Wednesday, July 29, 2020

ईश्वर की करूण पुकार - मैं मंदिर में नहीं रहता मुझे पूजने वहां मत जाना

मेरे लिए भव्य मंदिर बनने वाला है। उसके शिलान्यास के लिए कोई को आमंत्रित किया गया है। वो मेरे लिए अपने व्यस्त समय में से समय देंगे। धर्म के बहुत बड़े अध्येता और धर्मात्मा होंगे। वेद शास्त्रों के ज्ञाता। वो समय देने वाले हैं। वो जब समय दे देंगे तो शिलान्यास हो जाएगा। जिन लोगों ने मंदिर बनाने की जिम्मेदारी झपट ली है वो कह रहे हैं कि इस धरा पर केवल वही मंदिर के शिलान्यास के योग्य हैं। विडंबना ये है कि ये सब मेरे स्वघोषित भक्त हैं। इनके बिना मैं बहुत खतरे में था। ये मेरे ऐसे रक्षक हैं। इनके कारण मेरी इतनी बदनामी हो रही है। दूसरे देवता लोग मुझ पर हंसते हैं। कहते हैं कि ऐसे तुम्हारे भक्त हैं तो हम लोग बिना भक्तों के ही भले। मुझे मंदिर बनाने वालों और मंदिर के पुजारियों योगियों से बहुत डर लगता है। मुझे डर इसलिए लगता है कि मैं इन सबकी नस नस जानता हूं। इनके करतूतें और कारनामे याद कर मैं नींद से उठ जाता हूं। सिहर उठता हूं। ठीक से सो नहीं पाता। ये रहे तो मनुष्य जाति खत्म हो जाएगी। भक्तों मैं मंदिर में नहीं रहता। इनके बनाये मंदिर में तो एक रात भी नहीं। मुझे पूजने वहां मत जाना। मैंने धरती पर केवल एक जीव ऐसा बनाया जो सोच सकता है, बोल सकता है और अन्याय का विरोध कर सकता है। मगर इस जीव ने मुझे बहुत निराश किया है। इसने अपनी बोलने सोचने और विरोध करने की शक्ति कुटिलों के आगे समर्पित कर दी। अब ये जीव ऐसा हो गया है कि इसे जितना मारो, जितना अत्याचार करो, ये केवल जयजयकार ही करेगा। इसने मनुष्य जाति के गुणों का त्याग कर दिया है। कुत्ते का स्वामी भले ही चोर हो या साहूकार, कुत्ता हमेशा स्वामीभक्त बनाता रहता है। सदियों से इन लोगों ने मेरे भक्तों को बहका कर समझा दिया है कि मैं मंदिर में रहता हूं। मुझे तो कहीं रहने की जरूरत ही नहीं पड़ती। घर मकान महल मंदिर कुछ भी नहीं चाहिए। मैं तो निराकार हूं। मैं तो परम ब्रह्म हूं। मैं तो कण कण में हूं। मैं तो हवा में भी हूं और पत्थर में भी हूं। मैं तो घर में भी हूं और बाहर भी। मैं तो खेतों में भी हूं। खलिहानों में भी हूं। झोपड़ी में भी हूं और महलों में भी हूं। और यह सृष्टि तो मेरी ही रचना है। (ये भी ये ही लोग बोलते हैं ) अच्छा प्रपंच फैलाया है। मेरा मंदिर बनाते हैं और मुझसे पूछते भी नहीं कि आप इसमें रहने के लिए तैयार हैं या नहीं। इसमें प्राण प्रतिष्ठा होती है। मालूम नहीं किसके प्राणों की प्रतिष्ठा कर लेते हैं। न जाने किसके प्राण ले लेते हैं। मैं तो किसी भी मंदिर में नहीं रहता। मै तो वैसे भी बहुत कठोर हूं। यदि मैं पूजा करवाऊंगा तो हरेक से पूछूंगा कि अपने जीवन में कैसा व्यवहार करते हो। मेरे भक्त बनने की औकात है तुम्हारी। मंदिर में तो हत्यारा भी मेरी पूजा करके चला जाता है। हत्यारा भी आता है और मरने वाले के घर वाले भी। मैं दोनों का साथ कैसे दे सकता हूं। उस पर ये बदमाश कहते हैं कि सब भगवान की लीला है। अरे मेरी लीला काहे को है। हत्या तुम करो और लीला मेरी कहलाए। अदालत में प्रपंच करके तुम छूट जाओ और कहो भगवान सब देखता है। एक तो शक्तिमान और सर्वशक्तिमान का प्रपंच अलग फैला रखा है। जो कुछ हो रहा है सब ईश्वर की इच्छा से हो रहा है। भगवान सर्वशक्तिमान है। अरे क्या खाक सर्वशक्तिमान है। भगवान सर्वशक्तिमान होता तो सारे नीचों का अब तक नाश हो चुका होता और भले लोग सुखी जीवन व्यतीत कर रहे होते। मगर भारतवर्ष में एक सर्वशक्तिमान का प्रादुर्भाव हो चुका है। एक सहायक सर्वशक्तिमान भी है। ये दोनों मिलकर इस भारत वर्ष में नियति नटी के कार्यकलाप चला रहे हैं। इनके कारण इस धरा में मेरा तो कोई काम ही नहीं बचा है। इसीलिए मैं धरा को त्याग कर अंतरिक्ष में चक्कर लगा रहा हूं। किसी ऐसे ग्रह की खोज में हूं जहां किसी को पता न चले कि मैं सर्वशक्तिमान हूं। सोचा मंगल में जाकर बस जाऊं मगर पता चला है मनुष्य वहां पंहुचकर थाने और अदालतें खोलने की तैयारी कर रहा है। इसलिए मैंनेे इरादा बदल दिया है। ऐसा भी हो सकता हैं कि मैं किसी ग्रह में डेरा जमाऊं तब तक पता चले कि वहां तो पहले ही से सजे धजे सर्वशक्तिमान कैमरामैन के साथ बैठे हैं। मुझे पता चला है कि आजकल पृथ्वी के विभिन्न भू भागों में ऐसे ही सर्वशक्तिमानों का ही राज है। मुझसे तो ये भारत का सर्वशक्तिमान ही नहीं सम्हल रहा। बाकियों को क्या सम्हालूंगा। अब इस पृत्थी का भला मेरी ताकत से बाहर है। अब आप ही लोग सम्हालो। मैं तो किसी दूसरे ग्रह में जीवन ढूंढता हूं। सुखनवर 28 07 2020

Saturday, July 11, 2020

राजनीति में प्रवेश



युवक : दादा, देश की सेवा करना है। उसके लिए दादा राजनीति में प्रवेश करना चाहता हूं।
दादा : तेरा बाप क्या करता है
युवक : भड़भूंजा है। चना मूंगफली बेचता है।
दादा : तो तू राजनीति में प्रवेश नहीं कर सकता। तुझ जैसे भड़भूंजों, बाबू किरानियों की क्या औकात की राजनीति में प्रवेश              करें। ये राजघरानोें के बच्चों का काम है। उनका जंन्म धर्म संस्थापनाय होता है। तुम जैसे लोग क्या खा के राजनीति            में प्रवेश करेंगे। अबे राजनीति आलरेडी तुम्हारे अंदर प्रवेश कर चुकी है।
युवक : दादा आप भी तो राजनीति के घराने से नहीं हो। आपका बाप भी तो गेहूं चावल की दलाली करता था। फिर आप कैसे            राजनीति में कैसे आ गये।
दादा : देखो बेटा राजनीति और पत्रकारिता में कोई आदमी अपनी इच्छा से नहीं आता। बेरोजगारी से आता है। अपन ने पढ़ाई          लिखाई की नहीं। किसी काम के थे नहीं। बाप की कमाई से पेट भर जाता था। दिनभर टिल्लेनवीसी करता था। तो एक          दिन मोहल्ले के एम एल ए ने अपने साथ लटका लिया। उसे एक निठल्ले चेले की जरूरत थी और अपने को कोई काम            नहीं था। वो दो चार दिन में हमें दो चार सौ रूपैया दे देता था। कपड़े सिलवा देता था। खाना खिला देता था। फिर उसने          मेरे नाम पर ठेके लेना शुरू कर दिया। पैसा मिलने लगा। फिर हमने अपने नाम से ठेका लेना शुरू कर दिया। फिर हम           ठेकेदार हो गये। पैसा हो गया। विधायक चुनाव हार गया तो हमने पार्टी बदली और जीते हुए विधायक के घर बैठने               लगे। उसके चमचे हो गये।
युवक : ये तो हुई ठेकेदारी की बात। मगर आप तो पंहुचे हुए राजनीतिज्ञ हो। वो कैसे बन गए।
दादा : ये सब कुछ एक दो दिन में नहीं हो जाता। कठिन तपस्या करना होती है। ठेकेदारी हमारे देश में राजनीति की पाठशाला          है। जो ठेकेदार बना वो दूसरे दिन राजनीति के गलियारों में घूमने लगता है। उसे बिल देना है। पेमेन्ट लेना है। अगला             ठेका लेना है। दूसरों को ठेका नहीं लेने देना है। दूसरे ठेकेदार को पटकनी देना है। इसके लिए हमें कोई न कोई पार्टी में          रहना पड़ता है। जो पार्टियां चुनाव लड़ती हैं उन पार्टियों को पैसा देना पड़ता है। हार जीत तो जनता के हाथ में है। उसके          बाद तो एम एल ए हमारे हाथ में है। हमने चंदा दिया है। हमने उसका काम किया वो हमारा काम करता है।
युवक : मगर आप तो लगातार लोगों के लिए काम करते रहते हो ये तो जनसेवा ही है।
दादा : अरे सुनो यार ये कोई जनसेवा नहीं है। हमारे देश में कहीं कोई काम होता नहीं। आप टैक्स जमा करने जाओगे तो                अगला टैक्स नहीं लेगा। आप इलाज कराने जाओगे तो डाक्टर इलाज नहीं करेगा। आप रिपोर्ट करने जाओगे तो थाने          में रिपोर्ट नहीं लिखी जाएगी बल्कि आप साबुत थाने से बाहर निकल आओ तो बहुत बड़ी बात है। आप घूस देने जाओगे          तो कोई लेगा नहीं। इसीलिए कोई आदमी कहीं जाता है तो पहले एक नेता को साथ लेकर जाता है। नेता काम करवा              देता है। अपनी फीस ले लेता है। दूसरों की फीस दे देता है। हम भी यही करते हैं। हम काम करने वाले और करवाने वाले          के बीच की कड़ी हैं।
युवक : मगर आपके पास केस आते कहां से हैं।
दादा : सकल पदारथ हैं जग माही। करमहीन नर पावत नाहीं। कुछ नहीं करना पड़ता है। बस दुकान खोलना पड़ती है। दुकान          खोलेगे तो ग्राहक आयेंगे। ग्राहक आयेंगे तो दुकान चलेगी। अपन ने तो अब ये कर लिया है कि अपनी दुकान काफी              फैला ली है। काफी पार्टनर रख लिये हैं। इस काम में अब काफी विस्तार हो गया है। राजनीति अब उतनी सीधी सादी              रही नहीं जितनी गाँ धी जी के जमाने में थी। अब हम पंडे पुजारी गुंडे लठैत पुलिस सरकारी बाबू अफसर हर जात और          हर पार्टी के नेता को साधे रखते हैं। इससे बड़े बड़े काम हो जाते हैं। तुम्हें एक राज की बात बताता हूं। यदि तुम जिंदगी          भर अच्छे काम करोगे तो कोई तुम्हें दो कौड़ी में नहीं पूछेगा। मगर तुम अड़ी देते रहोगे तो तुम्हारी न्यूसेंस वेल्यू                   रहेगी। हर कोई सबसे पहले तुम्हें पूछेगा।
                    इसलिए बेटा राजनीति में प्रवेश की प्रतीक्षा मत करो। तुम जैसे अनपढों निठल्लों और मूर्खों के लिए ही                    राजनीति का मैदान बना है। खूब खेलो और लगातार बोलते रहो कि राजनीति बहुत गंदी जगह है। इसमें किसी भले               आदमी की कोई जगह नहीं है। इससे हम लोग इस देश के पैसे के हरे भरे मैदान को अनंतकाल तक चरते रहेंगे। लोग          हमें चोर बोलते रहेंगे। हमसे अपने काम कराते रहेंगे। और राजनीति से दूर रहेंगे। इसी में हमारी जीत है।
सुखनवर
11 07 2020

Thursday, July 2, 2020

टाइगर जिन्दा है और चूहे खा रहा है।



ये उदारीकरण हमने शुरू नहीं किया। ये मनमोहन सिंह ने शुरू किया। ये उनका विचार था कि देश में व्यापार बढ़ना चाहिए। तो बढ़ गया। खूब आयात निर्यात हो रहा है। देखिये व्यापार में  उन्नति के लिए क्या नहीं करना पड़ता। बकरीद के लिए बकरा कैसे तैयार किया जाता है ? बढिया खिलाते पिलाते हैं। वजन बढाते हैं। फिर कुर्बानी देते हैं। हमारा अपना मालिक है। लेन देन वो करता है। डील वो करता है। उसने बताया कि सौदा हो गया है। तुम लोगों को बेच दिया है। तो साहब हमारा निर्यात हो गया। ऐसा नहीं है। इस बार पूरा बाड़ा ही बेच दिया गया। बकरों का सरदार खुद भी हम लोगों के साथ आगे आगे चल रहा है। हमारी चमड़ी गोश्त हड्डी सब बिकी है। मंहगे दाम पर बिकी है। व्यापार का तो नियम है। खरीददार की कितनी गरज है इससे बकरे का दाम तय होता है। जब एक बार दिल्ली के खरीददार ने तय कर लिया कि ये बकरे और बकरे वाला हम हर कीमत पर खरीदेंगे तो फिर अच्छा दाम तो मिलना ही था।
देखिये ये जमीर वगैरह की बात न कीजै। काहे का जमीर। मालिक चुनाव लड़ाता है। तो हम लड़ते हैं। वो जिताता है तो जीतते हैं। वो पैसा लगाता है। हम तो बंधुआ मजदूर हैं। इसीलिए जो मालिक कहता है कि वो हम करते हैं। उसने बताया अच्छा दाम मिल रहा है। ऐसा मौका कम मिलता है। डील साॅलिड है। अजी नहीं हमें थोड़ी मालूम था कि क्या डील है। डील तो वही करते हैं। जब तिरंगे में थे तो भी उन्होंने ही डील की थी। हमें पता चला कि हम मिनिस्टर बन गये हैं। अरे हमारे महाराजा बहुत जोरदार आदमी हैं। नौजवान हैं। उन्हें अंग्रेजी आती है। बड़े घर के आदमी हैं। हवाई जहाज से चलते हैं। बड़े बड़े धंधे हैं। कितनी बातें तो हमें मालूम नहीं हैं। और साब हमें पता भी नहीं करना है। नौकर आदमी को मालिक के बारे में ज्यादा पता नहीं करना चाहिए। अरे उनने हमें बेचा है तो अपना नफा नुकसान देखकर ही बेचा होगा। इतने सालों से ये सुअरबाड़ा चला रहे हैं। उनके पहले उनके पिता जी चलाते थे। उसके पहले उनके। लंबा सिलसिला है। राजा महाराजाओं की बात हम आप क्या समझेंगे। वो कब किसके साथ हो जाएं कोई भरोसा नहीं। जब अंग्रेज थे तो उनके साथ थे। अब उनको लगा कि ज्यादा दिन सत्ता से अलग रहे तो धंधे पर खतरा है। कब कौन सा केस चल जाए। कब कौन सा छापा पड़ जाए। राजा लोगों की इज्जत अलग चीज होती है। सीधे दिल्ली में जाकर काली कार निकाली। नए मालिक के साथ समझौते पर दस्तखत किए। बिक गये। वो बिके तो हम बिक गये।
पैसा ? अरे सबकुछ पैसे के लिए ही हो रहा है भाई साब। पैसा नहीं लेंगे तो क्या मुफत में बिक जाएंगे। आपने आज तक सुना है कि बिना पैसे के किसी ने अपने आपको बेचा है ?
              मगर एक बात कहें साहब इस मंहगाई के जमाने में दाम बढि़या मिले। वो तो और भी देने को तैयार थे। मगर हमारी भी नैतिकता है। वाजिब दाम से एक पैसा ज्यादा लेना हमें भी मंजूर नहीं है। अब हिसाब लगाइये। पिछले विधान सभा चुनाव का खर्चा। फिर बिकने का मेहनताना ( मानदेय )। फिर आगे चार साल की तनखाह भत्ते वगैरह का नुकसान। फिर अगला चुनाव लड़ने का खर्चा। वैसे इस पार्टी के पास पैसा बहुत है और कार्यकर्ता बहुत मूर्ख और समर्पित। तो चुनाव का पैसा उपर से आ जाता है और खर्चा कम होता है। फिर हम लोगों को तो मालिक ही देते हैं। आखिर हमें बेचकर ही तो वो अपना व्यापार कर पाते हैं। अब अगला चुनाव नई पार्टी से क्या पता जीते कि न जीते तो उसका मुआवजा।
अब इसमें चरित्र की बात कहां से आ गई। यानी हमारा निर्यात हो गया तो हम चरित्रहीन हो गये। और जिनने हमारा आयात किया वो ? वो चरित्रहीन नहीं हैं। हम न बिकते तो वो खरीद पाते ? चरित्र की बात तो आप करो नहीं। काहे का चरित्र। भेड़ बकरियों का कौन सा चरित्र होता है। भेड़ बकरियां और तमाम जानवर गले में रस्सी बांध का खिरका बनाकर लाए ले जाए जाते हैं। जो खाने को दिया जाता है वो खाते हैं। जो खिलाता है उसके लिए में में में में करते हैं। अच्छा आप शेर की बात सोच रहे हैं। वो तो कबके खत्म हो गये। अब तो कुछ नमूने के लिये चिडि़या घर और राष्ट्रीय उद्यानों में रखे गए हैं। वो भी शाकाहारी टाइप के। भोपाल दिल्ली में जो घूम रहे हैं वो तो हम ही लोग हैं। शेर की खाल ओढ़े हुए। हमारे महाराज भी तो अपने को शेर कहते हैं। कैसे शेर हैं ये तो आपने देख लिया। गोश्त के नाम पर चूहा बिल्ली खा रहे हैं।
अब दो तीन महीनों बाद चुनाव होंगे। उससे निपटना होगा। टिकट तो मिल जाना चाहिए। मालिक ने बात कर ली होगी। हम न जीतेंगे तो मालिक काहे के मालिक रह जाएंगे। एक बात है कि हमारे इस पार्टी में आ जाने से इस पार्टी के पुराने लोग तो हमें निपटाएंगे। उनसे कैसे निपटा जाएगा ये देखना पड़ेगा। वैसे हमें हमारी जनता पर पूरा भरोसा है। वो कहावत है न कि जनता को वही मिलता है जिसके वो लायक होती है। यदि वो इसी लायक है कि हम जैसे नालायकों को अपना नेता बनाये तो हम क्या करें। अपने इलाके में जब हम जाएंगे तो जो हमें गाली देते थे वो हमारा जयकारा लगायेंगे। जो हमारा जयकारा लगाते थे वो अब भी हमारा जयकारा लगायेंगे। अंग्रेजों ने यूं ही थोड़ी इतने सालों तक भारत में राज किया है। वो लातें मारते थे और हम जयकारा लगाते थे और गांधी को गोली मारते थे।
सुखनवर

02 07 2020