Thursday, November 26, 2015

राजनीति की शिक्षा


हमारे बाप रहे चपरासी के लड़का। उस समय कॉलेज यूनिवर्सिटी में पढाई नहीं होती थी। राजनीति होती थी। तो वे रहे छात्र नेता। इसलिए पढ लिख गये। उसके बाद से वे आगे बढ़ते गए। हम लोग भी पैदा हुए और मां बाप को देख देख कर आगे बढते गए। उसी समय हमें समझ आ गया कि पढना लिखना इस दुनिया में बिलकुल जरूरी नहीं है। आप दुनिया में क्या करंेगे ये भगवान तै कर देता है। वो आपके मां बाप तय कर देता है। आप दुनिया में आ जाते हैं। उसके बाद आपको कुछ करना नहीं है। बस बडे होते जाना है। उसमें आपको कुछ करना नहीं है। रोज सोना और जागना है। खाना पीना करना है। बस आप बड़े हो जाएंगे। आपके मां बाप आपके लिए करते जाएंगे।
राजनीति में घर का आदमी बहुत जरूरी होता है। वैसे तो घर का आदमी हर जगह जरूरी होता है। धंधे में नहीं होता है ? कभी देखें हैं कि कोई व्यापारी,  कोई कारखाने वाले ने अपने लड़के की जगह किसी और के लडके को धंधे का मालिक बना दिया ? नालायक से नालायक लडका हो तो भी मालिक वहीं बनेगा। हमारे बाप को जेल भेज दिए थे। तो क्या हुआ ? हमारी माताजी खाना बनाते बनाते घर से निकलीं और बिहार की मुख्यमंत्री बन गईं। क्या पार्टी में लोगों की कमी थी क्या ? मगर घर का आदमी जरूरी होता है। आज किसी दूसरे को मुख्यमंत्री बनाए होते तो हम पटना की सडकों पर भीख मांग रहे होते।
राजनीति में जब हम किसी के सगे नहीं हैं तो कोई हमारा सगा क्यों होगा भाई। वैसे राजनीति में सगा होना भी नहीं चाहिए। राजनीति में यदि आप योग्य न हुए और अचानक किसी जुगाड़ से या किस्मत से कुछ बन भी गए न तो दो चार साल में सड़क पर आ जाओगे। इसलिए लोग अपनी औकात देख लेते हैं और पार्टी में अपनी जगह स्वीकार कर लेते हैं। जिन्दाबाद जिन्दाबाद करते रहते हैं और कहते रहते हैं कि हम पार्टी के वफादार सिपाही हैं। न तो वे वफादार होते हैं और न सिपाही होते हैं। बस वो समझदार होते हैं। अपनी औकात समझ लेते हैं। और चुप रहते हैं। अपने हिस्से का खाते हैं और खुश रहते हैं। राजनीति तो दरअसल ये है।
हमारे मामाजी साधू जी, उनका नाम सुना आपने ? उनको पिताजी ने घर का आदमी मानकर बढाना शुरू किया सोचा माता जी भी खुश रहेंगी कि भाई को बढ़ा रहे हैं। तो उनके पर निकलने लगे। उनको लगा कि वो सच में राजनीतिज्ञ हो गए। अरे भई केवल गुंडई राजनीति नहीं है। उनने तत्काल पिताजी पल्ला छोड़ा, दुश्मनों से मिल गए। अब कहां हैं? न दुश्मन बचे न मामाजी।
हमें पिताजी ने बता दिया है कि बस अपनी जगह बैठो। काम को समझो। ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं। हमारे यहंा बहुत से काबिल अधिकारी होते हैं। वो बड़ी बड़ी परीक्षा पास करके आते हैं। उनके पास बहुत दिमाग होता है। वो काम करते जाते हैं। हमें उनको काम करने देना है। वो अपना कमाते हैं हम अपना कमाते हैं। पैसा कमाने की चिन्ता युवावस्था में करना नहीं चाहिए। वो अपने आप आता है। बस एक बार आपकी बदनामी भर हो जाए कि आप पैसा खाते हैं। उसके बाद किसी बात की कोई सीमा नहीं।
लोग कहते हैं कि हमें शर्म नहीं आती। भला ये भी कोई बात हुई। मिनिस्टर बनने में क्या शर्म। हमारे पिताजी को नहीं आई जब उनने हमारी मां को मुख्यमंत्री बना दिया। हमें क्यों आएगी ? और एक बात तो बताइये कि हमारे पिताजी ने पूरे बिहार को रौंद डाला, बढ़िया चुनाव जिताया। अब मिनिस्टर बनाने की बारी आई तो दूसरों को बनाएंगे। और घर के लड़के घर में घुंइयां छीलेंगे। जितने लोग हमारी पार्टी के कोटे से मंत्री बनना थे सो बने। उसी में हम भी बन गए। इसमें शर्म की क्या बात। हम लोग कोई विदेशी लोकतंत्र वाले थोड़े ही हैं कि मिनिस्टर बनना जिम्मेदारी का काम होता है। हमारे यहां मिनिस्टर बनने का मतलब है एक बड़ा बंगला, कुछ लाल बत्ती वाली कारें, कुछ कारिंदे, बस। प्रजा का काम करवाना। उनसे पैसे लेना। उन्हीं पैसों को वापस उन्हीं पर खर्च करना। हां दो चार लोग रखे जाते हैं जो पढ़े लिखे होते हैं। उनसे वैसा काम लिया जाता है। आजकल इन पढे़ लिखे लोगों को पार्टी प्रवक्ता बना देते हैं। वो टी वी में बैठकर हमारी तरफ से बहस करते हैं। तो बड़ा कौन हुआ पढ़ा लिखा कि अनपढ़।
तो अब हम चुनाव जीत चुके हैं। मिनिस्टर बन चुके हैं। अब आगे का काम संतोषी माता संवारे। बाकी पिताजी और नितिश जी सम्हाल लेंगे।......................................सुखनवर


24 11 2015

Saturday, November 21, 2015

मार्गदर्शक मार्ग के दर्शक हो गए

अब आपको क्या बताएं पत्रकार जी। सुबह से तैयार होकर बैठ जाते हैं। नहा धोकर। इस बुढापे जब कल का ठिकाना नहीं है अभी दर्जी से नए कुर्ता धोती बंडी सिलवाए हैं। हम लोग समझाते हैं। भई हो गया। जितना मिलना था मिल गया। अब छोड़ो भी। नए लोग आगे आएंगे। आएंगे क्या आ चुके हैं। अब उनके दिन आएं हैं। सचाई को मान लो न दादा जी। मगर नहीं साहब सुबह से तैयार होकर बाहर कुर्सी लगाकर बैठे हैं। बार बार उठते हैं बाहर झांकते हैं। कोई आया क्या। हम पूछते हैं क्यों रास्ता देख रहे हो तो बोलते हैं हम मार्गदर्शक मंडल हैं। हमारे से मार्गदर्शन लेने नरेन्द्र आएगा, अरूण आएगा। राजनाथ आएगा। गडकरी आएगा। मगर कोई नहीं आता। अरे पत्रकार जी। ये मार्गदर्शक मंडल में हैं या मार्ग के दर्शक हैं। दिन भर रास्ता देखते रहते हैं। और तो और जोशी जी को चिढ़ाने  के लिए मैट्रिक फेल को शिक्षामंत्री बना दिया। विदेश मंत्री बिचारी आज तक विदेश जाने को तरस रही है। वकील साहब को वित्त मंत्री बना दिया।
महीनों गुजर गये हैं। कोई नहीं आया पर इनका दिल नहीं मानता। मानने कोे तैयार नहीं कि इनके दिन लद गए हैं। अरे भई आपको मौका मिला तो था। उस समय आपने अपने को भावी प्रधानमंत्री बनवा लिया था। आप समझे सब आपके कायल हो गए हैं। बाकी लोगों ने सोचा हम चुनाव तो जीतने वाले नहीं हैं काहे को बुढऊ से संबंध खराब करें। कह दिया हां आप ही हो हमारे प्रधानमंत्री। शान से चुनाव हारे। घर बैठ गए। मगर किस्मत तो देखो। पांच साल फिर निकल गए बुढऊ टंच हैं। फिर चुनाव आ गए। इस बार नरेन्द्र अड़ गए। बोले पिछले बार ये थे इस बार मैं रहूंगा। पहले घोषणा करो। नागपुर से ऑर्डर ले आए। चुनाव लड़ गए। अरे इनकी तो टिकिट के लाले पड़ गये थे। चुनाव के पहले ही मार्गदर्शक बनाए दे रहे थे। जैसे तैसे करके तो टिकटें मिलीं। हवा अच्छी बही। सब जीत गए। मगर हसरत तो दिल में ही रह गई। प्रधानमंत्री बनने की। रथ यात्रा निकाली। मस्जिद गिराई। अच्छा माहौल बना। आज भी लोग उन दिनों को याद करके सिहर उठते हैं। मगर जब चुनाव जीते अपनी सरकार बनी तो अटल जी ने एक बार न कहा कि सारी मेहनत इनकी है इन्हें बनाओ प्रधानमंत्री। बना दिया गृहमंत्री।
ले देके इस बार सरकार बनी तब तो हालात ही बेकाबू हैं। प्रधानमंत्री तो छोड़ो संसद सदस्य मान लें वोई बहुत है। ऐसी छीछालेदर इस बुढापे में किसी की न हो भाई। पेंशनर की भी ज्यादा इज्जत होती है भाई। कहते हैं, अब देखो आप लोग अपनी अपनी लठिया सम्हालो दादाजी लोग और एक कमरे में बैठो। हम लोग तुमसे सलाह लिया करेंगे। तुम लोग सोचते रहा करो कौन कौन सी सलाह देना है। अब वे तीनों चारों बिचारे सोच सोच के बैठे हैं कि येे सलाह देंगे वो सलाह देंगे मगर कोई आता ही नहीं। एक को तो देश में रहने की फुर्सत नहीं। दूसरे को चालें चलने से फुर्सत नहीं। एक दो बार सोचा कि नागपुर हेडक्वार्टर में शिकायत कर देंगे फिर देखते हैं कैसे नहीं आते ये जवान रस्ते में। मगर नागपुर से भी डाक आना बंद हो गई।
अब देखो बिहार के चुनाव थे। हम लोग से एक बार पूछ लेते तो क्या बिगड़ जाता। हम लोग की तो वोई हालत हो गई जो शाहजहां की आगरा के किले में थी। बस कमरे में बैठे रहो और ताजमहल तकते रहो। अब हम प्रधानमंत्री की कुर्सी तक रहे हैं। अरे क्या मालूम कब कौन सा चमत्कार हो जाए। कहो किसी को दया आ जाए। अरे दो चार दिनों के लिए ही बन जाएं प्रधानमंत्री। मगर चालाकी तो देखो। बिहार चुनाव में हम लोगों को दो कौड़ी को नई पूछो मगर हार गए (और भैया हार तो ऐसी बेहतरीन हुई है कि तबियत खुश हो गई ) तो कहने लगे कि हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। काए भैया हमारी काहे की जिम्मेदारी। एक सभा में तो लेके नहीं गए। हमारी तो छोड़ो जे दोनों गुजरातियों ने मिलकर बिहारियों को ही बिहार चुनाव से बाहर कर दिया। अब मान लो चुनाव जीत ही जाते तो क्या गुजरात से लाते बिहार का मुख्यमंत्री।
तो भैया ऐसा है कि सब ठीक है। सब जानते हैं। पुरानी कहावत है। गरीब की हाय नहीं लेना चाहिए। और हम तो उजागर कह रहे। हां हमारी हाय लगी और जब तक हम रहेंगे और लगेगी। अब जीत तो लो बेटा कोई चुनाव तुम। ..................सुखनवर

16 11 2015