Monday, May 13, 2013

क्योंकि भारत एक गरीब देश है।


    अरे हां भाई मैंने इस्तीफा दे दिया। प्रधानमंत्री को बता दिया। छोड़ दिया मंत्री पद। क्या करता। ये सी बी आई को अपनी कार्यकुशलता साबित करने के लिए मैं ही मिला था ? उधर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि सी बी आई को स्वतंत्र होना चाहिए और इधर इनने अपनी स्वतंत्रता की बानगी दिखा दी। मैंने कुछ दिन रास्ता देखा कि मामला शांत हो जाएगा मगर काहे को। रोज नई गिरफतारियां हो रही हैं। ये आजकल के लड़के सचमें कुछ बताते नहीं हैं और क्या क्या कर बैठते हैं। अब मुझे तो भाईसाहब कुछ समझ न आया कि ये हो क्या रहा है। मेरी और मनमोहन जी की हालत यूं समझिये कि बिलकुल एक सी हो गई। वो भी सकते में और मैं भी सकते मे। इस बार मैंने उनका फार्मूला अपनाया। चुप रहा आया। चुप रहने से बात आगे नहीं बढ़ती। कोई कुछ भी कहे चुप रहो। समय काटो। मीडिया भी परेशान हो जाता है। जब हम कुछ बोलेंगे नहीं तो हमारे बारे में कितना कहोगे ? अंत में थक जाओगे।
    अब देखा आपने मैं तो अभी अभी रेल मंत्री बना। इसके पहले तो दूसरे ही रेल मंत्री बनते रहे। सब चुप हैं। कोई कुछ नहीं बोल रहा। किसी ने नहीं कहा कि भाई कांग्रेसी रेल मंत्री को ऐसा नहीं करना चाहिए। रेल मंत्रालय में ये परंपरा नहीं है। रेल मंत्रालय में तो पैसा चलता ही नहीं है। हम लोग तो इसीलिए रेल मंत्री बना करते हैं कि अपने गांव तक रेल बिछवा लें। इससे ज्यादा कुछ नहीं। कोई उनसे ये सवाल नहीं पूछता कि आपको केवल रेल उद्योग के कल्याण की इतनी ललक क्यों रही है। क्यों आपको रेल मंत्रालय ही चाहिए। डी एम के को संचार मंत्रालय ही क्यों चाहिए ? अब समझ में आ रहा है कि सबको देश सेवा के लिए रेल विभाग ही क्यों चाहिए। वो तो ये भांजे भतीजों और सी बी आई के चक्कर में मैं फंस गया वरना आज तक इस मामले में कोई फंसा क्या ? हुआ ये कि कई लोग बनना चाहते थे मेम्बर वगैरह। जो बन गया सो बन गया। जो नहीं बना उसने कहा कि मैं नहीं बना तो क्या हुआ पर मैं खेल तो बिगाड़ सकता हूं। अब इस खेल बिगाड़ के चक्कर में मेरा खेल तो बिगाड़ दिया। मैंने तो इनका कुछ नहीं बिगाड़ा था।
    अब हो ये रहा है कि मेरी कंपनियों की बैलेंस शीट दिखाई जा रही है टी वी पर। बताया जा रहा है कि किस तरह मेरी कंपनियों ने मुनाफा कमाया। ये चैनल वाले खुद तो अपनी कंपनियां चला रहे हैं। मुनाफा कमा रहे हैं। पेड न्यूज के जरिये तक पैसा कमा रहे हैं। काला धन कमा रहे हैं और मुझे आरोपी बना रहे हैं। अरे भई धंधा मुनाफा कमाने के लिए ही किया जाता है। खैरात बांटने के लिए नहीं। अंबानी मुनाफा कमा रहे हैं तो वो उद्योगपति और मेरी कंपनी मुनाफा कमाए तो मैं भ्रष्ट। वाह रे न्याय। मेरा अपराध ये है कि मैं राजनीति में हूं। जो मुनाफाखोर राजनीति में नहीं हैं वो बड़े फायदे में हैं। वो पाक साफ बने हुए हैं जबकि राजनीति उन्हीं के लिए और उन्हीं के मुनाफे के लिए हो रही है।
    भारत एक गरीब देश है। गरीब देश के लोगों की सोच ही गरीब है। गरीब आदमी जब पैसे के बारे में सोचेगा तो कितना सोच पायेगा। उसके लिए लाख पचास हजार बहुत होते हैं। तो ये गरीब आदमी समझ ही नहीं सकते कि हम लोग दिल्ली मुम्बई में कौनसा खेल खेलते हैं। जो लेन देन हम करते हैं उतने पैसे यदि ये गरीब लोग देख भी लें तो मर जाएं। उनकी आंखे चुंधियाएंगी नहीं फूट जाएंगी। संसद में इने गिने सांसद हैं जो गरीब हैं। ये ही कम्युनिष्ट वगैरा। ये तो इतने गरीब हैं कि ये अपनी तनखाह भी पार्टी फंड में दे देते हैं। इन्हें पैसे से प्यार नहीं है। इसीलिए पैसे को इनसे प्यार नहीं है। रहे आओ गरीब।  इन्हें हमने नमूने के लिए रखा है। क्योंकि भारत एक गरीब देश है। ये हमें दुनिया को बताना है। सैकड़ों करोड़ रूपयों के मालिक सांसदों की कमी नहीं है। और क्यों हो साहब। आज कल एक एक लोकसभा चुनाव में दस बीस करोड़ खर्च हो जाते हैं। कौन गरीब आदमी चुनाव लड़ सकता है और मैं तो कहता हूं क्यों लड़े गरीब आदमी चुनाव। वो जीत कर भी क्या कर लेगा। उसके मतलब का कौन सा काम है संसद में। हमें धंधा करना है। पैसा कमाना है। हम संसद में रहेंगे तो हम आगे बढ़ेंगे। देश आगे बढ़ेगा। हमें जी डी पी मतलब है इन्हें जी पी एफ से।
    अब समय आ गया है कि हम गंदी पार्टी पालिटिक्स छोड़ दें। ये कांग्रेस भाजपा का झगड़ा अब खत्म होना चाहिए। सबको मौका मिलना चाहिए। हमें मौका मिल चुका है। काफी दिन हो गये हैं। अब दूसरों को मौका मिलना चाहिए। हमारी जो किस्मत में था हमने पाया। अब हमें एक दूसरे की राह का रोड़ा नहीं बनना चाहिए। उनकी किस्मत का भी उन्हें मिलना चाहिए। वो लोग भी तंग आ गये गये हैं संसद का काम रोक कर। अब रोल बदलना होगा। उनकी तड़फ देखी नहीं जाती। उनकी मुश्किल ये है कि वो एक दो बार देश चला चुके हैं। उनके मुंह में उसका स्वाद है। वो उन्हें सोने नहीं देता। इसीलिए वो संसद रोकते हैं। इस्तीफा मांगते हैं। वो रोज भविष्यवाणी करते हैं। ये सरकार गिर जाएगी। कमजोर सरकार है। पर सरकार है कि चले जा रही है। ऐसे ही चलती रहेगी क्योंकि भारत एक गरीब देश है। भारत का आदमी परम योगी है। वो एक बार वोट देकर निश्चिंत हो जाता है। और वोट देने में वो बहुत उदार है। हम उसे सिखाते भी नहीं और वो सीखता भी नहीं। वो जाति धर्म प्रदेश के प्रति समर्पित है। होना भी चाहिए। इसी में हमारी भलाई है।
    जनाब ये लोकतंत्र है। लोकतंत्र में आप किसी को समझा कर बुद्धि की बातें करके वोट नहीं ले सकते। करोड़ों लोगों से वोट लेना है। एक एक को समझाने बैठे तो हो चुका काम। इसीलिए लोकतंत्र की मजबूती इसी में है कि मूर्ख बनाओ। धड़ल्ले से झूठ बोलो। भावनाओं को भड़काओ। चुनाव जीत जाओगे। क्योंकि मैंने कहा न जी भारत एक गरीब देश है। 

Tuesday, May 7, 2013

जांच और निष्कर्ष


    जांच जांच होती है। और जब भी जुर्म होता है तो उसकी जांच होती है। जांच के लिए जुर्म का होना जरूरी है। इसमें कोई छूट नहीं दी जा सकती। हां यदि जांच करने - करवाने की विकट इच्छा हो और जुर्म न हो तो प्राकृतिक न्याय यही कहता है कि जुर्म करवा दिया जाए। इस तरह के प्रायोजित जुर्म में बहुत सफाई रहती है और मामला एकदम चुस्त बनता है। जांच में कोई नुक्स नहीं निकलता और न्याय एकदम पुख्ता और दो टूक होता है। और यही लोकतंत्र या जो भी तंत्र देश में मौजूद हो उसकी सफलता और शुचिता को बनाए रखता है। आखिर अपराधी को सजा हो ये कौन नहीं चाहता। यदि अपराधी जुर्म से पहले ही तय हो जाए तो बहुत सुविधा हो जाती है। न्याय पुखता, त्वरित और दोषमुक्त होता है। अपराधी को भी लगता है कि हां वो अपराधी है। जब इतने बड़े बड़े लोग कह रहे हैं तो उसने जुर्म किया ही होगा। 
    जांच के लिए जांच की मांग बहुत जरूरी है। यदि मांग न की जाए और जांच हो जाए तो ऐसा लगता है कि चोरी की जा रही है। ऐसे मौके वैसे कभी आते नहीं हैं जब बिना मांग किए जांच हो जाए। मजा भी तब आता है जब कुछ ना नुकुर हो। कुछ हुज्जत हो। कुछ मान मनौव्वल हो। जांच बहुत मुलायम भी हो सकती है और बहुत कड़ी जांच भी की जा सकती है। जांच के बारे में ये खास तौर पर देखा गया है कि यह बहुत लंबी चलती है। कभी कभी तो इतनी लंबी चलती है कि लोग भूल जाते हैं कि जांच शुरू भी हुई थी। जांच करने वाले भी भूल जाते हैं कि वो जांच कर रहे थे। वो कुछ नई जांच में उलझ चुके होते हैं। रोज जुर्म होते हैं रोज जांच होती है।
    अब न्याय बहुत सख्त हो चुका है। यूं ही टालू जांच कर मामला दबाया नहीं जा सकता। अदालत जांच से संतुष्ट नहीं होती तो फिर जांच करने का आदेश दे सकती है। ये भी हो सकता है कि वो जांच करने वाले से संतुष्ट न हो। तब नई एजेंसी को जांच सौंपी जा सकती है। वो भी जांच करके अपनी रिपोर्ट दे सकती है। हो सकता है कि उससे न्याय संतुष्ट हो जाए। हो सकता है न्याय संतुष्ट  न हो। या आंशिक संतुष्ट हो।  तब फिर यही प्रक्रिया दोहराई जा सकती है। जल्दी कोई है नहीं। ये भी जरूरी नहीं है कि जांच से जांच करवाने वाला ही असंतुष्ट हो। कोई भी असंतुष्ट हो सकता है। यहां तक कि वो पार्टी भी असंतुष्ट हो सकती है जिसका जुर्म, जांच, वादी, प्रतिवादी, किसी से कोई वास्ता न हो। लोकतंत्र है। सबको अपनी तरह से असंतुष्ट होने का हक है।  
    जांच से पहले जांच का निष्कर्ष तय हो जाता है। जब तक जांच के निष्कर्ष का मिलान इस पूर्व निर्धारित निष्कर्ष से नहीं हो जाता तब तक जांच होती जाती है। यह निष्कर्ष हर किसी का अलग अलग हो सकता है। इसीलिए जांच रिपोर्ट पंहुचते ही पुनः जांच या नई एजेन्सी से जांच की मांग उठ खड़ी होती है। कुछ लोग यह मांग भी कर सकते हैं कि अंतिम जांच से पहले जांच करने वालों की जांच क्यों न की जाए।
    न्याय को गुस्सा भी आ सकता है। जांच के निष्कर्ष में यदि कोई निर्दोष पाया गया और उसे छोड़ दिया गया तो भी न्याय फिरसे उसी एजेन्सी को जांच कर कह सकती है फिर से जांच करो और इसे अपराधी बनाओ। अंदर करवाओ। जांच एजेन्सी बेचारी है। वो हुक्म की गुलाम है। उसे नौकरी करना है। वो फिर जांच करती है। और रिपोर्ट पेश कर देती है। सरकार पिछले बार भी सबूत नहीं थे। इस बार भी सबूत नहीं हैं। पर आदेशानुसार पुनः जांच की गई और आदेशानुसार व्यक्तिविशेष को अपराधी बना दिया गया है। हुजुर अब देखें । कुछ जम रहा है या नहीं। न्याय का अहम तुष्ट हो जाता है। वो रिलेक्स होकर पुनः न्याय करने लगता है।
    जांच के दौरान सत्ता में भी परिवर्तन होते रहते हैं। इसका सीधा असर मामले पर पड़ता है। कभी कभी फरियादी अपराधी बना दिया जाता है और अपराधी बेचारा बन जाता है। पर जांच निष्पक्ष होती है क्योंकि एजेन्सी का काम निस्पृह रूप अनवरत जांच करना है। वो अपना काम लगातार करती रहती है। जांच की रिपोर्ट आती रहती हैं। लंबी रिपोर्ट की छोटी समीक्षा रिपोर्ट बनती है। फिर समीक्षा रिपोर्ट की बिन्दुवार रिपोर्ट बनती है। फिर निष्कर्ष का मौका आता है। निष्कर्ष निकालने वाला दुविधा में है। न्याय न जाने मन में क्या सोच कर बैठा है। कहीं ऐसा न हो कि निष्कर्ष न्याय को पसंद न आए और वो सबकुछ बदल डाले। ऐसे मौके पर जो कि आते ही रहते हैं निष्कर्षदाता का शब्द चातुर्य काम आता है। वो निष्कर्ष लिख देता है और पता भी नहीं चलता कि उसने निष्कर्ष लिख दिया है। पढ़ने वाला चकित है। क्या बात है। निष्कर्ष है भी और नहीं भी। सभी संतुष्ट हैं। यहां तक कि अपराधी को भी लगने लगता है कि हां ठीक ही तो कहा है कि शायद यह अपराधी होता यदि इसके खिलाफ वो सबूत होते जो अब तक खोजे जाने  हैं और कहीं गहरे छुपे हैं पर परिस्थितिजन्य साक्ष्य अपराधी के अपराधी होने की पुष्टि करता दिखाई देता है हालांकि निस्संदेह वह संदेह का लाभ पाने का अधिकारी प्रतीत होता है।    
    न्याय भी इंसान है। वो भी अखबार पढ़ता है। टी वी देखता है। वो भी भावनाओं में बहता है। उसमें भी राष्ट्रीय भावनाएं जोर मारती हैं। वो भी भ्रष्टाचार का विरोधी है। इस चक्कर में कभी कभी भावनाओं की ऐसी बाढ़ आती है अन्याय और न्याय के बीच दूरी खत्म हो जाती है। कानून की मोटी किताबें और वकीलों के महीन तर्क रखे रह जाते हैं और भावनाएं बह निकलती हैं। भावनाओं की बाढ़ में तर्क और नियम बह जाते है।
    हम खुश रहते हैं। क्योंकि हमारी जांच नहीं हो रही है। हम अपराधी नहीं हैं। पर जो अपराधी है क्या वो सचमुच अपराधी है?
07 05 2013

Thursday, April 25, 2013

जुर्म और सज़ा : एक बैठक की रिपोर्ट

    मीटिंग में बहुत गहमागहमी थी। काफी दिनों मीटिंग नहीं हुई थी। आज हो रही थी तो कार्यकर्ताओं में भारी उत्साह देखा जा रहा है। कार्यकर्ताओं को बता दिया गया था कि कोई मुद्दा नहीं मिल रहा है इसीलिए आंदोलन बंद है। दूसरे जल्दी जल्दी आंदोलन करने से वो बात पैदा नहीं होती। अब जब खबरचियों ने खबर दी कि एक बहुत संवेदनशील और संभावनायुक्त मुद्दा मिल चुका है। दिसंबर से अब तक काफी समय भी गुजर चुका है तो मीटिंग बुला ली गई। काफी रात हो चली थी। पर मीटिंग थी के चली जा रही थी। कुछ कार्यकर्ताओं को स्टोर रूम भेज दिया गया था। मोमबत्तियों के बक्से निकालने और प्लेकार्ड्स तैयार करने के लिए। कुछ गंवार कार्यकर्ता आ गये थे जो हिन्दी में प्लेकार्ड्स बनाने लगे थे। उन्हें मार के भगा दिया गया। अच्छी और मंहगी अंग्रेजी बोलने वाले कुछ युवक युवतियों को एसएमएस किया गया। वो जल्दी में काफी कम कपड़े पहनकर आए और काम पर लग गये। पेन्टर्स को खबर कर दी गई। उन्होंने कहा कि हम लोगों ने संदेश मिलते ही विषय विशेष पर पेन्टिंग बनाना शुरू कर दी हैं। कुछ गिटार बजाने वालों को भी खबर की गई। उन्होंने कहा कि उन्होंने पहले से कुछ दर्दनाक अंग्रेजी गाने तैयार कर रखे हैं वो स्टेज मिलते ही उन्हें बजाने लगेंगे। टोपियों के बारे में बताया गया कि पिछले आंदोलनों में इतनी टोपियां बन चुकी हैं कि आगामी दस साल तक चलती रहेंगी। आदेश दिया गया कि उन टोपियों में विषय के संदर्भ में कुछ लिख दिया जाए। यदि उनमें फलों के नाम आम बिही केला इत्यादि लिखे हों तो उन्हें मिटा कर गर्मागर्म विषय पर कुछ लिखा जाए।
    सभी चैनलों के चैनलिये वहां मीटिंग में बैठे थे और अपनी भूमिका जानना चाह रहे थे। उन्हें कहा गया कि आप आगामी दस  दिनों तक अपना पूरा समय खाली रखें। हम पूरा मसाला देंगे। आपका एक मिनिट भी खाली नहीं जाएगा। विज्ञापन एजेंटों से बात कर लें। बहुत अच्छा रेट मिलेगा। आंदोलन मसालेदार रहेगा। इमोशन और ऐग्रेशन से भरपूर। दर्शकों को मजा आ जाएगा। चाट पकौडे़ आइसक्रीम वालों के प्रतिनिधि भी आ पंहुचे थे। उन्हें कहा गया कि ये अन्ना वाला जश्नदार आंदोलन नहीं है। हम लोग आपके ठेलों वगैरह की गारंटी नहीं ले सकते। आप लोग अपनी रिस्क पर धंधा करें क्योंकि पब्लिक तो भरपूर रहेगी।
    काम बांटना शुरू किया गया। मोहल्ला कमेटियों को कहा गया कि सुबह दस बजे से इंडिया गेट पंहुचा जाए। मगर यह प्रस्ताव रद्द हो गया। विरोध में कहा गया कि इंडिया गेट पंहुचते ही राष्ट्रपति से दो दो हाथ करने का मन करने लगता है। हम राष्ट्रपति  का कुछ बिगाड़ भी नहीं सकते और राष्ट्रपति भी हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकते। हमारी असली लड़ाई सोनिया  और शीला दीक्षित से है। उन्हें ही घेरा जाए। इस पर कई कार्यकर्ताओं ने कहा कि पिछले आंदोलन में दिल्ली का पुलिस कमिश्नर बच गया था। ये हमारा अपमान है। इस बार उसे नहीं छोड़ेंगे। चैनलियों ने कहा कि हमारे कैमरे हर अधिकारी मंत्री का पीछा करते रहेंगे। आप लोग भी उनका पीछा करिये। जो भी मिल जाए उसे इतना चिढ़ाइये कि वो भड़क जाए। बस काम बन जाएगा। कोई बड़ा अधिकारी पकड़ में न आए तो सिपाही से ही लड़ जाइये मगर न्यूज जोरदार बनना चाहिए। इसकी जिम्मेदारी कुछ सिद्धहस्त महिलाओं को दी गई। सिद्धहस्त महिलाओं से कहा गया कि वो रात भर अभ्यास कर लें और जितना हो सके अंग्रेजी में लड़ाई करें क्योंकि साउथ वगैरह के चैनलों को कवर करने में दिक्कत होती है।
    तय किया गया कि जंतर मंतर तो पंहुचा ही जाए साथ ही सोनिया जी और शीला दीक्षित के घरों पर भी पंहुचा जाए। झगड़ा इसी से बढेगा। किसी उत्साही कार्यकर्ता ने कहा कि राजघाट चला जाए। कार्यकर्ता की इस मूर्खता पर लोग जी भर के हंसे। उसे समझाया गया कि पिटाई के बाद राजघाट ही जाएंगे। उसके पहले गांधी जी का कोई रोल इस आंदोलन में नहीं है। कार्यकर्ताओं को आदेश दिया गया कि पिछले आंदोलन से सबक लिया जाए और आंसू गैस, वाटर जैट इत्यादि की नौबत न आए क्योंकि अंततः पिटे हुए लोग घर चले जाते हैं और हम लोग नए नए लोग पिटने के लिए कहां से लाएंगे। कार्यकर्ताओं को हिदायत दी गई कि बैरिकेटों से इस तरह से जूझें कि जैसे चीन की दीवार हो और बैरिकेट ही हमारे असली दुश्मन हैं। उस पार पुलिस सामने की ओर ढकेलते हुए और इस पार आंदोलनकारी अपने सामने की ओर ढकेलते हुए। इस बीच कुछ खिलाड़ी रूल तोड़ के बैरिकेट के ऊपर चढ कर दौड़ लगा देंगे। इससे आंदोलन बहुत क्रांतिकारी दिखाई पड़ेगा। इस पर सुझाव दिया गया कि कुछ पुतले बनवा लिये जाएं। सूचना दी गई कि इसकी चिंता न करें स्टोर में 168 पुतले रखे हैं। और वे किसी का भी पुतला दिख सकने की ताकत रखते हैं।
    चैनल वालों ने सूचित किया कि शाम को प्राइम टाइम के लिए हमने काफी हमलावर किस्म के बहस करने वाले तय किये है। इनकी आक्रामक बहसों से दर्शकों को बहुत मजा आएगा। मीटिंग में बैठे लोगों ने शिकायत की कि कई बार बहस करने वाले अक्ल की बात करने लगते हैं यह ठीक नहीं है। चैनलियों ने कहा कि ध्यान रखा जाएगा कि ऐसा कोई तत्व न आ पाए और बहस शुद्ध राजनैतिक और तू तू मैं मैं से भरपूर हो। मुद्दे पर बात कम से कम हो।
    आंदोलन के बारे में तय किया गया कि यह कई स्तरों पर होगा। अस्पताल में हमला किया जाए। बच्ची को जिस भी अस्पताल में हो वहां से हटवाया जाए। यदि एम्स में हो तो विदेश भेजा जाए आदि। मीटिंग में वरिष्ठ लोगों ने आम लोगों को समझाया कि हर आंदोलन में किसी एक व्यक्ति को खलनायक बनाना होता है। उसी को लक्ष्य करके आंदोलन होता है। इस आंदोलन में ये व्यक्ति पुलिस कमिश्नर, शीला दीक्षित, मनमोहन सिंह  या सोनिया गंाधी बनाई जा सकती है। आंदोलन ने बेहतरीन माहौल बनाया तो मनमोहन सिंह से भी इस्तीफा मांगा जा सकता है। दुनिया में हमारा नाम होगा कि हमने ऐसे मामले में प्रधानमंत्री को लपेट लिया। भारत का लोकतंत्र कितना मजबूत है। एक मुद्दा यह भी था कि बलात्कारी को क्या सजा दी जाए। फांसी पिछले आंदोलन में हो चुकी है। अब कुछ नई सजाओं के बारे में सोचा जाए। जैसे एक की जगह पांच बार फांसी। खौलते तेल में डालना। बधिया करना। पत्थरों से मारना। नौजवानों का विचार था कि सबसे बड़ी सजा ये है कि फांसी बिना सोचे विचारे बिना सबूत, बिना गवाहों के और बिना मुकदमा चलाए तुरंत दे दी जाए। क्योंकि अब हम और इंतजार नहीं कर सकते। बहुत हो चुका। नौजवान इतने तैश में आ गये कि गुस्से के मारे मोमबत्ती लेकर चल पड़े।   
                                                ........सुखनवर

Sunday, April 14, 2013

विकास पुरूष का चिन्तन

मित्रों और बहनों (हिन्दू)
    देखिये अपना एजेंडा विकास का है। मैं विकास पुरूष हूं। बल्कि महाविकास पुरूष हूं। मैंने ही अपने को बताया है। हालत ये कर दी है कि अखबार पढ़ेंगे तो लगेगा पूरे देश में एक ही प्रदेश है और एक ही मुख्यमंत्री है। मैने आदेश दिया है कि अब से  प्रतिदिन की मेरी दिनचर्या प्रकाशित हो और शाम को सभी चैनलों पर उस पर बहस हो कि आज मैंने क्या कहा और उसका मतलब क्या है। मैं तो स्पष्ट कहता हूं मित्रो, मुझे अपना विकास करना है। मुझे प्रधानमंत्री बनना है।
    मैं तो संघ प्रचारक था। हम लोग जब गणवेश पहनते हैं तो स्वयंसेवक रहते हैं और जब उतार देते हैं तो राजनीति में आ जाते हैं। मैं मुख्यमंत्री बना दिया गया। मैंने जिम्मेदारी निभाई। कांग्रेस को निपटाया। भाजपा और संघ में अपने विरोधियों को निपटाया। 2002 में मुसलमानों को निपटाया । मित्रों, इसका गणित समझिये आप। मुश्किल से दस बारह सीट पर मुसलमान फर्क डाल सकते हैं पर घृणा का ऐसा बाजार गर्म किया कि सारे गुजरातियां में हिन्दू गर्व समा गया। ये फसल काफी सालों तक कटती रहेगी। अब तो कई मुसलमान टोपी लिए घूम रहे हैं मुझे पहनाने के लिए। मैंने नहीं पहनी तो मैं बुरा पर जो पहनाने आए थे उनकी तो सोचिये।
    मैं चाहता हूं कि जैसे मैं गुजरात का मुख्यमंत्री बना दिया गया वैसे ही अब देश का प्रधानमंत्री बना दिया जाऊं। इसके लिए मुझे भाजपा में अपनी विजय पताका फहराना है। अब भाजपा में मुश्किल ये है एक तो वो बुजुर्गवार बैठे हैं। वो जब तक हैं तब तक आस नहीं छोड़ेंगे। उनके साथ बहुत से छुटभैये लगे हैं जो कहते हैं कि मुझे गुजरात के बाहर न निकलने दिया जाए। मित्रों, ये पार्टी की अंदरूनी राजनीति है। इसकी मुझे चिन्ता नहीं है। दूसरे मेरे पास पैसा है और मुझे पैसा खर्च करना आता है।
    आजकल कैसे कपड़े पहने जाएं, कैसे बाल बनाए जाएं, कैसे हाव भाव रखे जाएं इसके लिए सलाहकार मिलते हैं। किस मुद्दे पर कैसे बोला जाए, इसका भी तैयार मसविदा आ जाता है। इवेंट मैनेजमेंट के छोकरे छोकरियां सब कर देते हैं और बहुत सस्ते में कर देते हैं। आजकल आप लोग देख रहे होंगे कि मेरी संवाद अदायगी में कितने उतार चढ़ाव और भाव आते जाते हैं। इसके लिए कई वरिष्ठ अभिनेताओं को नौकरी पर रखा है। मित्रो, मैे आपको बताऊं, हर कोई खरीदा जा सकता है। ये जो टी वी चैनलों पर अखंड मोदी पाठ हो रहा है ये कोई फ्री में नहीं हो रहा है। हर काम का मैं पूरा भुगतान करता हूं। मैं कभी कभी सोचता हूं कि इन लोगों का इतना नाम है। इतने बड़े बड़े पत्रकार और बु़िद्धजीवी कहलाते हैं मगर दो कौड़ी में बिकने का तैयार हैं। सुबह शाम फोन करते हैं मोडी जी मोडी जी। मैं भी बहलाता रहता हूं। इनमें आपस में प्रतियोगिता करा दी है। जो बेहतर करेगा उसे ज्यादा पैसा दूंगा। खूब मजा आ रहा है।
    मैंने कुछ नकली लड़ाईयां आयोजित करा दी हैं। जैसे नितिश कुमार बनाम मोदी। नितिश और शरद पुराने समाजवादी हैं। समाजवादियांे की खासियत है। ये हमें भला बुरा कहते हैं और हमारे संयोजक हैं। हमारे साथ मिलकर सरकार चला रहे हैं। सुविधा ये है कि समाजवादी कभी समाजवादी का साथ नहीं देता। नहीं तो मुलायम, लालू, नितिश शरद सभी तो समाजवादी है। इन्हें मुझसे बड़ी शिकायत है तो रही आए। मुझे मालूम है वक्त आने पर ये मेरे पीछे खड़े रहेंगे। दुनिया भर में जब भी मौका आया तो समाजवादी दक्षिण पंथियों के साथ ही गये। 
    मेरे विरोधी समझते हैं कि गुजरात के दंगे मेरा रिकॉर्ड खराब कर देंगे। मैंने मीडिया के बुद्धिजीवियों को बोल दिया है। ज्योंही कोई 2002 के दंगे का नाम ले त्योंही तुम कहो कि कांग्रेस ने 1984 का दंगा करवाया था। उसका क्या ? बस इसके बाद बहस भटक जाएगी। अरे असली दंगे हमारे बुजुर्गवार के कमाल से 1992 में हुए थे। राम मंदिर आंदोलन के समय में। उसका तो कोई नाम नहीं लेता। अब वो बड़े संत बने रामनामी चादर ओढ़े घूम रहे हैं पर मन में यही है कि प्रधानमंत्री बन जाएं। क्या बूढा हो जाने से सारे पाप धुल जाते हैं ?
    मुझे लोकतंत्र से परेशानी नहीं है। उसको तो मैं सिद्ध कर चुका हूं। भाजपा और कांग्रेस में मेरे विरूद्ध कोई न उठ पाये इसकी व्यवस्था कर रखी है। परेशानी है तो न्यायपालिका से है। ये सिद्ध नहीं हो पा रहे। इनके खिलाफ बोल भी नहीं सकते। न्यायपालिका केवल गुजरात में होती तो मैं समझ लेता मगर दिल्ली में भी बैठी है। इसलिए मुश्किल हो रही है। कानून के लिए मेरे मन में बहुत सम्मान है। इतना सम्मान है जो कानून मुझे पसंद नहीं है उसे तोड़ता नहीं बदल देता हूं। मुझे गुजरात का लोकायुक्त कानून पसंद नहीं है। मैंने नया कानून बना दिया। विकास के लिए मैं कुछ भी कर सकता हूं। कुछ भी मतलब कुछ भी। 
    मित्रो, एक राज्य सरकार का काम एक बड़े नगर निगम के समान होता है। कुछ कल्याणकारी कार्यक्रम चलाना होते हैं। कुछ सड़कें पुल आदि बनाना होते हैं। बिजली पानी की व्यवस्था करना होती है। इसे अपने आइ ए एस लोग फाइलों में ला लाकर पेश करते हैं। इसे करवा लो तो सरकार चल जाती है। ज्यादा से ज्यादा विधायकों को मंत्री बना दो वो व्यस्त रहते हैं और उखाड़ पछाड़ नहीं करते। पार्टी और सरकार चल जाती है। मोटे तौर पर मुख्यमंत्री का काम एक बड़े जिले के कलेक्टर का ही है। मेरी कुशलता इसी बात में है कि मैं वही सब कर रहा हूं पर गुणगान मेरा होता है क्योंकि मैं हर बिकाऊ को खरीदना जानता हूं।
    मीडिया को मैंने एजंडा दिया है कि राहुल बनाम मोदी युद्ध घोषित करो। मैंने राहुल को कांग्रेस का प्रधानमंत्री का उम्मीदवार घोषित कर दिया और पीट दिया। बेचारा नया लड़का है। घबरा गया। कहने लगा है कि मैं तो देशसेवा करूंगा। उनकी माता जी तो वैसे भी नहीं बोलतीं। दूसरे मैं जानबूझकर ऐसे घटिया हमले करता हूं कि कोई जवाब दे ही नहीं सकता। देश में बहस ऐसी चलवा दी है जैसे अमेरिकी राष्टपति का चुनाव हो रहा हो जिसमें हर मतदाता को राहुल या मोदी में से एक को वोट देना है। इससे सुविधा ये हो जाती है कि असल मुद्दों पर बहस नहीं होती। मित्रो मेरा काम इसी से बनेगा।