Wednesday, July 29, 2020
ईश्वर की करूण पुकार - मैं मंदिर में नहीं रहता मुझे पूजने वहां मत जाना
मेरे लिए भव्य मंदिर बनने वाला है। उसके शिलान्यास के लिए कोई को आमंत्रित किया गया है। वो मेरे लिए अपने व्यस्त समय में से समय देंगे। धर्म के बहुत बड़े अध्येता और धर्मात्मा होंगे। वेद शास्त्रों के ज्ञाता। वो समय देने वाले हैं। वो जब समय दे देंगे तो शिलान्यास हो जाएगा। जिन लोगों ने मंदिर बनाने की जिम्मेदारी झपट ली है वो कह रहे हैं कि इस धरा पर केवल वही मंदिर के शिलान्यास के योग्य हैं। विडंबना ये है कि ये सब मेरे स्वघोषित भक्त हैं। इनके बिना मैं बहुत खतरे में था। ये मेरे ऐसे रक्षक हैं। इनके कारण मेरी इतनी बदनामी हो रही है। दूसरे देवता लोग मुझ पर हंसते हैं। कहते हैं कि ऐसे तुम्हारे भक्त हैं तो हम लोग बिना भक्तों के ही भले।
मुझे मंदिर बनाने वालों और मंदिर के पुजारियों योगियों से बहुत डर लगता है। मुझे डर इसलिए लगता है कि मैं इन सबकी नस नस जानता हूं। इनके करतूतें और कारनामे याद कर मैं नींद से उठ जाता हूं। सिहर उठता हूं। ठीक से सो नहीं पाता। ये रहे तो मनुष्य जाति खत्म हो जाएगी। भक्तों मैं मंदिर में नहीं रहता। इनके बनाये मंदिर में तो एक रात भी नहीं। मुझे पूजने वहां मत जाना।
मैंने धरती पर केवल एक जीव ऐसा बनाया जो सोच सकता है, बोल सकता है और अन्याय का विरोध कर सकता है। मगर इस जीव ने मुझे बहुत निराश किया है। इसने अपनी बोलने सोचने और विरोध करने की शक्ति कुटिलों के आगे समर्पित कर दी। अब ये जीव ऐसा हो गया है कि इसे जितना मारो, जितना अत्याचार करो, ये केवल जयजयकार ही करेगा। इसने मनुष्य जाति के गुणों का त्याग कर दिया है। कुत्ते का स्वामी भले ही चोर हो या साहूकार, कुत्ता हमेशा स्वामीभक्त बनाता रहता है।
सदियों से इन लोगों ने मेरे भक्तों को बहका कर समझा दिया है कि मैं मंदिर में रहता हूं। मुझे तो कहीं रहने की जरूरत ही नहीं पड़ती। घर मकान महल मंदिर कुछ भी नहीं चाहिए। मैं तो निराकार हूं। मैं तो परम ब्रह्म हूं। मैं तो कण कण में हूं। मैं तो हवा में भी हूं और पत्थर में भी हूं। मैं तो घर में भी हूं और बाहर भी। मैं तो खेतों में भी हूं। खलिहानों में भी हूं। झोपड़ी में भी हूं और महलों में भी हूं। और यह सृष्टि तो मेरी ही रचना है। (ये भी ये ही लोग बोलते हैं )
अच्छा प्रपंच फैलाया है। मेरा मंदिर बनाते हैं और मुझसे पूछते भी नहीं कि आप इसमें रहने के लिए तैयार हैं या नहीं। इसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है। मालूम नहीं किसके प्राणों की प्रतिष्ठा कर लेते हैं। न जाने किसके प्राण ले लेते हैं। मैं तो किसी भी मंदिर में नहीं रहता। मै तो वैसे भी बहुत कठोर हूं। यदि मैं पूजा करवाऊंगा तो हरेक से पूछूंगा कि अपने जीवन में कैसा व्यवहार करते हो। मेरे भक्त बनने की औकात है तुम्हारी। मंदिर में तो हत्यारा भी मेरी पूजा करके चला जाता है। हत्यारा भी आता है और मरने वाले के घर वाले भी। मैं दोनों का साथ कैसे दे सकता हूं। उस पर ये बदमाश कहते हैं कि सब भगवान की लीला है। अरे मेरी लीला काहे को है। हत्या तुम करो और लीला मेरी कहलाए। अदालत में प्रपंच करके तुम छूट जाओ और कहो भगवान सब देखता है।
एक तो शक्तिमान और सर्वशक्तिमान का प्रपंच अलग फैला रखा है। जो कुछ हो रहा है सब ईश्वर की इच्छा से हो रहा है। भगवान सर्वशक्तिमान है। अरे क्या खाक सर्वशक्तिमान है। भगवान सर्वशक्तिमान होता तो सारे नीचों का अब तक नाश हो चुका होता और भले लोग सुखी जीवन व्यतीत कर रहे होते। मगर भारतवर्ष में एक सर्वशक्तिमान का प्रादुर्भाव हो चुका है। एक सहायक सर्वशक्तिमान भी है। ये दोनों मिलकर इस भारत वर्ष में नियति नटी के कार्यकलाप चला रहे हैं। इनके कारण इस धरा में मेरा तो कोई काम ही नहीं बचा है।
इसीलिए मैं धरा को त्याग कर अंतरिक्ष में चक्कर लगा रहा हूं। किसी ऐसे ग्रह की खोज में हूं जहां किसी को पता न चले कि मैं सर्वशक्तिमान हूं। सोचा मंगल में जाकर बस जाऊं मगर पता चला है मनुष्य वहां पंहुचकर थाने और अदालतें खोलने की तैयारी कर रहा है। इसलिए मैंनेे इरादा बदल दिया है। ऐसा भी हो सकता हैं कि मैं किसी ग्रह में डेरा जमाऊं तब तक पता चले कि वहां तो पहले ही से सजे धजे सर्वशक्तिमान कैमरामैन के साथ बैठे हैं। मुझे पता चला है कि आजकल पृथ्वी के विभिन्न भू भागों में ऐसे ही सर्वशक्तिमानों का ही राज है। मुझसे तो ये भारत का सर्वशक्तिमान ही नहीं सम्हल रहा। बाकियों को क्या सम्हालूंगा। अब इस पृत्थी का भला मेरी ताकत से बाहर है। अब आप ही लोग सम्हालो। मैं तो किसी दूसरे ग्रह में जीवन ढूंढता हूं।
सुखनवर
28 07 2020
Saturday, July 11, 2020
राजनीति में प्रवेश
युवक : दादा, देश की सेवा करना है। उसके लिए दादा राजनीति में प्रवेश करना चाहता हूं।
दादा : तेरा बाप क्या करता है
युवक : भड़भूंजा है। चना मूंगफली बेचता है।
दादा : तो तू राजनीति में प्रवेश नहीं कर सकता। तुझ जैसे भड़भूंजों, बाबू किरानियों की क्या औकात की राजनीति में प्रवेश करें। ये राजघरानोें के बच्चों का काम है। उनका जंन्म धर्म संस्थापनाय होता है। तुम जैसे लोग क्या खा के राजनीति में प्रवेश करेंगे। अबे राजनीति आलरेडी तुम्हारे अंदर प्रवेश कर चुकी है।
युवक : दादा आप भी तो राजनीति के घराने से नहीं हो। आपका बाप भी तो गेहूं चावल की दलाली करता था। फिर आप कैसे राजनीति में कैसे आ गये।
दादा : देखो बेटा राजनीति और पत्रकारिता में कोई आदमी अपनी इच्छा से नहीं आता। बेरोजगारी से आता है। अपन ने पढ़ाई लिखाई की नहीं। किसी काम के थे नहीं। बाप की कमाई से पेट भर जाता था। दिनभर टिल्लेनवीसी करता था। तो एक दिन मोहल्ले के एम एल ए ने अपने साथ लटका लिया। उसे एक निठल्ले चेले की जरूरत थी और अपने को कोई काम नहीं था। वो दो चार दिन में हमें दो चार सौ रूपैया दे देता था। कपड़े सिलवा देता था। खाना खिला देता था। फिर उसने मेरे नाम पर ठेके लेना शुरू कर दिया। पैसा मिलने लगा। फिर हमने अपने नाम से ठेका लेना शुरू कर दिया। फिर हम ठेकेदार हो गये। पैसा हो गया। विधायक चुनाव हार गया तो हमने पार्टी बदली और जीते हुए विधायक के घर बैठने लगे। उसके चमचे हो गये।
युवक : ये तो हुई ठेकेदारी की बात। मगर आप तो पंहुचे हुए राजनीतिज्ञ हो। वो कैसे बन गए।
दादा : ये सब कुछ एक दो दिन में नहीं हो जाता। कठिन तपस्या करना होती है। ठेकेदारी हमारे देश में राजनीति की पाठशाला है। जो ठेकेदार बना वो दूसरे दिन राजनीति के गलियारों में घूमने लगता है। उसे बिल देना है। पेमेन्ट लेना है। अगला ठेका लेना है। दूसरों को ठेका नहीं लेने देना है। दूसरे ठेकेदार को पटकनी देना है। इसके लिए हमें कोई न कोई पार्टी में रहना पड़ता है। जो पार्टियां चुनाव लड़ती हैं उन पार्टियों को पैसा देना पड़ता है। हार जीत तो जनता के हाथ में है। उसके बाद तो एम एल ए हमारे हाथ में है। हमने चंदा दिया है। हमने उसका काम किया वो हमारा काम करता है।
युवक : मगर आप तो लगातार लोगों के लिए काम करते रहते हो ये तो जनसेवा ही है।
दादा : अरे सुनो यार ये कोई जनसेवा नहीं है। हमारे देश में कहीं कोई काम होता नहीं। आप टैक्स जमा करने जाओगे तो अगला टैक्स नहीं लेगा। आप इलाज कराने जाओगे तो डाक्टर इलाज नहीं करेगा। आप रिपोर्ट करने जाओगे तो थाने में रिपोर्ट नहीं लिखी जाएगी बल्कि आप साबुत थाने से बाहर निकल आओ तो बहुत बड़ी बात है। आप घूस देने जाओगे तो कोई लेगा नहीं। इसीलिए कोई आदमी कहीं जाता है तो पहले एक नेता को साथ लेकर जाता है। नेता काम करवा देता है। अपनी फीस ले लेता है। दूसरों की फीस दे देता है। हम भी यही करते हैं। हम काम करने वाले और करवाने वाले के बीच की कड़ी हैं।
युवक : मगर आपके पास केस आते कहां से हैं।
दादा : सकल पदारथ हैं जग माही। करमहीन नर पावत नाहीं। कुछ नहीं करना पड़ता है। बस दुकान खोलना पड़ती है। दुकान खोलेगे तो ग्राहक आयेंगे। ग्राहक आयेंगे तो दुकान चलेगी। अपन ने तो अब ये कर लिया है कि अपनी दुकान काफी फैला ली है। काफी पार्टनर रख लिये हैं। इस काम में अब काफी विस्तार हो गया है। राजनीति अब उतनी सीधी सादी रही नहीं जितनी गाँ धी जी के जमाने में थी। अब हम पंडे पुजारी गुंडे लठैत पुलिस सरकारी बाबू अफसर हर जात और हर पार्टी के नेता को साधे रखते हैं। इससे बड़े बड़े काम हो जाते हैं। तुम्हें एक राज की बात बताता हूं। यदि तुम जिंदगी भर अच्छे काम करोगे तो कोई तुम्हें दो कौड़ी में नहीं पूछेगा। मगर तुम अड़ी देते रहोगे तो तुम्हारी न्यूसेंस वेल्यू रहेगी। हर कोई सबसे पहले तुम्हें पूछेगा।
इसलिए बेटा राजनीति में प्रवेश की प्रतीक्षा मत करो। तुम जैसे अनपढों निठल्लों और मूर्खों के लिए ही राजनीति का मैदान बना है। खूब खेलो और लगातार बोलते रहो कि राजनीति बहुत गंदी जगह है। इसमें किसी भले आदमी की कोई जगह नहीं है। इससे हम लोग इस देश के पैसे के हरे भरे मैदान को अनंतकाल तक चरते रहेंगे। लोग हमें चोर बोलते रहेंगे। हमसे अपने काम कराते रहेंगे। और राजनीति से दूर रहेंगे। इसी में हमारी जीत है।
सुखनवर
11 07 2020
11 07 2020
Thursday, July 2, 2020
टाइगर जिन्दा है और चूहे खा रहा है।
ये उदारीकरण हमने शुरू नहीं किया। ये मनमोहन सिंह ने शुरू किया। ये उनका विचार था कि देश में व्यापार बढ़ना चाहिए। तो बढ़ गया। खूब आयात निर्यात हो रहा है। देखिये व्यापार में उन्नति के लिए क्या नहीं करना पड़ता। बकरीद के लिए बकरा कैसे तैयार किया जाता है ? बढिया खिलाते पिलाते हैं। वजन बढाते हैं। फिर कुर्बानी देते हैं। हमारा अपना मालिक है। लेन देन वो करता है। डील वो करता है। उसने बताया कि सौदा हो गया है। तुम लोगों को बेच दिया है। तो साहब हमारा निर्यात हो गया। ऐसा नहीं है। इस बार पूरा बाड़ा ही बेच दिया गया। बकरों का सरदार खुद भी हम लोगों के साथ आगे आगे चल रहा है। हमारी चमड़ी गोश्त हड्डी सब बिकी है। मंहगे दाम पर बिकी है। व्यापार का तो नियम है। खरीददार की कितनी गरज है इससे बकरे का दाम तय होता है। जब एक बार दिल्ली के खरीददार ने तय कर लिया कि ये बकरे और बकरे वाला हम हर कीमत पर खरीदेंगे तो फिर अच्छा दाम तो मिलना ही था।
देखिये ये जमीर वगैरह की बात न कीजै। काहे का जमीर। मालिक चुनाव लड़ाता है। तो हम लड़ते हैं। वो जिताता है तो जीतते हैं। वो पैसा लगाता है। हम तो बंधुआ मजदूर हैं। इसीलिए जो मालिक कहता है कि वो हम करते हैं। उसने बताया अच्छा दाम मिल रहा है। ऐसा मौका कम मिलता है। डील साॅलिड है। अजी नहीं हमें थोड़ी मालूम था कि क्या डील है। डील तो वही करते हैं। जब तिरंगे में थे तो भी उन्होंने ही डील की थी। हमें पता चला कि हम मिनिस्टर बन गये हैं। अरे हमारे महाराजा बहुत जोरदार आदमी हैं। नौजवान हैं। उन्हें अंग्रेजी आती है। बड़े घर के आदमी हैं। हवाई जहाज से चलते हैं। बड़े बड़े धंधे हैं। कितनी बातें तो हमें मालूम नहीं हैं। और साब हमें पता भी नहीं करना है। नौकर आदमी को मालिक के बारे में ज्यादा पता नहीं करना चाहिए। अरे उनने हमें बेचा है तो अपना नफा नुकसान देखकर ही बेचा होगा। इतने सालों से ये सुअरबाड़ा चला रहे हैं। उनके पहले उनके पिता जी चलाते थे। उसके पहले उनके। लंबा सिलसिला है। राजा महाराजाओं की बात हम आप क्या समझेंगे। वो कब किसके साथ हो जाएं कोई भरोसा नहीं। जब अंग्रेज थे तो उनके साथ थे। अब उनको लगा कि ज्यादा दिन सत्ता से अलग रहे तो धंधे पर खतरा है। कब कौन सा केस चल जाए। कब कौन सा छापा पड़ जाए। राजा लोगों की इज्जत अलग चीज होती है। सीधे दिल्ली में जाकर काली कार निकाली। नए मालिक के साथ समझौते पर दस्तखत किए। बिक गये। वो बिके तो हम बिक गये।
पैसा ? अरे सबकुछ पैसे के लिए ही हो रहा है भाई साब। पैसा नहीं लेंगे तो क्या मुफत में बिक जाएंगे। आपने आज तक सुना है कि बिना पैसे के किसी ने अपने आपको बेचा है ?
मगर एक बात कहें साहब इस मंहगाई के जमाने में दाम बढि़या मिले। वो तो और भी देने को तैयार थे। मगर हमारी भी नैतिकता है। वाजिब दाम से एक पैसा ज्यादा लेना हमें भी मंजूर नहीं है। अब हिसाब लगाइये। पिछले विधान सभा चुनाव का खर्चा। फिर बिकने का मेहनताना ( मानदेय )। फिर आगे चार साल की तनखाह भत्ते वगैरह का नुकसान। फिर अगला चुनाव लड़ने का खर्चा। वैसे इस पार्टी के पास पैसा बहुत है और कार्यकर्ता बहुत मूर्ख और समर्पित। तो चुनाव का पैसा उपर से आ जाता है और खर्चा कम होता है। फिर हम लोगों को तो मालिक ही देते हैं। आखिर हमें बेचकर ही तो वो अपना व्यापार कर पाते हैं। अब अगला चुनाव नई पार्टी से क्या पता जीते कि न जीते तो उसका मुआवजा।
अब इसमें चरित्र की बात कहां से आ गई। यानी हमारा निर्यात हो गया तो हम चरित्रहीन हो गये। और जिनने हमारा आयात किया वो ? वो चरित्रहीन नहीं हैं। हम न बिकते तो वो खरीद पाते ? चरित्र की बात तो आप करो नहीं। काहे का चरित्र। भेड़ बकरियों का कौन सा चरित्र होता है। भेड़ बकरियां और तमाम जानवर गले में रस्सी बांध का खिरका बनाकर लाए ले जाए जाते हैं। जो खाने को दिया जाता है वो खाते हैं। जो खिलाता है उसके लिए में में में में करते हैं। अच्छा आप शेर की बात सोच रहे हैं। वो तो कबके खत्म हो गये। अब तो कुछ नमूने के लिये चिडि़या घर और राष्ट्रीय उद्यानों में रखे गए हैं। वो भी शाकाहारी टाइप के। भोपाल दिल्ली में जो घूम रहे हैं वो तो हम ही लोग हैं। शेर की खाल ओढ़े हुए। हमारे महाराज भी तो अपने को शेर कहते हैं। कैसे शेर हैं ये तो आपने देख लिया। गोश्त के नाम पर चूहा बिल्ली खा रहे हैं।
अब दो तीन महीनों बाद चुनाव होंगे। उससे निपटना होगा। टिकट तो मिल जाना चाहिए। मालिक ने बात कर ली होगी। हम न जीतेंगे तो मालिक काहे के मालिक रह जाएंगे। एक बात है कि हमारे इस पार्टी में आ जाने से इस पार्टी के पुराने लोग तो हमें निपटाएंगे। उनसे कैसे निपटा जाएगा ये देखना पड़ेगा। वैसे हमें हमारी जनता पर पूरा भरोसा है। वो कहावत है न कि जनता को वही मिलता है जिसके वो लायक होती है। यदि वो इसी लायक है कि हम जैसे नालायकों को अपना नेता बनाये तो हम क्या करें। अपने इलाके में जब हम जाएंगे तो जो हमें गाली देते थे वो हमारा जयकारा लगायेंगे। जो हमारा जयकारा लगाते थे वो अब भी हमारा जयकारा लगायेंगे। अंग्रेजों ने यूं ही थोड़ी इतने सालों तक भारत में राज किया है। वो लातें मारते थे और हम जयकारा लगाते थे और गांधी को गोली मारते थे।
सुखनवर
02 07 2020
Thursday, June 18, 2020
चक्रवर्ती सम्राट के मन की बाते
पिछले कई सालों से मैं ये पता लगा रहा हूं कि इतिहास कहां लिखा जा रहा है। कहीं न कहीं तो लिखा ही जा रहा होगा। जो भी लिख रहा हो उसी से सैटिंग करना है। मामला ये है कि मैं इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवाना चाहता हूं। बचपन से यह पढ़ाया जाता है कि फलां ढिकां का नाम इतिहास मेंं स्वर्णक्षरों में लिखा गया है। मेरा नाम भी इतिहास में स्वर्णाक्षरों में लिखा जाना है। मैं नगद भी दे सकता हूं और स्वर्ण भी दे सकता हूं। लिखने वाला कारीगर भी मैं दे सकता हूं। हजारों पड़े हैं।
भारत वर्ष के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ है कि किसी राजपुरूष को ये सूझा है। अब जब से मैंने राजपाट सम्हाला है मैं चाहता हूं कि इतिहास मुझसे ही शुरू हो और मुझ पर ही खत्म हो। इतिहास के पुनर्लेखन के लिए भी आदेश दे चुका हूं। मैं चाहता हूं कि मेरे सामने ही मेरा मूल्यांकन हो जाए। अपना मूल्यांकन मैं खुद कर लूंगा। मेरे पास लेखक हैं कारिंदे हैं। मेरा युग भारत का स्वर्ण युग कहलाए।
मैं जम्बू द्वीप - आर्यावर्त का राजा हूं। एक विराट आयोजन करके चक्रवर्ती विक्र्रमादित्य की उपाधि लूंगा। प्राचीनकाल से राजा लोग विक्र्रमादित्य की पदवी धारण करते थे और चक्रवर्ती कहलाते थे। मैंने महाभारत रामायण सीरियल के कास्ट्यूम डिजायनरों से अवसर अनूकूल मणि माणिक युक्त भव्य कास्ट्यूम तैयार करने के लिए कह दिया है। अभी ये सोच रहा हूं कि इस भव्य समारोह को कहां आयोजित किया जाए। अयोध्या, बनारस, हल्दीघाटी, पानीपत, प्लासी, कुरूक्षेत्र हस्तिनापुर एवरेस्ट आदि के बारे में सोच रहा हूं। इसमें सभी देशों के राजाओं को बुलाउंगा। मैंने तो अश्वमेध यज्ञ की योजना बना ली थी मगर चीन पाकिस्तान मेें मेरा अश्व जा नहीं पाएगा तो रद्द कर दी।
इसी सिलसिले में मैं ये पता करवा रहा हूं कि ये राजा अकबर वगैरह को जो जिल्ले इलाही वगैरह कहा जाता था वो मुझे क्यों नहीं कहा जा सकता है। यदि ये सब किसी समारोह में होता हो तो वह मैं करवा दूंगा। वैसे मैंने गुजरात में खबर भेज दी है। वहां इस तरह के चाहने वाले बहुत हैं। कुछ नई उपाधियां जैसे तकदीरे हिन्दुस्तान, शहंशाह ए हिन्दुस्तान, वगैरह भी हो सकती हैं।
भारत वर्ष के इतिहास में किसी राजपुरूष ने पहली बार इतने देशों की यात्राएं की हैं। मैंने तो ऐसे ऐसे देशों की यात्राएं की हैं जहां हमारे देश का राजदूतावास नहीं था। कई देश के लोग तो घबरा गये। बोले आप क्यों आ रहे हैं। मैंने कहा भई मैं अपने जहाज से अपने खर्चे से आ रहा हूं। आप लोगों को केवल स्थानीय व्यवस्था करना है। उसका भी खर्च मैं दिलवा दूंगा। यदि जनता कम पड़े तो मैं उसकी भी व्यवस्था कर सकता हूं। तो इन यात्राओं की भी एक किताब बनती है। प्रकाशन विभाग को अभी तक ये काम कर चुके होना चाहिए था। अभी इनकी खबर लेता हूं।
2014 में मैं चाय वाला बना। देस के चाय वालों ने उसे गंभीरता से ले लिया। मेरे पास आए और बोले स्टेशन पर बेचे जाने वाली चाय सदियों से घटिया ही रही है। हमें आपका मार्गदर्शन चाहिए। उसका स्तर कैसे सुधारा जाए। मैंने कहा कि भाई जो चाय मैंने पूरे देस को बेच दी और लोगों ने पी ली और कह रहे हैं कि साठ सत्तर सालों में ऐसी चाय नहीं पी उसको तुम लोग घटिया कह रहे हो। शर्म आनी चाहिए। चाय ऐसे ही बिकेगी और सबको पीना पड़ेगी।
दुनिया में जो भी महान हुआ है उसने किताब लिखी है। हिटलर ने भी आत्मकथा लिखी थी। मेरे सलाहकारों का कहना है कि आत्मकथा तब लिखी जाती है जब अपनी कथा खत्म होने लगती है। इसीलिए मुझे लेख निबन्ध प्रवचन और विचार आदि लिखना थे। वो काम हो गया। तीसेक किताबें छप चुकी हैं। कुछ और भी छप रही हैं। लोग काम पर लगे हुए हैं। मुझे पता चला है कि महान और अमर होने के लिए कवि होना जरूरी है। एक को कहा है कि कविता की किताब छपा दो। किताब अंग्रेजी में है। मूल किताब गुजराती में है। पहले ही छप चुकी है। एक महिला को अभी अभी पद्मश्री दिया है। वो अनुवाद कर रही है। सहायकों ने कहा कि साहब लोग बोलेंगे असली हस्तलिपी वाली कापी दिखाओ। मैंने कहा बोल देा मैं लिख के फाड़ देता था।
मेरी बायोपिक बन चुकी है। सवा सौ करोड़ देसवासियों को बहुत पसंद आई। विस्व इतिहास में आज तक किसी फिल्म को इतने लोगों ने नहीं देखा। पर बहुत सारे क्षेत्र बाकी है। पेंटिंग है। यह क्षेत्र बिल्कुल खाली है। वैसे कई प्रस्ताव आए हैं। कलाकार हैं। वो कहते हैं कि हम जानते हैं आप पेंटर हैं। अब बताइये कैसे मना करूं। गायन वादन है। ड्रम तो मैं बजाता ही था। संगीत में हाथ आजमाना है। कई नृत्यांगनाओं ने तैयारी शुरू कर दी है मेरी कविताओं पर नृत्य प्रस्तुतियांे की। कई संगीतकार और गायक भी कविताओं की सुरसाधना में लग गए हैं। कविताओं पर पेंटिंग प्रदर्शनी तो शायद तैयार हो चुकी होगी। यह देस तो प्रतिभाओं की खान है। ज्योंहि मैं गद्दीनशीन हुआ, कुछ कलाकार और लेखक जुट गये और उन्होंने मेरी बाल लीलाओं पर एक कार्टून किताब बना डाली। कल्पना की हद है। पहले तो मुझे लगा कि ये मेरी खुशामद के लिए लिखी गई है। फिर मैं समझ गया कि ये कलाकार लोग तो कल्पना कर ही सकते हैं।
मैं सोच रहा था कि कि मेरा राज कितने साल चलेगा तो देखिये रूस में जार ने 63 साल राज किया। पुर्तगाल में सालाजार कितने साल रहा। 36 साल। स्पेन में फ्रेंको 35 साल रहा। मुसोलिनी और हिटलर हालांकि कम साल रहे यही करीब 15 -15 साल पर उन्होंने विश्व इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में तो लिखाया। मेरे साथी ने कहा है कि हम पचास साल राज करंेगे। मतलब अभी 43-44 साल और बचे हैं। हे भगवान कैसे गुजरेंगे भारत की जनता के ये साल। मगर भारत की सवा सौ करोड़ जनता की सेवा करने का सवाल है। करके ही रहूंगा।
सुखनवर
14 06 2020
Saturday, May 30, 2020
अंधा, लंगड़ा और बहरा कानून
आखिरकार वकील साहब जनता से मुखातिब हुए। वो हमेशा की तरह गुस्से में थे। वो कानून के जानकार हैं। मगर चुप रहते हैं। दरअसल पूरा मंत्रीमंडल ही चुप रहता है। उसे पी एम ओ से इशु अलाट किए जाते हैं। आप आज जाकर इस विषय पर बोलें। फार्मेट सबको मालूम है। रेल मंत्री पीयूष गोयल, कानून मंत्री रविशंकर प्रसाद सिंह, वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण और पर्यावरण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर फील्डिंग के लिए उतारे जाते हैं। इन मंत्रियों की खासियत ये है कि ये अपने मंत्रालय के अलावा सभी विषयों पर बात कर सकते हैं। ये सभी राहुल गांधी के विशेषज्ञ हैं। इनका फार्मेट तय है। सबसे पहले मोदी स्तुति करना है। इसके बाद राहुल गांधी के ट्वीट पर बीट करना है। देश में इतना अच्छा वातावरण है कि पत्रकार वार्ता में स्तुति और आरती होती है। फिर कुछ भजन इत्यादि। अंत में दुष्टों का नाश हो। गोमाता की जय। सनातन धर्म की जय। कांग्रेस का नाश हो। वगैरह बोलकर इति वार्ताः श्रोयन्ताम हो जाता है।
तो वकील साहब आए। बैठे। नथुने फुलाए। सांस छोड़ी, फिर ली फिर छोड़ी फिर दीर्घ श्वसन। अच्छा हुआ सूर्य नमस्कार नहीं किया। वैसे भी उसका एक दिन मुअइययन है। उसी दिन करना है और विश्व कीर्तिमान बनाना है। विश्व के इतिहास में पहली बार, भारत के इतिहास में पहली बार इत्यादि विशेषणों के बिना तो खबर ही नहीं बनती। तो वकील साहब ने कहा कि ’’राहुल ने पांच तरीकों से कोरोना की जंग कमजोर करने की कोशिश की। पहली बात - निगेटिविटी फैलाई, दूसरा - संकट के समय देश के खिलाफ काम किया। तीसरा- झूठी वाहवाही लूटने की कोशिश की। चैथा - उनकी कथनी और करनी में फर्क है। पांचवां - उन्होंने गलत तथ्य और झूठी खबरें उड़ाईं। उनके पास प्लान हो तो हमें बताएं’’। वकील साहब ने ये भी बताया कि राहुल गांधी महाराष्ट्र की सरकार को बचाने के लिए प्रधानमंत्री से सवाल पूछ रहे हैं। ये राहुल गांधी इतने ज्यादा बड़बोले हो गये हैं कि इन्होंने हमारे प्रधानमंत्री की आलोचना की जब उन्होंने करोना की लड़ाई में भारत की जनता से तालियां और थालियां पिटवाईं, जब दिये जलवाये और दिवाली मनवाई।
तो ये वकील साहब हमारे देश के कानून मंत्री हैं। इनकी बातों में कितना ज्यादा कानून दिखाई देता है। यदि ऐसा आदमी देश का कानून मंत्री है तो आप अंदाज कर लीजिये कि देश में किस कानून का राज है। इनके आरोप तो देखिये। ये वकील साहब जिनका केस लड़ते होंगे उसका क्या होता होगा। कानून मंत्री ने देश को जागरूक किया कि कारोना की लड़ाई राहुल गांधी के कारण कमजोर हो गई। बहुत अच्छे भाई। एक बात तो मान ली कि लड़ाई कमजोर हो गई। फिर कहा कि निगेटिविटी फैलाई। सच बात है जिसकी चोरी पकड़ी जाए वो कह सकता है कि तुम निगेटिव हो। फिर बोले कि संकट के समय देश के खिलाफ काम किया। जब ये गद्दारी की जा रही थी तब आप क्या कर रहे थे कानून मंत्री जी। आज तो बिना किसी अपराध के लोग देशद्रोह में बंद किए जा रहे हैं। ’युद्ध और शांति ’ नाम की विश्व प्रसिद्ध पुस्तक घर में रखने पर लोग जेल में हैं। आप के पास तो सुनहरा मौका था कानून मंत्री जी। इस अपराधी को पकड़ने का। इसके बाद उनका आरोप बहुत तीखा है। राहुल ने झूठी वाहवाही लूटने की कोशिश की। आप तो इसके विशेषज्ञ हैं झूठी वाहवाही लूटने के। आपकी बाॅल दूसरे ने खेल ली। बहुत बुरा हुआ। ये शिकायत वाजिब है। चैथी शिकायत भी ठीक नहीं है। उनकी कथनी और करनी में फर्क है। वो तो निगेटिव आदमी हैं। करना उन्हें कुछ है नहीं। करते तो सबकुछ आप हैं फिर कथनी करनी में फर्क कैैसा। अंतिम तर्क ये है उन्होंने गलत तथ्य और झूठी खबरें उड़ाईं। पर आपने बताया नहीं कि सही तथ्य और सही खबरें क्या हैं। फिर आपने पूछा कि आपके पास कोई प्लान हो तो बताएं ? बहुत अच्छे। बहुत ही अच्छे। वो अपना प्लान आपको बताएं। सरकार आप चला रहे हैं और प्लान वो बताएं। यही तो राहुल गांधी प्रधानमंत्री से पूछ रहे हैं कि लाॅक डाउन तो फेल हो गया है अब प्लान बी बताईये। तालियां बज गईं। थालियां बज गईं। दीवाली मन गई। हद है बेशर्मी की। आर्मी बैंड बज गए। बहारों फूल बरसाओ भी हो गया। सचमुच हमारा देश विश्वगुरू है। लोग बीमारों का इलाज कर रहे हैं ये बहारो फूल बरसाओ कर रहे हैं।
इन सत्ताधारी लौहपुरूषों के दिलों की जांच होना चाहिए। इतने हृदयद्रावक दृश्यों में भी फूल से खिले हुए हैं। करोड़ों आदमी भूखा प्यासा सड़कें नाप रहा है। मर रहा है। बच्चे बूढ़े महिलाएं सब तड़फ रहे हैं। कह रहे हैं कि मरना तो है घर जाकर मर जाएंगे। भूखे यहां भी मरना है वहां भी मरना है। पांच ट्रिलियन इकाॅनामी ( आखिर ये होती क्या है ?) का सपना दिखाने वाले नंगे पैर चलते मजदूरों को एक बोतल पानी नहीं दे पा रहे। खाना तो दूर। ये कह नहीं पा रहे कि तुम सवा सौ करोड़ भारतवासी लोगों को ’’ मैं ’’ खाना खिलाउंगा, पानी पिलाउंगा, तुम्हारे बच्चों को दूध दवाई दूंगा। तुम लोग अपने घर पर रहो।
मगर गुरूर आसमान पर है। शर्म नहीं आती सत्ता पर काबिज तुम हो और दोषी राहुल गांधी है। आजतक कभी सुना है कि रेल रास्ता भटक जाती है। पानी का जहाज, नाव, हवाई जहाज, बस मोटरकार तो सुना है कि रास्ता भटक गई। कहीं जाना था और कहीं चली गई। मगर रेल गाड़ी - पटरी पर चलने वाली रेलगाड़ी 600 - 700 कि मी रास्ता भटक गई। एक नहीं दो नहीं बीसों रेलगाडि़यां रास्ता भटक गईं। उनके रास्ते में कोई स्टेशन नहीं पड़ा। कोई सिग्नल नहीं दिखाया गया। 30 घंटे का सफर 90 घंटे में बिना खाना पानी के। जब रेल रूकती है तो लाशें उतारना पड़ती हैं। ये सब इसीलिए तो क्योंकि इसमें कोई रेलमंत्री कोई रेलअधिकारी, कोई मध्यवर्गीय सवार नहीं था। ये श्रमिक स्पेशल है। इसमें मजदूर सवार थे। ’ये लोग तो ऐसे ही होते हैे।’ इनका कोई नाम नहीं होता। इनकी केवल गिनती होती है। 11 मजदूर रेलपटरी पर सोते हुए मर गए। ये लोग रेल की पटरी पर सोए ही क्यों ? सोयंेगे तो कटेंगे। वाजिब बात। न्याय की कुर्सी पर ये कहा जा रहा है।
अपने होने पर शर्म आती है।
- सुखनवर
29 05 2020
Thursday, November 26, 2015
राजनीति की शिक्षा
हमारे बाप रहे चपरासी के लड़का। उस समय कॉलेज यूनिवर्सिटी में पढाई नहीं होती थी। राजनीति होती थी। तो वे रहे छात्र नेता। इसलिए पढ लिख गये। उसके बाद से वे आगे बढ़ते गए। हम लोग भी पैदा हुए और मां बाप को देख देख कर आगे बढते गए। उसी समय हमें समझ आ गया कि पढना लिखना इस दुनिया में बिलकुल जरूरी नहीं है। आप दुनिया में क्या करंेगे ये भगवान तै कर देता है। वो आपके मां बाप तय कर देता है। आप दुनिया में आ जाते हैं। उसके बाद आपको कुछ करना नहीं है। बस बडे होते जाना है। उसमें आपको कुछ करना नहीं है। रोज सोना और जागना है। खाना पीना करना है। बस आप बड़े हो जाएंगे। आपके मां बाप आपके लिए करते जाएंगे।
राजनीति में घर का आदमी बहुत जरूरी होता है। वैसे तो घर का आदमी हर जगह जरूरी होता है। धंधे में नहीं होता है ? कभी देखें हैं कि कोई व्यापारी, कोई कारखाने वाले ने अपने लड़के की जगह किसी और के लडके को धंधे का मालिक बना दिया ? नालायक से नालायक लडका हो तो भी मालिक वहीं बनेगा। हमारे बाप को जेल भेज दिए थे। तो क्या हुआ ? हमारी माताजी खाना बनाते बनाते घर से निकलीं और बिहार की मुख्यमंत्री बन गईं। क्या पार्टी में लोगों की कमी थी क्या ? मगर घर का आदमी जरूरी होता है। आज किसी दूसरे को मुख्यमंत्री बनाए होते तो हम पटना की सडकों पर भीख मांग रहे होते।
राजनीति में जब हम किसी के सगे नहीं हैं तो कोई हमारा सगा क्यों होगा भाई। वैसे राजनीति में सगा होना भी नहीं चाहिए। राजनीति में यदि आप योग्य न हुए और अचानक किसी जुगाड़ से या किस्मत से कुछ बन भी गए न तो दो चार साल में सड़क पर आ जाओगे। इसलिए लोग अपनी औकात देख लेते हैं और पार्टी में अपनी जगह स्वीकार कर लेते हैं। जिन्दाबाद जिन्दाबाद करते रहते हैं और कहते रहते हैं कि हम पार्टी के वफादार सिपाही हैं। न तो वे वफादार होते हैं और न सिपाही होते हैं। बस वो समझदार होते हैं। अपनी औकात समझ लेते हैं। और चुप रहते हैं। अपने हिस्से का खाते हैं और खुश रहते हैं। राजनीति तो दरअसल ये है।
हमारे मामाजी साधू जी, उनका नाम सुना आपने ? उनको पिताजी ने घर का आदमी मानकर बढाना शुरू किया सोचा माता जी भी खुश रहेंगी कि भाई को बढ़ा रहे हैं। तो उनके पर निकलने लगे। उनको लगा कि वो सच में राजनीतिज्ञ हो गए। अरे भई केवल गुंडई राजनीति नहीं है। उनने तत्काल पिताजी पल्ला छोड़ा, दुश्मनों से मिल गए। अब कहां हैं? न दुश्मन बचे न मामाजी।
हमें पिताजी ने बता दिया है कि बस अपनी जगह बैठो। काम को समझो। ज्यादा दिमाग लगाने की जरूरत नहीं। हमारे यहंा बहुत से काबिल अधिकारी होते हैं। वो बड़ी बड़ी परीक्षा पास करके आते हैं। उनके पास बहुत दिमाग होता है। वो काम करते जाते हैं। हमें उनको काम करने देना है। वो अपना कमाते हैं हम अपना कमाते हैं। पैसा कमाने की चिन्ता युवावस्था में करना नहीं चाहिए। वो अपने आप आता है। बस एक बार आपकी बदनामी भर हो जाए कि आप पैसा खाते हैं। उसके बाद किसी बात की कोई सीमा नहीं।
लोग कहते हैं कि हमें शर्म नहीं आती। भला ये भी कोई बात हुई। मिनिस्टर बनने में क्या शर्म। हमारे पिताजी को नहीं आई जब उनने हमारी मां को मुख्यमंत्री बना दिया। हमें क्यों आएगी ? और एक बात तो बताइये कि हमारे पिताजी ने पूरे बिहार को रौंद डाला, बढ़िया चुनाव जिताया। अब मिनिस्टर बनाने की बारी आई तो दूसरों को बनाएंगे। और घर के लड़के घर में घुंइयां छीलेंगे। जितने लोग हमारी पार्टी के कोटे से मंत्री बनना थे सो बने। उसी में हम भी बन गए। इसमें शर्म की क्या बात। हम लोग कोई विदेशी लोकतंत्र वाले थोड़े ही हैं कि मिनिस्टर बनना जिम्मेदारी का काम होता है। हमारे यहां मिनिस्टर बनने का मतलब है एक बड़ा बंगला, कुछ लाल बत्ती वाली कारें, कुछ कारिंदे, बस। प्रजा का काम करवाना। उनसे पैसे लेना। उन्हीं पैसों को वापस उन्हीं पर खर्च करना। हां दो चार लोग रखे जाते हैं जो पढ़े लिखे होते हैं। उनसे वैसा काम लिया जाता है। आजकल इन पढे़ लिखे लोगों को पार्टी प्रवक्ता बना देते हैं। वो टी वी में बैठकर हमारी तरफ से बहस करते हैं। तो बड़ा कौन हुआ पढ़ा लिखा कि अनपढ़।
तो अब हम चुनाव जीत चुके हैं। मिनिस्टर बन चुके हैं। अब आगे का काम संतोषी माता संवारे। बाकी पिताजी और नितिश जी सम्हाल लेंगे।......................................सुखनवर
24 11 2015
Saturday, November 21, 2015
मार्गदर्शक मार्ग के दर्शक हो गए
अब आपको क्या बताएं पत्रकार जी। सुबह से तैयार होकर बैठ जाते हैं। नहा धोकर। इस बुढापे जब कल का ठिकाना नहीं है अभी दर्जी से नए कुर्ता धोती बंडी सिलवाए हैं। हम लोग समझाते हैं। भई हो गया। जितना मिलना था मिल गया। अब छोड़ो भी। नए लोग आगे आएंगे। आएंगे क्या आ चुके हैं। अब उनके दिन आएं हैं। सचाई को मान लो न दादा जी। मगर नहीं साहब सुबह से तैयार होकर बाहर कुर्सी लगाकर बैठे हैं। बार बार उठते हैं बाहर झांकते हैं। कोई आया क्या। हम पूछते हैं क्यों रास्ता देख रहे हो तो बोलते हैं हम मार्गदर्शक मंडल हैं। हमारे से मार्गदर्शन लेने नरेन्द्र आएगा, अरूण आएगा। राजनाथ आएगा। गडकरी आएगा। मगर कोई नहीं आता। अरे पत्रकार जी। ये मार्गदर्शक मंडल में हैं या मार्ग के दर्शक हैं। दिन भर रास्ता देखते रहते हैं। और तो और जोशी जी को चिढ़ाने के लिए मैट्रिक फेल को शिक्षामंत्री बना दिया। विदेश मंत्री बिचारी आज तक विदेश जाने को तरस रही है। वकील साहब को वित्त मंत्री बना दिया।
महीनों गुजर गये हैं। कोई नहीं आया पर इनका दिल नहीं मानता। मानने कोे तैयार नहीं कि इनके दिन लद गए हैं। अरे भई आपको मौका मिला तो था। उस समय आपने अपने को भावी प्रधानमंत्री बनवा लिया था। आप समझे सब आपके कायल हो गए हैं। बाकी लोगों ने सोचा हम चुनाव तो जीतने वाले नहीं हैं काहे को बुढऊ से संबंध खराब करें। कह दिया हां आप ही हो हमारे प्रधानमंत्री। शान से चुनाव हारे। घर बैठ गए। मगर किस्मत तो देखो। पांच साल फिर निकल गए बुढऊ टंच हैं। फिर चुनाव आ गए। इस बार नरेन्द्र अड़ गए। बोले पिछले बार ये थे इस बार मैं रहूंगा। पहले घोषणा करो। नागपुर से ऑर्डर ले आए। चुनाव लड़ गए। अरे इनकी तो टिकिट के लाले पड़ गये थे। चुनाव के पहले ही मार्गदर्शक बनाए दे रहे थे। जैसे तैसे करके तो टिकटें मिलीं। हवा अच्छी बही। सब जीत गए। मगर हसरत तो दिल में ही रह गई। प्रधानमंत्री बनने की। रथ यात्रा निकाली। मस्जिद गिराई। अच्छा माहौल बना। आज भी लोग उन दिनों को याद करके सिहर उठते हैं। मगर जब चुनाव जीते अपनी सरकार बनी तो अटल जी ने एक बार न कहा कि सारी मेहनत इनकी है इन्हें बनाओ प्रधानमंत्री। बना दिया गृहमंत्री।
ले देके इस बार सरकार बनी तब तो हालात ही बेकाबू हैं। प्रधानमंत्री तो छोड़ो संसद सदस्य मान लें वोई बहुत है। ऐसी छीछालेदर इस बुढापे में किसी की न हो भाई। पेंशनर की भी ज्यादा इज्जत होती है भाई। कहते हैं, अब देखो आप लोग अपनी अपनी लठिया सम्हालो दादाजी लोग और एक कमरे में बैठो। हम लोग तुमसे सलाह लिया करेंगे। तुम लोग सोचते रहा करो कौन कौन सी सलाह देना है। अब वे तीनों चारों बिचारे सोच सोच के बैठे हैं कि येे सलाह देंगे वो सलाह देंगे मगर कोई आता ही नहीं। एक को तो देश में रहने की फुर्सत नहीं। दूसरे को चालें चलने से फुर्सत नहीं। एक दो बार सोचा कि नागपुर हेडक्वार्टर में शिकायत कर देंगे फिर देखते हैं कैसे नहीं आते ये जवान रस्ते में। मगर नागपुर से भी डाक आना बंद हो गई।
अब देखो बिहार के चुनाव थे। हम लोग से एक बार पूछ लेते तो क्या बिगड़ जाता। हम लोग की तो वोई हालत हो गई जो शाहजहां की आगरा के किले में थी। बस कमरे में बैठे रहो और ताजमहल तकते रहो। अब हम प्रधानमंत्री की कुर्सी तक रहे हैं। अरे क्या मालूम कब कौन सा चमत्कार हो जाए। कहो किसी को दया आ जाए। अरे दो चार दिनों के लिए ही बन जाएं प्रधानमंत्री। मगर चालाकी तो देखो। बिहार चुनाव में हम लोगों को दो कौड़ी को नई पूछो मगर हार गए (और भैया हार तो ऐसी बेहतरीन हुई है कि तबियत खुश हो गई ) तो कहने लगे कि हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। काए भैया हमारी काहे की जिम्मेदारी। एक सभा में तो लेके नहीं गए। हमारी तो छोड़ो जे दोनों गुजरातियों ने मिलकर बिहारियों को ही बिहार चुनाव से बाहर कर दिया। अब मान लो चुनाव जीत ही जाते तो क्या गुजरात से लाते बिहार का मुख्यमंत्री।
तो भैया ऐसा है कि सब ठीक है। सब जानते हैं। पुरानी कहावत है। गरीब की हाय नहीं लेना चाहिए। और हम तो उजागर कह रहे। हां हमारी हाय लगी और जब तक हम रहेंगे और लगेगी। अब जीत तो लो बेटा कोई चुनाव तुम। ..................सुखनवर
16 11 2015
महीनों गुजर गये हैं। कोई नहीं आया पर इनका दिल नहीं मानता। मानने कोे तैयार नहीं कि इनके दिन लद गए हैं। अरे भई आपको मौका मिला तो था। उस समय आपने अपने को भावी प्रधानमंत्री बनवा लिया था। आप समझे सब आपके कायल हो गए हैं। बाकी लोगों ने सोचा हम चुनाव तो जीतने वाले नहीं हैं काहे को बुढऊ से संबंध खराब करें। कह दिया हां आप ही हो हमारे प्रधानमंत्री। शान से चुनाव हारे। घर बैठ गए। मगर किस्मत तो देखो। पांच साल फिर निकल गए बुढऊ टंच हैं। फिर चुनाव आ गए। इस बार नरेन्द्र अड़ गए। बोले पिछले बार ये थे इस बार मैं रहूंगा। पहले घोषणा करो। नागपुर से ऑर्डर ले आए। चुनाव लड़ गए। अरे इनकी तो टिकिट के लाले पड़ गये थे। चुनाव के पहले ही मार्गदर्शक बनाए दे रहे थे। जैसे तैसे करके तो टिकटें मिलीं। हवा अच्छी बही। सब जीत गए। मगर हसरत तो दिल में ही रह गई। प्रधानमंत्री बनने की। रथ यात्रा निकाली। मस्जिद गिराई। अच्छा माहौल बना। आज भी लोग उन दिनों को याद करके सिहर उठते हैं। मगर जब चुनाव जीते अपनी सरकार बनी तो अटल जी ने एक बार न कहा कि सारी मेहनत इनकी है इन्हें बनाओ प्रधानमंत्री। बना दिया गृहमंत्री।
ले देके इस बार सरकार बनी तब तो हालात ही बेकाबू हैं। प्रधानमंत्री तो छोड़ो संसद सदस्य मान लें वोई बहुत है। ऐसी छीछालेदर इस बुढापे में किसी की न हो भाई। पेंशनर की भी ज्यादा इज्जत होती है भाई। कहते हैं, अब देखो आप लोग अपनी अपनी लठिया सम्हालो दादाजी लोग और एक कमरे में बैठो। हम लोग तुमसे सलाह लिया करेंगे। तुम लोग सोचते रहा करो कौन कौन सी सलाह देना है। अब वे तीनों चारों बिचारे सोच सोच के बैठे हैं कि येे सलाह देंगे वो सलाह देंगे मगर कोई आता ही नहीं। एक को तो देश में रहने की फुर्सत नहीं। दूसरे को चालें चलने से फुर्सत नहीं। एक दो बार सोचा कि नागपुर हेडक्वार्टर में शिकायत कर देंगे फिर देखते हैं कैसे नहीं आते ये जवान रस्ते में। मगर नागपुर से भी डाक आना बंद हो गई।
अब देखो बिहार के चुनाव थे। हम लोग से एक बार पूछ लेते तो क्या बिगड़ जाता। हम लोग की तो वोई हालत हो गई जो शाहजहां की आगरा के किले में थी। बस कमरे में बैठे रहो और ताजमहल तकते रहो। अब हम प्रधानमंत्री की कुर्सी तक रहे हैं। अरे क्या मालूम कब कौन सा चमत्कार हो जाए। कहो किसी को दया आ जाए। अरे दो चार दिनों के लिए ही बन जाएं प्रधानमंत्री। मगर चालाकी तो देखो। बिहार चुनाव में हम लोगों को दो कौड़ी को नई पूछो मगर हार गए (और भैया हार तो ऐसी बेहतरीन हुई है कि तबियत खुश हो गई ) तो कहने लगे कि हम सबकी सामूहिक जिम्मेदारी है। काए भैया हमारी काहे की जिम्मेदारी। एक सभा में तो लेके नहीं गए। हमारी तो छोड़ो जे दोनों गुजरातियों ने मिलकर बिहारियों को ही बिहार चुनाव से बाहर कर दिया। अब मान लो चुनाव जीत ही जाते तो क्या गुजरात से लाते बिहार का मुख्यमंत्री।
तो भैया ऐसा है कि सब ठीक है। सब जानते हैं। पुरानी कहावत है। गरीब की हाय नहीं लेना चाहिए। और हम तो उजागर कह रहे। हां हमारी हाय लगी और जब तक हम रहेंगे और लगेगी। अब जीत तो लो बेटा कोई चुनाव तुम। ..................सुखनवर
16 11 2015
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