अंदाजे़ बयां और
आचार संहिता के पालन हेतु चुनाव
पुराने जमाने में जब आफसेट प्रिंटिंग भी नहीं आई थी, जब एक्जिट पोल नहीं होते थे, जब लोग चुनाव का मतलब कांग्रेस को वोट देना समझते थे उस समय अखबारों में मतगणना के दिन एक ही हैडलाइन रहा करती थी ’आज पेटी का राजा बाहर आयेगा’। चुनाव में शुरूआत में अलग अलग चुनाव चिन्हों की पेटियां होती थी। फिर एक ही पेटी में सारे वोट डाले जाने लगे। अब इलेक्ट्रानिक वोटिंग का जमाना आ गया है। अब चुनाव लड़ने लड़ाने के लिये इतने कानून बन गये हैं कि चुनाव शहरी लोगों का शगल और ग्रामीण लोगों की मुसीबत बन गया है। शहरी गरीबों के लिये जरूर चुनाव कुछ कमाई करवा जाता है। इस बार के चुनाव का सबसे बड़ा उम्मीदवार आचार संहिता थी। लगता था कि चुनाव इसीलिये हो रहे हैं कि आचार संहिता का पालन हो। उम्मीदवार प्रचार करके देर रात जब घर लौटता था तो पुलिस गिरफ्तार करने के लिए खड़ी रहती थी कि आपने दिन भर में इतने बार आचार संहिता का उल्लघंन कर दिया है। चलिये थाने और जमानत कराईये। हर उम्मीदवार ने दो वीडियो शूटर रखे थे। एक अपने लिये और दूसरा विरोधी उम्मीदवार के लिये। सभी के कार्यकर्ता इसी में व्यस्त थे कि दूसरे की शिकायत करना है।
आचार संहिता के चक्कर में हुआ ये कि पता ही नहीं चला कि चुनाव हो गये। झंडे नहीं लगा सकते, सभा नहीं कर सकते, जुलूस नहीं निकाल सकते, बैनर नहीं लगा सकते, दीवार पर लिख नहीं सकते, किसी का भला नहीं कर सकते, नल बंद हो तो पानी नहीं आ सकता, पानी आ रहा हो तो बंद नहीं कर सकते, नाली-सड़क नहीं बना सकते यानी आप कुछ भी करेंगे तो आचार संहिता भंग हो जायेगी। जो सरकारी कर्मचारी वैसे ही कुछ नहीं कर रहा था उसे एक आदर्श कारण मिल गया कुछ न करने का। आचार संहिता लगी है भाई साहब, होश में तो हो, आपका काम कर दिया तो अभी अंदर हो जायेंगे। जवाब देना मुश्किल हो जायेगा कि काम किया क्यों ? और तो और कोई आदमी किसी को पांच सौ के नोट के बदले सौ के पांच नोट नहीं दे सकता। तुरंत पैसा बांटने के आरोप में बंधा नजर आयेगा।
ये विचार करने का समय है कि चुनाव होते क्यों हैं ? क्या मतदाता को यह जानने का अधिकार नहीं है कि उसके इलाके से कौन कौन चुनाव लड़ रहा है? उनका चुनाव चिन्ह क्या है? वो क्यों चुनाव लड़ रहे हैं? उनका घोषणा पत्र क्या है? उसे भाषण देना, जनता के मुद्दे उठाना आता है क्या ? वो संसद में जाकर क्या करना चाहता है ? संसद की हर सीट पर दस से पन्द्रह लाख मतदाता होते हैं। एक व्यक्ति आखिर किस तरह से अपने मतदाताओं को अपने बारे में बता सकता है ? मतदान के अंाकड़े बताते हैं कि औसतन पचास प्रतिशत लोगों ने मतदान किया। यानी जो लोग जीते हैं उनकी जीत में देश के आधी आबादी की कोई रूचि नहीं है। इतना मजबूत लोकतंत्र है। टी वी में बड़े बड़े लोग अंग्रेजी और हिन्दी में समझा रहे हैं कि आप वोट जरूर दें। कैसे दंे ? आप तो पता भी नहीं चलने दे रहे कि कौन कौन खड़ा है। एक एक संसदीय क्षेत्र इतना बड़ा है कि दुनिया में कई देश उनसे छोटे हैं। इसमें यदि एक पर्चा भी बंटवायें तो लाखों रूपये खर्च होते हैं। लेकिन खर्च की सीमा तय है। चुनाव लड़ना अब किसी सामान्य आदमी का काम नहीं रह गया है। सामान्य पार्टी का भी नहीं। आपके पास करोड़ों रूपया हो तभी चुनाव लड़ने की कल्पना कीजिये। अब पार्टियां भी उसी को टिकिट देती हैं जिसकी चुनाव लड़ने की औकात हो। पास से पैसा लगा सके। जब लगायेगा तभी तो बनायेगा। इसीलिये अब हर प्रत्याशी की संपत्ति करोड़ों रूपये में दिखना कोई ताज्जुब की बात नहीं लगती। उमा भारती की पार्टी ने चुनाव नहीं लड़ा। उमा भारती ने साफ कहा कि हमारे पास पैसा नहीं है। हम चुनाव नहीं लड़ सकते। अभी अभी विधान सभा चुनावों में पूरी पूंजी लुट चुकी है।
मीडिया के मुंह में ख्ूान लग चुका है। चुनाव को नीरस बनाने में मीडिया का बहुत योगदान रहा। अव्वल तो उम्मीदवार और पार्टी के बारे में बिना पेमेन्ट कुछ छापना ही नहीं है। और पेमेन्ट नहीं मिला तो विरोध में ही छापना है। जो पार्टी राज्य सरकार चला रही है। उससे संबंध अच्छे रखना है। उससे विज्ञापन मिलते हैं। इलेक्ट्राॅनिक मीडिया तो घटियापन और ओछेपन की सभी ऊंचाईयों को छू चुका है। उनके लिये चुनाव किसी आइटम सांग से कम नहीं था। उनके लिए कुछ सिरफिरों का जूता चलाना वरदान साबित हुआ। उसी की रिपोर्टिंग करते हुए समय निकालते रहे। देश का भला चाहने वालों को टी वी का चैबीस घंटे चलना बंद करवाना होगा। जनता को कुछ सोचने समझने के लिए अवकाश दिया जाना बहुत जरूरी है। प्रभाष जोशी ने जनसत्ता में सप्रमाण लिखा है कि इस बार प्रिंट मीडिया ने किस बेशर्मी से उम्मीदवारों को ब्लेकमेल किया है। आज जरूरत है कि सभी राजनीतिज्ञ इस ब्लेकमेल को उजागर करें और हिम्मत के साथ इससे निपटें। ................................................................................सुखनवर
www.apnikahi.blogspot.com
Thursday, May 21, 2009
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
3 comments:
सही विचारा है.
आचार संहिता से उम्मीदवारों पर तो क्या प्रभाव पड़ना था...हाँ जनता के काम जरूर रुक गए..लेकिन चुनाव के नाम पर होने वाले शोरशराबे से जो छुटकारा मिला ,उसका मज़ा ही कुछ और है..
राय साहब,50% मे भी जीतनेवाला तो 20% का ही होता है.बाकी 80% प्रतिशत की तो यह सरकार ही नही है इसलिये सरकार भी 80% लोगों पर ध्यान नही देती 20%(वो भी उनके अपने,जिन्होने वोट दिया वो नही)लोगों को ही दुलारती है.
Post a Comment