उसे उलट पलट कर तिरछी बना देते हैं। जब कोई इनके मूर्खतापूर्ण प्रश्न पर इन्हें डपट देता है तो ये चीखते हैं कि हमारे सवालों से ये बौखला गये। शीला दीक्षित दो बार चुनाव जीत चुकी हैं। दिल्ली बी जे पी का गढ़ रहा है। पाकिस्तान से आए हिन्दू व्यापारियों का गढ़। पर शीला दीक्षित यहां लगातार सरकार चला रही हैं। इसीलिए चैनलों की आंख की किरकिरी हैं। इनके हर बयान को तोड़ मरोड़ कर पेश किया जाता है। अभी खेलों के मामले में भी इन चैनलों का अभियान यही है कि शीला दीक्षित कहीं तो फंस जाएं। एक महिला दिल्ली जैसी राजधानी में सफलतापूर्वक सरकार चला रही है तो उसका साथ देने के बजाए उसी के खिलाफ अभियान चलाए जा रहे हैं।
दरअसल शिकायत इस बात की है कि जनता को समाचार मिलने चाहिए। उसका विश्लेषण जनता स्वयं करेगी। यदि आपको यह लगता है कि आपको ही विश्लेषण ही करना है तो उसके लिए अलग से प्रोग्राम बनाएं मगर समाचार तो बिना लागलपेट के दिखाएं। मीडिया जनशिक्षण का माध्यम है। जनता को मीडिया के माध्यम से सचाई पता चलना चाहिए। मगर................
तो एंकर और एंकरनियां बहुत ही उत्तेजित हैं। सफेद बाल वाले आशुतोष जी तो कुर्सी से उछल उछल पड़ रहे हैं। कलमाडी को हमने गिरफ्तार करवाया। हम न होते तो अंदर न हो पाते। दूसरे चैनल वाले विद्वान एंकर तो एक छड़ी लेकर केक काटकाटकर समझाने चले थे कि अठारह हजार करोड़ रूपये कैसे खर्च हुए पर कुल दो हजार करोड़ रूपये का हिसाब दे पाये। बाकी बता भी नहीं पाये कि कहां खर्च हुआ। कोई ये समझाने को खाली नहीं है कि काम होगा तो खर्च होगा। बड़ा काम होगा तो बड़ा खर्च होगा। कोई काम होगा तो उसका ठेका होगा। कोई ठेका लेगा और कोई न कोई किसी न किसी को ठेका देगा। यही प्रक्रिया है चाहे कोई भी पार्टी सत्ता में हो। मगर एंकरों को इससे क्या। यदि इतने साधु तरीके से समझाने लगेंगे तो इनका चैनल कौन देखेगा। इसीलिए सबको चोर कहो। एंकरों की शिकायत ये थी कि हमारे कहने के बावजूद कलमाडी को इतने दिन बाद क्यों गिरफ्तार किया गया। जब बैलगाड़ी चलती है तो बैलगाड़ी वाला अपना कुत्ता भी साथ रख लेता है। ये कुत्ता बैलगाड़ी के नीचे नीचे चलता है। बीच बीच में भांेक लेता है। कुछ देर तक चलने के बाद उसे ये गुमान हो जाता है कि बैलगाड़ी वही खींच रहा है। बैल साले हरामखोर हैं। कोई काम नहीं करते। मैं अकेला बिचारा भोंकता भी हूं और गाड़ी भी खींचता हूं।
एंकरों को एक राग और है कि वो देश की आवाज हैं। जब दिल्ली में लाखांे मेहनतकश मार्च करते हैं तो ये चैनलों के लिए कोई खबर नहीं होती। मगर राखी सावंत इनके लिए देश हो जाती है। उस पर घंटो खर्च हो जाते हैं। सैकड़ों किलोमीटर दूर किसी खेत में किसी कारखाने में कोई मेहनतकश देश के लिए कुछ गढ़ रहा है। समाचार वहां बन रहा है। बशर्ते कि आपकी आंखे और कान वहां तक पंहुचें। ..............................................................सुखनवर

अंतिम राजा

देश की कांग्रेस पार्टी में कई ऐसे महान नेता हुए हैं जो अपने पद पर अंतिम राजा साबित हुए। जब तक इन्होंने राज किया तब तक किसी को बढ़ने न दिया। देश में एक ऐसे प्रधानमंत्री हुए जिन्हें पी वी नरसिंहाराव के नाम से जाना गया। इन महाशय ने न केवल अपनी देखरेख में बावरी मस्जिद गिराई बल्कि ऐसी सरकार चलाई कि इनके बाद पूरी कांग्रेस पार्टी को विपक्ष में बैठना पड़ गया। या तो हम रहेंगे या फिर कोई नहीं रहेगा। ये इतना प्रभावकारी सिद्धांत साबित हुआ कि कई लोग जो प्रधानमंत्री बन सकते थे उनकी उम्मीदों पर पानी फिर गया। अंतिम राजा ने पूरी व्यवस्था कर दी थी कि उनकी पार्टी चुनाव हार जाए। इसीलिए जो विपक्षी ये समझते हैं कि वो चुनाव जीते हैं वो गलत हैं दरअसल वो चुनाव नहीं जीते हैं वरन् नरसिंहाराव चुनाव हारे हैं। यही स्थिति मध्यप्रदेश में दिग्विजय सिंह की रही। ये नौ साल मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री रहे। पहले पांच साल के बाद जब चुनाव हुए तो सभी मान रहे थे कि कांग्र्रेस चुनाव हार जाएगी मगर जीत गई। जीतने वाले खुद आश्चर्य में पड़ गये कि हम कैसे जीत गये। हम तो अपने आपको हारा हुआ मान रहे थे। इसके बाद दिग्विजय सिंह ने पीछे मुड़कर नहीं देखा। उनको मालूम था कि यदि पीछे मुड़ कर देखेंगे तो आगे नहीं बढ़ पायेंगे। अगले पांच साल तक मध्यप्रदेश की जनता को दिग्विजय सिंह को जिताने की सजा मिली। इसी बीच दिग्विजय सिंह को ज्ञान प्राप्त हो गया। उन को समझ में आ गया कि यदि बिना कुछ काम किये हम चुनाव जीत जाते हैं तो इसका मतलब चुनाव जीतने के लिए काम जरूरी नहीं है। काम तो होते रहते हैं असल चीज है दाम, जो यदि पास में हों तो चुनाव जीतने से लेकर मैच तक सभी कुछ जीता जा सकता है। इसीलिए भरपूर दाम कमाए गए और जैसा कि तय था इस बार दिग्विजय सिंह हारे और बढ़िया हारे। इसीलिए यदि बी जे पी को ये लगता है कि उन्होंने चुनाव जीता है तो ये उनकी गलतफहमी है। दिग्विजय सिंह राजा हैं और उनका ये राजसी अंदाज हर जगह दिखाई देता है। आज यदि मध्यप्रदेश में बी जे पी सरकार चला रही है तो दिग्विजय सिंह की उदारता के कारण। न वे चुनाव हारते न मध्यप्रदेश में दूसरी सरकार आती। कांग्रेस की हार के पीछे एक कारण ये भी था कि दिग्विजय सिंह को बिना पीपल के झाड़ के नीचे बैठे ये ज्ञान प्राप्त हो गया था कि सरकार चलाना है तो अपना भला देखो। ये जीवन सुख से जीना है और उसके लिए पैसे कमाना है। चुनाव काम करके नहीं जीते जाते गणित करके जीते जाते हैं। दिग्विजय सिंह इंजीनियर आदमी हैं। गणित में अच्छे नंबर मिलते रहे होंगे। तो उनने गणित लगा लिया कि किस जाति के कितने लोग हैं। उनके वोट कैसे प्राप्त किए जाएं। मगर अंततः वही हुआ। दिग्विजय सिंह चुनाव हार गये।इसे कहते हैं दुनिया को समझना। उन्हें मालूम था कि जनता उनसे आजिज चुकी है। इसी बीच उनने बिना मांग के ये घोषणा की कि वो आगामी दस साल तक चुनाव नहीं लड़ेंगे। उन्हें मालूम था कि जो दशा उन्होंने 9 साल में की है उसके कारण आगामी दो चुनाव तक तो कांग्रेस सत्ता में नहीं आ सकती। सो उनने भी कह दिया कि हम दस साल तक चुनाव नहीं लड़ेंगे। बाकी लोग चुनाव लड़ें और हारें। हम न लड़ेंगे और न हारेंगे।
अब यही दिग्विजय सिंह जो मध्यप्रदेश में सरकार नहीं चला पाये कांग्रेस को पूरे देश में चलाने की जिम्मेदारी निभाने पर उतारू हैं। पूरे देश में अपना दायित्व निभा रहे हैं। आजकल अन्ना हजारे की मुहिम के खिलाफ मुहिम चला रहे हैं। उनका काम है दिनभर में कोई एक ऐसी बात बोल देना जिससे दिनभर मामला गर्म रहे। अब लोकपाल बिल की बात कम और दिग्विजय की बात ज्यादा चल रही है। वो हर नो बॉल खेल रहे हैं। विरोधी छक्के मार रहे हैं और खुश हैं कि वो बहुत अच्छा खेल रहे हैं।उनका काम असल मुद्दे से ध्यान हटाना था जो पूरा हो गया। अन्ना हजारे के प्रेशर कुकर की हवा निकल चुकी है। मुहिम का भट्टा बैठ चुका है। हो सकता है कि ये झगड़ा इतना बढ़े कि आसां हो जाए। केवल झगड़े होते रहें और असल मुद्दा दफ्न हो जाए। अब असल मुद्दा लोकपाल बिल नहीं है असल मुद्दा है बिल बनाने वाली कमेटी में कौन रहेगा। जो भी रहेगा उसके खिलाफ आरोप लगाए जाएंगे जिससे वो न रह पाये। इस तरह जब कमेटी ही नहीं रहेगी तो बिल कहां से बनेगा और जिम्मेदारी भी अन्ना हजारे की है कि वो भ्रष्टाचार हटाना चाहते हैं पर दो पाक साफ लोग नहीं बता पा रहे। ..........................................................सुखनवर

गुस्सा मोमबत्ती और मशालें

जंतर मंतर से चला आंदोलन छूमंतर हो गया। होना ही था। जब जे पी का आंदोलन चला तब देश में टी वी नहीं था। अब टी वी है। पहले जे पी थे अब अन्ना हजारे हैं। पहले इंदिरा गांधी थीं अब मनमोहन सिंह है। पहले भी अमेरिका था अब भी अमेरिका है। पहले भी भ्रष्टाचार था अब भी भ्रष्टाचार है। जे पी ने आंदोलन शुरू नहीं किया था। सबसे पहले गुजरात में छात्रों का एक आंदोलन शुरू हुआ था नवनिर्माण सेना के नाम से जिसने उस समय के मुख्यमंत्री चिमन भाई को घेरा था। चिमन भाई भ्रष्टाचार के प्रतीक बन गये थे। उस आंदोलन से प्रेरणा लेकर बिहार में पटना में छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ। जे पी उस समय पटना में रिटायर्ड जीवन गुजार रहे थे। जे पी सन् 1942 के हीरो थे। समाजवादी विचारों के थे। बुजुर्ग थे तो लोग इज्जत करते थे और उनके पुराने रिकार्ड को याद करते थे। नेहरू के विराट व्यक्तित्व के सामने बड़े बड़े बौने हो जाते थे। जय प्रकाश जी भी उनसे पीड़ित थे। इसीलिए अपने सक्रिय दिनांे में ही रिटायर हो गये। जब पटना में छात्र आंदोलन शुरू हुआ तो कमान समाजवादी युवजनों के हाथ में थी। वो जाकर जयप्रकाश को घर से उठा लाये। जयप्रकाश जी के पास आशीर्वाद देने के अलावा कुछ था नहीं। जब आंदोलन फैलने लगा तो उसके अंदर इंदिरा गंाधी के विरोध की गुंजाइश नजर आई। इंदिरा गंाधी की राजनीति की खासियत ये थी कि जब उन पर हमला होता था तो वो वामपंथ की ओर झुकती थीं। अमेरिका को यह बात क्योंकर पसंद होती। इसीलिए उनके खिलाफ चलते आंदोलन को अमेरिका का आशीर्वाद मिलने लगा। परिणामस्वरूप कुछ ही दिनों में तत्कालीन जनसंघ और आर एस एस उसमें शामिल हो गए। समाजवादियों को कभी फासिस्टोें से परहेज नहीं रहा है। पूरी दुनिया में जब भी मौका आया तो समाजवादी दक्षिणपंथ के साथ नजर आए। हिटलर मुसोलिनी के जमाने से लेकर आज तक। आज भी शरद यादव भाजपा के साथ हैं और समाजवादी भी हैं। नितीश कुमार भाजपा के साथ सरकार चला रहे हैं और नरेन्द्र मोदी को गाली भी देते हैं। यह खोज का विषय है कि समाजवादियों या लोहियावादियों ने सत्ता में आने पर कौन सा ऐसा काम किया जिससे उनका समाजवादित्व दृष्टिगोचर हो। छात्रों के आंदोलन को आशीर्वाद देने का मौका मिलने से जे पी अति प्रसन्न भये और वो सब कुछ बोलने लगे जिससे आंदोलन को बढ़़े और इंदिरा सरकार मुसीबत में आ जाए। सन् 1971 में बंगला देश की विजय के बाद से इंदिरा जी का भी आत्मविश्वास चरम पर था इसीलिए उस समय देश में मंहगाई बेरोजगारी सभी कुछ आसमान छू रहा था और कोई सुनवाई नहीं थी। कांग्रेस के अंदर कोई चंू नहीं कर सकता था। सचाई भी नहीं बता सकता था। तत्कालीन रेलमंत्री ललितनारायण मिश्र की बिहार में हत्या हो गई। स्थितियां अराजक होती गईं। छात्रों का अंादोलन जनता का आंदोलन बन कर पूरे देश में रंग लाने लगा। इसी बीच जार्ज फर्नाडिज ने रेल हड़ताल का आव्हान किया। सरकार ने रेल हड़ताल को रोका। रेल हड़ताल तो असफल हो गई लेकिन जार्ज फर्नांडिज पूरे देश में रेलकर्मचारियांे पर इंदिरा सरकार के जुल्म की कहानियां सुना सुनाकर माहौल बनाते रहे। तीन तीन घंटे उनका भाषण चलता जिसमें जुल्म का आखांे देखा हाल बताया जाता। जनता सुनने को तैयार थी और समाजवादी अपने जोरदार भाषण के लिए ही जाने जाते हैं। कवि सम्मेलन के समान रात रात भर भाषण चलते जिसमें जनता को भावुक कर कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित किया जाता। जे पी नाम के लिए सामने थे। कमान जनसंघ और समाजवादियांे ने सम्हाल ली थी। इसी बीच जबलपुर के सांसद सेठ गोविन्ददास की मृत्यु के कारण उपचुनाव हुआ जिसमें शरद यादव को विरोध पक्ष का साझा उम्मीदवार बनाया गया। वो जीते। कहा गया कि साझा विरोध का प्रयोग सफल रहा।
जनभावनाओं को पूरी उंचाई तक भड़काया जा चुका था। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का नारा बुलंद था कि इंदिरा गांधी ने पूरी दुनिया को चौंका दिया। 26 जून 1975 की रात इमरजैंसी लगाकर पूरी अराजक स्थितियों पर रोक लगा दी। ये और बात है कि इमरजैंसी ने कुछ समय बाद जो दमघोंटू और लोकतंत्र विरोधी माहौल पैदा किया उसका परिणाम इंदिरा जी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा।
अन्ना हजारे का पूरा अभियान मीडिया और एन जी ओ संचालित था। भ्रष्टाचार से जनता त्राहि त्राहि कर रही है। पर जनता और सत्ता के बीच में इतनी दूरी बढ़ चुकी है कि जनता केवल त्राहि त्राहि ही कर सकती है। आज जिस सनसनाते आंदोलन की जरूरत है वो कैसे पैदा हो सकता है। जो पापी न हो वो पहला पत्थर मारे। इसीलिए अन्ना हजारे को आगे किया गया। पर उनके पीछे कौन थे ? भाजपा ने काफी झिझक के साथ धीरे धीरे कदम बढ़ाये पर आर एस एस को मंच पर पूरी छूट थी इसीलिए वो निश्ंिचत थे। जो मीडिया बिना पैसा खाए कोई समाचार नहीं दिखाता वो क्रांतिकारी बना अन्ना हजारे के साथ खड़ा था। जब दिल्ली में लाखों मजदूर अपनी मांगों के लिए उतरते हैं तब इस मीडिया के पास दिखाने के लिए एक सेकेण्ड का फुटेज नहीं रहता वही मीडिया कैमरे को सीमित कर कर के कुछ लोगों को लाखों की भीड़ बताता रहा। देश में कमरों और सड़कों पर बैठकर कुछ ईमानदार लोगों ने धरना दिया। मगर इन सबके उपर बैठे अमेरिका को मनमोहन सिंह की सरकार से कोई शिकायत नहीं है। देश के पूंजीपतियों और करोड़पतियों को कोई शिकायत नहीं है। इसीलिए ये आंदोलन फुस्स होना था। फुस्सा हुआ। आजकल जहां लोग गुस्से के मारे मोमबत्ती लेकर चल पड़ें तो समझ लेना चाहिए कि गुस्से से मशालें जलाने वाले अब नहीं हैं। मोमबत्ती जलाओ और रोओ और अंग्रेजी बोलो। ये वो भारत तो नहीं जिसने अंग्रेजों को भगाया था। .........................................सुखनवर

चुनाव आयोग का ब्रांड एम्बैसेडर

आजकल हर किसी को ब्रांड एम्बेसेडर की जरूरत पड़ रही है। साबुन तेल शैम्पू वालों का समझ मंे आता है कि उनका कोई ब्रांड है इसीलिए उनको एक नामी गिरामी चेहरा चाहिए जिसे वे बेच सकें और उसके साथ अपना साबुन तेल शैम्पू आदि बेच सकें। धंधे का मामला है। आदमी बेचने और मुनाफा कमाने के लिए कुछ भी कर सकता है। एक मसाले की कंपनी ने अपने दादा जी को ही अपना सामान बेचने के लिए मॉडल बना लिया है। कुछ दिन तक कोफ्त होती थी अब वही स्थापित हो गए हैं। पर क्या चुनाव आयोग कोई गरम मसाला या साबुन या टूथपेस्ट है ? चुनाव आयोग को क्या बेचना है कि वो बंगाल में सौरव गांगुली को ब्रांड एम्बैसेडर बना बैठा है। अब क्या सौरव गांगुली बंगाल में गली गली घूम घूम कर प्रचार करेंगे कि आइये चुनाव आयोग द्वारा आयोजित चुनावों में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लीजिए। नक्कालों से सावधान। केवल चुनाव आयोग द्वारा आयोजित चुनाव ही असली हैं। हमारे द्वारा अधिकृत चुनाव केन्द्रों में जाकर ही मत डालें। अपने मत की कीमत समझें। बहकावे में आकर कहीं और वोट न डाल दें। अपना पैसा और वक्त बर्बाद न करें। जब यह बात सौरव गांगुली कहेंगे तो लोग मानने के लिए विवश हो जायेंगे। अभी अभी क्र्रिकेट की दुनिया में बेइज्जत होने के कारण काफी खाली हैं। जब उन्हें क्र्रिकेट से हकाला जा रहा था तो वामपंथियों ने ऐसा माहौल बनाया कि सौरव को बंगाली होने के कारण हकाला गया है। इसीलिए क्रिकेट से सौरव का हकाला जाना बंगालियों के बीच मुद्दा बन गया। अभी सौरव को चुनाव आयोग ने ब्रांड एम्बैसेडर बनाया तो तृणमूल कांग्रेस और ममता बैनर्जी ने आपत्ति दर्ज कर दी। ये तो वामपंथियों से मिला हुआ है। इसे क्यों बनाया गया ? इससे वामपंथियों को फायदा होगा। उधर सौरव गांगुली नई नौकरी पाकर इतने गदगद थे कि तुरंत सफाई दे दी कि मेरा किसी राजनीतिक दल से कोई संबंध नहीं है। मैं किसी का प्रचार नहीं करूंगा।
अभी कुछ दिन पहले अमिताभ बच्चन गुजरात के ब्रांड एम्बैसेडर बन गये। अभिताभ जी की एक खासियत है कि जहां भी उन्हें पैसा मिलता है वहां वो कुछ नहीं देखते। पैसे के बदले वो हरकुछ के लिए तैयार हो सकते हैं। पहले जब गोविन्दा ने नवरत्न तेल का विज्ञापन किया तो उसकी बहुत आलोचना हुई। फिर जब इसे अमिताभ बच्चन करने लगे तो सब चुप हो गये। अमिताभ बच्चन ने भी वही कहा था जो सौरव ने कहा है कि मेरी इस नियुक्ति का राजनीति से कोई संबंध नहीं है। गुजरात मेरे देश का एक प्रदेश है उसकी भलाई करना देश की भलाई करना है। अमिताभ को मोदी जी और उनके दंगा आयोजन की क्षमता से कोई बुराई नहीं है। आजकल तो हर धंधे वाले को मोदी जी आदर्श लग रहे हैं। धंधे करने की निर्बाध गारंटी दे रहे हैं। कुछ भी करो। हम हर रोकने वाले के हाथ पैर तोड़ डालेंगे। हमारे प्रदेश में कोई नियम कानून नहीं चलेगा। हम जो चाहेंगे वो होगा। यही तो हिटलर भी कहता था। अमिताभ जी चाहे जब बाल ठाकरे से भी मिल आते हैं। ये सब गैर राजनैतिक है। अभी भी मुलायम सिंह और अमर सिंह सबको एक साथ साध रहे हैं। ये मुलायम सिंह बहुत अद्भुत राजनीतिज्ञ हैं। ये लाल टोपी लगाते हैं और अपने को लोहिया जी का चेला कहते हैं। इस जीवन में पूरे राजनैतिक जीवन में इन्होंने कौन सा ऐसा काम किया है जिससे इन्हें लोहिया जी का चेला कहा जा सके ? इनकी पार्टी का कोई राजनीतिक कार्यक्रम नहीं है। ये इसीलिए हैं कि क्योंकि कोई दूसरा नहीं है। इनके दरवाजे हर किसी के लिए खुले हैं।
आजकल जब तब किसी के द्वारा किसी को ब्रांड एम्बैसेडर बनाने के समाचार आते रहते हैं। चड्डी बनियान तेल साबुन टूथपेस्ट कपड़े लत्ते जूते हर चीज को बेचने के लिए ब्रांड एम्बैसेडर की जरूरत आ पड़ी है। जिन लोगों ने फिल्म आदि में नाम कमा लिया है उनका नाम और चेहरा बिकाउ है। उसे खरीदकर तत्काल सामान बेचने के काम पर लगा दिया जाता है। व्यापारी को अपना सामान बेचने के लिये सबकुछ करना पड़ता है। प्रसिद्धि पाये लोग अपनी प्रसिद्धि को तत्काल भुनाने के लिए बिकने के लिये तत्पर रहते हैं। इससे पहले कि दाम घट जाएं जल्दी जल्दी बिक जाओ। पर चुनाव आयोग किस व्यापारी का सामान है जिसे जनता के बीच बेचना है। ये क्या बेचेंगे? विश्वसनीयता ? ....................................................सुखनवर