Thursday, December 15, 2011

अन्ना के ईमानदार चेले

अन्ना के ईमानदार चेले
हमारे शहर में एक मजदूर नेता थे। वो अभी भी हैं पर अब उनके पास मजदूर नहीं हैं। वे मजदूरविहीन हैं और शरीर की अशक्तता और आदत से मजबूर हैं। जब वे शबाब पर थे तो समय समय पर उन्हें भी शहर बंद कराना होता था। उनकी ताकत कम थी। उनके चेले सभी सरकारी मुलाजिम थे। जो शहर बंद नहीं करवा पाते थे। उस समय उन्होंने एक फार्मूला निकाला। निकाला क्या एक बार अचानक निकल गया। वो बंद के एक दिन पहले मशाल जुलूस निकालते थे। मशाल जुलूस जब शहर के बीच से गुजरता था तो व्यापारी डर जाते थे। लगता था कि ये मशालें यदि आग लगाने के काम में लगा दी गईं तो अपना सत्यानाश हो जाएगा। बस दूसरे दिन व्यापारी अपनी दुकानें बंद रखते थे। बंद सफल हो जाता था। ये फार्मूला काफी दिन चला। फिर लोगों को समझ आ गया कि ये मामला क्या है। उसके बाद मजदूर नेता का बंद नहीं हुआ।
अन्ना का अनशन भी शहर बंद करने के पहले के मशाल जुलूस जैसा है। इस बार 11 दिसंबर वाला छुट्टी वाला अनशन था। काफी कम भीड़ थी। लोग भी एक दिन के मेले में नहीं जाते। दो तीन दिन तो माहौल बनाने में निकल जाते हैं। फिर ठंड के दिन। सप्ताह भर काम करने के बाद सुस्ताने को एक दिन मिला। उसमें अन्ना जी के यहां जाओ। घर में टी वी पर न देख लो। सो लोग रजाईयों के अंदर लुके हुए टी वी पर भ्रष्टाचार मिटाते रहे। अन्ना के चेले बहुत होशियार हैं। उन्हें समझ में आ गया कि ठंड में जनता भ्रष्टाचार का विरोध नहीं करेगी। विरोध ठंडा पड़ जाएगा। इसीलिए कहा गया कि यदि ठंड ज्यादा पड़ी तो अनशन बंबई में होगा। बंबई में तो होगा पर रालेगण सिद्धी में क्यों न हो ? क्योंकि वहां रामलीला मैदान वाला माहौल नहीं बनेगा। मीडिया का मसाला तो चाहिए पर दिल्ली में।
मैं काफी दिनों से खोज रहा हूं कि कोई ऐसा आदमी मिले जो चाहता हो कि भ्रष्टाचार फले फूले। हर कोई भ्रष्टाचार के विरोध में है। कल मैं सब्जी खरीद रहा था तो सब्जी वाला बोल रहा था कि वो भी भ्रष्टाचार के विरोध में है। वो अन्ना का समर्थक निकला। मुझे तो अपने आप से बहुत ग्लानि हुई। ये सब्जीवाला तो मुझसे कहीं आगे है। एक मैं हूं जो कुछ नहीं कर रहा हूं और एक ये सब्जीवाला है जो भ्रष्टाचार के विरूद्ध डट कर खड़ा है। बहरहाल मैंने एक किलो आलू लिए और घर आ गया। घर में आकर देखा कि आलू एक किलो से कम थे। आलू वाले ने डंडी मार दी थी। मैंने देखा कि उसने कई सड़े आलू अच्छे आलुओं के बीच रख दिये थे। मैं उसकी बातों में उलझा रहा और वो अपना काम करता रहा।
संवाद माध्यमों के लोग सबसे उत्साह के साथ अन्ना के साथ हैं। बल्कि ये कहा जाए कि ये आंदोलन मीडिया के भरोसे ही चल रहा है। मगर मीडिया अपने ब्रेक कर कर के विज्ञापन के पैसे कमाए जा रहा है। पिछले चुनावों से पैसा दो समाचार छपवाओ वाला काम भी चालू हो गया है। पेड न्यूज। मगर अन्ना के साथ हैं।
सवाल ये है कि भ्रष्टाचार के विरूद्ध आंदोलन भ्रष्टों के विरूद्ध क्यों नहीं है। आंदोलन मनमोहन सिंह और राहुल के विरूद्ध क्यों है। चिदंबरम और सिब्बल के विरूद्ध क्यों है। जो लोग समाज के घोषित अपराधी हैं। सिद्ध भ्रष्ट हैं आंदोलन उनके विरूद्ध क्यों नहीैं उनके घरों के सामने प्रदर्शन क्यों नहीं। उनके कार्यालयों के सामने प्रदर्शन क्यों नहीं। कुछ विभाग ऐसे हैं जिनमें यदि घर का कोई आदमी भरती हो जाता है तो पूरे मोहल्ले में मिठाई बंटती है। कहा जाता है कि तनखाह तो ठीक है पर ऊपरी कमाई इतनी है कि सात पुश्तें सुख से रहंेगीै। ऐसे विभागों के सिद्ध भ्रष्टों के विरूद्ध आंदोलन क्यों नहीं ?
ंहमारे समाज में सब जानते हैं कि भ्रष्ट कौन है। किस किस विभाग में भ्रष्टाचार के मौके ज्यादा हैं। फिर भ्रष्टाचार की ताली एक हाथ से नहीं बजती। केवल पैसा खाया नहीं जाता। पैसा खिलाया भी जाता है। पैसा खिलाने वाला इतना भोला बन जाता है जैसे उसका कोई दोष नहीं है। सारा दोष खाने वाले का है। ईमानदार वो है जिसे बेईमान होने का मौका नहीं मिला। बेचारा ईमानदार।
.................................सुखनवर

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