Monday, May 13, 2013
Tuesday, May 7, 2013
जांच और निष्कर्ष
जांच जांच होती है। और जब भी जुर्म होता है तो उसकी जांच होती है। जांच के लिए जुर्म का होना जरूरी है। इसमें कोई छूट नहीं दी जा सकती। हां यदि जांच करने - करवाने की विकट इच्छा हो और जुर्म न हो तो प्राकृतिक न्याय यही कहता है कि जुर्म करवा दिया जाए। इस तरह के प्रायोजित जुर्म में बहुत सफाई रहती है और मामला एकदम चुस्त बनता है। जांच में कोई नुक्स नहीं निकलता और न्याय एकदम पुख्ता और दो टूक होता है। और यही लोकतंत्र या जो भी तंत्र देश में मौजूद हो उसकी सफलता और शुचिता को बनाए रखता है। आखिर अपराधी को सजा हो ये कौन नहीं चाहता। यदि अपराधी जुर्म से पहले ही तय हो जाए तो बहुत सुविधा हो जाती है। न्याय पुखता, त्वरित और दोषमुक्त होता है। अपराधी को भी लगता है कि हां वो अपराधी है। जब इतने बड़े बड़े लोग कह रहे हैं तो उसने जुर्म किया ही होगा।
जांच के लिए जांच की मांग बहुत जरूरी है। यदि मांग न की जाए और जांच हो जाए तो ऐसा लगता है कि चोरी की जा रही है। ऐसे मौके वैसे कभी आते नहीं हैं जब बिना मांग किए जांच हो जाए। मजा भी तब आता है जब कुछ ना नुकुर हो। कुछ हुज्जत हो। कुछ मान मनौव्वल हो। जांच बहुत मुलायम भी हो सकती है और बहुत कड़ी जांच भी की जा सकती है। जांच के बारे में ये खास तौर पर देखा गया है कि यह बहुत लंबी चलती है। कभी कभी तो इतनी लंबी चलती है कि लोग भूल जाते हैं कि जांच शुरू भी हुई थी। जांच करने वाले भी भूल जाते हैं कि वो जांच कर रहे थे। वो कुछ नई जांच में उलझ चुके होते हैं। रोज जुर्म होते हैं रोज जांच होती है।
अब न्याय बहुत सख्त हो चुका है। यूं ही टालू जांच कर मामला दबाया नहीं जा सकता। अदालत जांच से संतुष्ट नहीं होती तो फिर जांच करने का आदेश दे सकती है। ये भी हो सकता है कि वो जांच करने वाले से संतुष्ट न हो। तब नई एजेंसी को जांच सौंपी जा सकती है। वो भी जांच करके अपनी रिपोर्ट दे सकती है। हो सकता है कि उससे न्याय संतुष्ट हो जाए। हो सकता है न्याय संतुष्ट न हो। या आंशिक संतुष्ट हो। तब फिर यही प्रक्रिया दोहराई जा सकती है। जल्दी कोई है नहीं। ये भी जरूरी नहीं है कि जांच से जांच करवाने वाला ही असंतुष्ट हो। कोई भी असंतुष्ट हो सकता है। यहां तक कि वो पार्टी भी असंतुष्ट हो सकती है जिसका जुर्म, जांच, वादी, प्रतिवादी, किसी से कोई वास्ता न हो। लोकतंत्र है। सबको अपनी तरह से असंतुष्ट होने का हक है।
जांच से पहले जांच का निष्कर्ष तय हो जाता है। जब तक जांच के निष्कर्ष का मिलान इस पूर्व निर्धारित निष्कर्ष से नहीं हो जाता तब तक जांच होती जाती है। यह निष्कर्ष हर किसी का अलग अलग हो सकता है। इसीलिए जांच रिपोर्ट पंहुचते ही पुनः जांच या नई एजेन्सी से जांच की मांग उठ खड़ी होती है। कुछ लोग यह मांग भी कर सकते हैं कि अंतिम जांच से पहले जांच करने वालों की जांच क्यों न की जाए।
न्याय को गुस्सा भी आ सकता है। जांच के निष्कर्ष में यदि कोई निर्दोष पाया गया और उसे छोड़ दिया गया तो भी न्याय फिरसे उसी एजेन्सी को जांच कर कह सकती है फिर से जांच करो और इसे अपराधी बनाओ। अंदर करवाओ। जांच एजेन्सी बेचारी है। वो हुक्म की गुलाम है। उसे नौकरी करना है। वो फिर जांच करती है। और रिपोर्ट पेश कर देती है। सरकार पिछले बार भी सबूत नहीं थे। इस बार भी सबूत नहीं हैं। पर आदेशानुसार पुनः जांच की गई और आदेशानुसार व्यक्तिविशेष को अपराधी बना दिया गया है। हुजुर अब देखें । कुछ जम रहा है या नहीं। न्याय का अहम तुष्ट हो जाता है। वो रिलेक्स होकर पुनः न्याय करने लगता है।
जांच के दौरान सत्ता में भी परिवर्तन होते रहते हैं। इसका सीधा असर मामले पर पड़ता है। कभी कभी फरियादी अपराधी बना दिया जाता है और अपराधी बेचारा बन जाता है। पर जांच निष्पक्ष होती है क्योंकि एजेन्सी का काम निस्पृह रूप अनवरत जांच करना है। वो अपना काम लगातार करती रहती है। जांच की रिपोर्ट आती रहती हैं। लंबी रिपोर्ट की छोटी समीक्षा रिपोर्ट बनती है। फिर समीक्षा रिपोर्ट की बिन्दुवार रिपोर्ट बनती है। फिर निष्कर्ष का मौका आता है। निष्कर्ष निकालने वाला दुविधा में है। न्याय न जाने मन में क्या सोच कर बैठा है। कहीं ऐसा न हो कि निष्कर्ष न्याय को पसंद न आए और वो सबकुछ बदल डाले। ऐसे मौके पर जो कि आते ही रहते हैं निष्कर्षदाता का शब्द चातुर्य काम आता है। वो निष्कर्ष लिख देता है और पता भी नहीं चलता कि उसने निष्कर्ष लिख दिया है। पढ़ने वाला चकित है। क्या बात है। निष्कर्ष है भी और नहीं भी। सभी संतुष्ट हैं। यहां तक कि अपराधी को भी लगने लगता है कि हां ठीक ही तो कहा है कि शायद यह अपराधी होता यदि इसके खिलाफ वो सबूत होते जो अब तक खोजे जाने हैं और कहीं गहरे छुपे हैं पर परिस्थितिजन्य साक्ष्य अपराधी के अपराधी होने की पुष्टि करता दिखाई देता है हालांकि निस्संदेह वह संदेह का लाभ पाने का अधिकारी प्रतीत होता है।
न्याय भी इंसान है। वो भी अखबार पढ़ता है। टी वी देखता है। वो भी भावनाओं में बहता है। उसमें भी राष्ट्रीय भावनाएं जोर मारती हैं। वो भी भ्रष्टाचार का विरोधी है। इस चक्कर में कभी कभी भावनाओं की ऐसी बाढ़ आती है अन्याय और न्याय के बीच दूरी खत्म हो जाती है। कानून की मोटी किताबें और वकीलों के महीन तर्क रखे रह जाते हैं और भावनाएं बह निकलती हैं। भावनाओं की बाढ़ में तर्क और नियम बह जाते है।
हम खुश रहते हैं। क्योंकि हमारी जांच नहीं हो रही है। हम अपराधी नहीं हैं। पर जो अपराधी है क्या वो सचमुच अपराधी है?
07 05 2013
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