भारत एक आध्यात्मिक देश है। इसमें मुझे पहले से ही कोई शक नहीं है। ये शक इसीलिये नहीं है कि काफी दिनों पहले एक घटना सुनने में आई थी जिसमें एक व्यक्ति कह रहा था कि उसे विश्वास हो गया है कि ईश्वर है। ईश्वर की पार्टी के लोग उससे पूछ रहे थे कि ऐसा क्यों हुआ ? हमने ऐसा क्या कर दिया कि तुम्हें ईश्वर पर भरोसा हो गया। उसने कहा कि हिन्दुस्तान यानी भारतवर्ष आज भी है यह एक सचाई है। इसीलिये भगवान है। जैसे हालात हैं उसमें बिना ईश्वर के यह भारतवर्ष जीवित न रहता। इसीलिये मैं कहता हूं कि ईश्वर है। इसी प्रकार मुझे भारतवर्ष का चुनाव अभियान देख कर ईश्वर और लोकतंत्र दोनों पर पूरा भरोसा हो गया है। इसी का परिणाम है कि मैंने वोट भी डाला है। मै बहुत जागरूक हो गया हूं। मुझे पता चल गया है कि भारत के पिछड़ेपन का कारण क्या है ? और ये आगे कैसे जायेगा यह भी समझ में आ गया है।
मैंने वोट इसीलिये डाला कि मुझे पता चला कि मेरे देश के विकास की कुंजी मेरे पास ही है। मुझे बड़ा दुख है कि मेरे देश मंें एक आदमी एक ही वोट दे सकता है। मैं चाहता था कि जितने लोग देश का भला करना चाहते हैं मैं उन सभी को वोट दूं। यानी मेरी इच्छा थी कि मेरे शहर में यदि पांच लोग चुनाव में खड़े हैं और सभी देश का भला करने के लिये लालायित हैं तो मैं उनमें से एक को क्यों चुनुं। बाकी लोग व्यर्थ ही निराश हो जायेंगे और देश का बुरा करने लगंगे। भला करने वाला एक रहेगा और बुरा करने वाले पांच दस हो जायेगे। इससे तो चुनाव का मकसद ही बेकार हो जायेगा। मगर क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है। यहां लोकतंत्र भयानक रूप से मजबूत है इसीलिये क्या किया जा सकता है। एक ही आदमी से भला करवाओ। जितना कर पाये।
इन चुनावों में उम्मीदवार बहुत खुश दिखाई पड़े। उनका कहना था कि कोई मुद्दा तो है नहीं। इसीलिये किसी को किसी मामले में पक्ष विपक्ष में बोलना नहीं है। एक दूसरे पर कीचड़ उछालते जाओ और ईश्वर पर भरोसा रखो क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है। बिलकुल होली का माहौल है। सभी लोग कीचड़ से सने हैं और कीचड़ ही उछाल रहे हैं। पहले कुछ लोग दो तीन गुटों मं बंट जाते थे तो कीचड़ का उपयोग घट जाता था। मगर इस बार हर उम्मीदवार और उसका दल अपने आप में स्वतंत्र है। उसे किसी की कोई गरज नहीं है। मतदाता की तो बिलकुल नहीं। मतदाता ने भी कुछ ऐसा ही तय कर लिया। न तुम हमारे लिए न हम तुम्हारे लिये। एक दम उन्मुक्त। जिस तरह की वस्त्रहीनता का प्रदर्शन हमारे टी वी के चैनलों में होता उसी तरह की वस्त्रहीनता का प्रदर्शन चुनाव के दौरान भाषणों और बहसों में पेश किया गया। यहां लोकलाज के भय से वस्त्रहीनता शब्द का इस्तेमाल किया जा रहा है पर पाठक उसे नंगई ही समझें।
लोकतंत्र की यह अनिवार्य शर्त है कि जो चुनाव लड़ेगा वही हारेगा या जीतेगा। जो जीतेगा वो दिल्ली में जाकर देखेगा कि और कौन कौन जीते हैं। फिर सभी जीते हुए लोग दो या तीन गिरोहों मं खड़े हो जायेंगे। दो गिरोह बन गये तो ठीक, यदि तीन या चार बन गये तो दो बातें हो जायेंगी। दो बने तो दो में से एक की सरकार बन जायेगी। मगर इस बार चुनाव के पहले ही तीन गिरोह बने हुए हैं। चैथा गिरोह भी है मगर वो अभी से कह रहा है हम अलग जरूर रह रहे हैं मगर हमारा घरवाला वही है। मगर क्योंकि भारत एक आध्यात्मिक देश है इसीलिये कोई समस्या नहीं है। पूरे देश ने मान लिया है कि हां भैया आप तीसरे मोर्चे वाले ही सरकार बनायेंगे और बाकी दो लोग जिनके पास कुल मिलाकर बहुमत रहेगा वो विपक्ष में बैठेंगे। कौन बहस करे। तीसरा मोर्चा गजब का सि़द्धांतवादी है। जो कहीं नहीं है वो तीसरे मोर्च में है। तीसरे मोर्चे में रहने के लिये किसी को कुछ नहीं करना है। बस रहना है। इतना लचीलापन है कि जो प्रधानमंत्राणी की प्रत्याशा रखती हैं वो तीसरे मोर्चे में नहीं हैं फिर भी हैं।
हमारे चुनाव में केवल कीचड़ एक मात्र मुद्दा है। आगामी एक साल बाद के भारत के बारे में किसी के पास कोई विचार नहीं है। कोई दृष्टि नहीं है। हम या तो क्षण वादी हैं या सहस्त्रवर्ष वादी। या तो एक सेकंड या फिर एक हजार साल इन दोनों में से किसी एक पर बातचीत की जाती है। सन् चालीस में हम लोग चालीस करोड़ थे। आज हम एक अरब से ज्यादा हैं। जमीन और अनाज उतना ही है। ये बढ़ती जनसंख्या हमें कहां ले जायेगी। हमारी नदियां सूख रही हैं। जो पानी है वो गटर से गंदा है। जमीन के नीचे का पानी सैकड़ों फुट नीचे जा रहा है। पानी की त्राहि त्राहि मची है। जंगल कट चुके हैं। हरियाली गायब है। अनाज का उत्पादन घट रहा है। खेती की जमीन घट रही है। रसायनों की तबाही खेतों में भी है और मनुष्य के शरीर में भी। इक्कीसवीं सदी में हमारी चिन्ता ये है कि हम भूखे मरें तो मरें, बेरोजगार मरें तो मरें लेकिन हम हिन्दू रहें या मुसलमान, सिक्ख, ईसाई जरूर रहें। हम ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र अवश्य रहें। धर्म और जाति और इनके लिये एक दूसरे का गला काट लेना ये हमारा प्रमुख खेल है। क्यों न हो आखिर हम एक आध्यात्मिक देश में रहते हैं। हम किसी भी जाति या धर्म के हों हम ग्रेट ब्रिटेन की भाषा बोलते हैं जैसी भी बोलें। हमारी भाषाएं चाहे मातृभाषा हो या राष्ट्रभाषा मर रही हैं और उन्हें कोई पानी देने वाला नहीं है।
मगर ये हमारे चुनाव में कोई मुद्दे नहीं हैं। हमारे मुद्दे है मनमोहन और अडवाणी, आतंकवाद और कंधार, स्विस बैक में जमा पैसा, हमारा विकास उनका विकास, कांग्रेस ने कुछ नहीं किया भाजपा ने कुछ नहीं किया, वरूण गांधी, यूपीए, एनडीए, तीसरा मोर्चा, आचार संहिता उल्लंघन इति। इन मुद्दों पर चुनाव लड़ लिया गया है बाकी दो चरण का भी लड़ लिया जायेगा। किसी न किसी की सरकार बन जायेगी। मनमोहन, आडवाणी या लालू से देवगौड़ा तक कोई भी प्रधानमंत्री बन जायेगा मगर हमारे नल से पानी कैसे आयेगा ? हवा में आक्सीजन कहां से रहेगी यदि हरियाली नहीं रहेगी ? एक अरब लोगों के लिये अनाज कैसे पैदा होगा ? उनके घर कैसें बनेंगे ? वो क्या पहनेंगे ? हमारा धर्म दूसरे धर्म से श्रेष्ठ है इसे प्रमाणित करने के लिये आयोजित दंगे-फसाद कैसे बंद होंगे ? हमारी जाति मनुष्य जाति है ये कैसे माना जायेगा ? हजारों साल मं बनी हमारी भाषाएं अंग्रेजी के हाथ खत्म हो जायेंगी फिर क्या होगा ?
ये मुद्दे चुनाव के मुद्दे किस चुनाव में बनेंगे ? क्या वो चुनाव होगा ? क्या हम वोट देने के लिये बचेंगे ?
.................सुखनवर
Sunday, May 3, 2009
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1 comment:
अरे सर मुद्दे भी निर्गुण इश्वर की तरह अनुपस्थित है…यह भी आध्यात्मिकता का ही असर है क्या?
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