Thursday, March 29, 2012

वो बेचारी


    वो भाग रही थी। वो भाग भाग कर छुप रही थी। वो छुप छुप कर भाग रही थी। मैं उसके पीछे था। वो मेरे आगे थी। वो डरी हुई थी। मैं शेर बना हुआ था। दौड़ लगातार जारी थी। वो अचानक बस में घुस गई। मैं पीछे दौड़ा। बस चली गई। मैं आटो से भागा। उसे पकड़ा मगर वो बस से उतरकर लोकल ट्रेन में चढ़ गई। मैं भी उसी ट्रेन मंे चढ़ गया। वो उतरी मैं उतरा। मैं भागा वो भागी। थोड़ी देर में मैं भूल गया कि मैं उसके पीछे दौड़ रहा था। अब वो मेरे पीछे दौड़ने लगी। मैं भागने लगा। ये भागादौड़ी जारी रही। मैं हांफने लगा। उसकी सांस चढ़ गई। वो थक कर चूर हो गई थी। वो थकी थी। मैं फिर तरो ताजा था।
मैंने उससे पूछा: तू भाग क्यांे रही थी।
उसने कहा: छुपने के लिये, तुमसे बचने के लिए।
मैं: लेकिन क्यों
वो: आजकल मैं हर किसी से बचती फिरती हूं
मैं: क्यों
ैवो: क्योंकि आज कल हर कोई मेरा मरद बना फिर रहा है
मैं: ऐसा कैसे हो सकता है तुम कोई हूर की परी हो जो हर कोई तुम्हारा दीवाना बना फिर रहा है।
वो: मैं क्या हूं ये तो मैं नहीं जानती पर इन सब लोगों को अच्छे से जान गई हूं जो मेरे मरद बनने की कोशिश में हैं
मैं: मगर तुम्हारे भागने से क्या होगा क्या ये लोग तुम्हें छोड़ देंगे ?
वो: नहीं बिलकुल नहीं। ये लोग मुझे छोड़ ही नहीं सकते। मेरे भरोसे इनकी दुकानदारी चल रही है। मुझे छोड़ देंगे तो इनकी दुकानें बंद नहीं हो जाएंगीं। ये मरते दम तक मेरे पीछे पड़े रहेंगे।
मैं: मेरी कुछ समझ में नहीं आ रहा है। तुम किनकी बात कर रही हो।
वो: देखो हर पांच साल में मैं स्वयंवर रचाती हूं। जो लोग मुझे पाना चाहते हैं वो स्वयंवर में आते हैं। सबको आजादी है। मगर ये लोग नहीं आते। जो स्वयंवर में जीत जाता है मैं उसके साथ रहती हूं। जो लोग स्वयंवर मैं शामिल नहीं होते वो जीते हुए को पांच साल कोसते हैं और कहते रहते हैं कि मेरी शादी झूठी है।
मैं: अरे देवी जी मेरी समझ में कुछ नहीं आ रहा आप क्या कह रही हैं। पांच साल। स्वयंवर। हार जीत। स्वयंवर में भाग न लेना।
वो: आपको समझ में आएगा भी नहीं। क्योंकि आप भी इन फरेबियों के साथ हैं।
मैं: मैं किसी फरेबी के साथ नहीं हूं। मैं आम नागरिक हूं। मैं सचाई के साथ हंूं।
वो: तो फिर एक बार आंखें खोलो और मुझे देखो मैं जनता हूं
मैं: हां हां कुछ कुछ पहचान में तो आईं
वो: मैं जनता हंू। हर कोई दावा करता है कि जनता ये जानना चाहती है। जनता ये सवाल पूछ रही है। कुछ लोग और कुछ चैनलों के स्वयंभू विचारक प्रस्तोता ये दावा करते हैं कि वो मेरी ओर से सवाल पूछ सकते हैं। किसी को भी कटघरे में खड़ा कर सकते हैं। किसी पर कुछ भी आरोप लगा सकते हैं। मैं ये बताना चाहती हूं कि ये जो कोई भी हों मैं नहीं हूं। ये लोग मेरे प्रतिनिधि नहीं हैं। ये मेरे सवाल नहीं उठा रहे। ये कुछ अपने सवाल उठा रहे हैं।
मैं: तो तुम्हारे सवाल क्या हैं
वो: मेरे सवाल बहुतेरे हैं। मैं पूछती हूं कि दवाईयां इतनी मंहगी क्यों हैं ? इलाज इतना मंहगा क्यों है। जो दवाई 2 पैसे में बनती है वो बीस रूपये में क्यों बिकती है। गरीब आदमी के लिए कानून और न्याय इतना मंहगा और पंहुच के बाहर क्यों है ? हर आदमी के लिए सम्मान से जीने लायक रोटी कपड़ा मकान क्यों नहीं है ? पुलिस इतनी अत्याचारी क्यों है? क्यों अन्ना का अनशन मायने रखता है और इरोम शर्मिला का अनशन मायने नहीं रखता। क्यों ममता बनर्जी के हर शर्त मंजूर है और क्यों इरोम शर्मिला की कोई बात मंजूर नहीं। क्याों मातृभाषाओं की हत्या की जा रही है ? क्यों अपनी मातृभाषा बोलने वाला अपमानित है और क्यों अंग्रेजी बोलने वाला गौरवान्वित है। क्यों पंडे पुजारी व्यापारी संत ज्योतिषी जनता पर लादे जा रहे हैं और क्यों विज्ञान के पीछे सब लठ्ठ लेकर दौड़ रहे हैं। बढ़ती जनसंख्या पर रोक क्यों नहीं है। क्यों सारा देश कांक्रीट के जंगल में बदला जा रहा है। चौबीस डिब्बों की टेन में दो जनरल डिब्बे क्यों होते हैं ? क्यों जनता इन डिब्बों में ठूंसी जाती है और सफर करने को मजबूर होती है। क्यों देश का मजदूर किसान चर्चा से गायब है? क्यों देश की गरीब जनता के दुख दर्द किसी चैनल किसी आंदोलन का मुद्दा नहीं हैं ?
    इसीलिए जो बोले की वो जनता है। जो कहे कि जनता जानना चाहती है। जनता पूछ रही है। वो झूठा है। मक्कार है।

    ........सुखनवर
29 03 2012

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