प बंगाल में वाम मोर्चा हार गया। ममता बैनर्जी जीत गईं। चुनाव से जीतीं। कहा गया कि पहली बार प बंगाल के मतदाता को निष्पक्ष मतदान का मौका मिला। कहा गया कि चौंतीस साल पुराने कुशासन का अंत हुआ। समझ में नहीं आ रहा क्या बंगाल में चौंतीस साल के बाद चुनाव हुए हैं ? पिछले चुनाव किसने कराए थे ? उसी चुनाव आयोग ने जिसने ये चुनाव कराये। चुनाव तो हर पांच साल में होते रहे। यदि गलत चुनाव होते रहे तो जिन्हें शिकायत है चुनाव का बहिष्कार क्यों नहीं करते रहे ? जब एक समय सिद्धार्थ शंकर राय मुख्यमंत्री बने थे तो सी पी एम ने चुनावों में धांधली की शिकायत की थी। पर इसी कारण सी पी एम के जीते हुए विधायक पूरे पांच साल तक विधान सभा में नहीं घुसे। चौंतीस साल के कुशासन की शिकायत करने वाले हर बार चुनाव लड़ते रहे। हारते रहे। यही नहीं सिद्धांतों के इतने पक्के थे कि कांग्रेस को छोड़कर भाजपा से मिलकर भी चुनाव लड़ते रहे। हारते रहे। यदि इस चुनाव में ममता जीतीं तो पिछले चुनाव में ममता हारीं भी तो थीं। यदि इस बार ममता मुक्तिदाता हैं क्योंकि चुनाव जीतीं है तो पिछली बार तक सीपीएम मुक्तिदाता रही क्योंकि वो चुनाव जीतती रही। तो फिर कुशासन 34 साल का कहां रहा, ज्यादा से ज्यादा पांच साल का रहा।
ज्यादा समय सत्ता में रहने पर आत्मविश्वास बढ़ जाता है। मध्यप्रदेश में जब दिग्विजय सिंह दूसरी बार चुनाव लड़ रहे थे तो उनका प्रसिद्ध इंटरव्यू आया था। चुनाव लड़े नहीं जाते मैनेज किये जाते हैं। सी पी एम को तो पिछले तीन सालों से लगातार चुनाव हारने के संकेत मिल चुके थे। दरअसल सी पी एम ने कांग्रेस और भाजपा से कुछ नहीं सीखा। इनकी सरकारों में हर कुछ दिन में मुख्यमंत्री बदल दिया जाता है। जनता की शिकायत दूर हो जाती है। ये अपने ही अंदर विरोध का निपटारा कर देते हैं। सी पी एम ने यदि साल भर पहले बुद्धदेव दासगुप्ता को बदल दिया होता तो तृणमूल का तीन चौथाई विरोध फुस्स हो जाता। ममता बैनर्जी की जगह सी पी एम वाले खुद ही बुद्धदेव को गरियाने लगते। अपनों को गरियाने में तो ये लोग उस्ताद हैं ही फिर ममता किसे क्या कहतीं। ये दसियों साल से आजमाया हुआ नुस्खा है।
पर सी पी एम के निर्णयों पर क्या कहा जाए ? इनके विचारपूर्ण निर्णय की वजह से देश को देवगौड़ा जी जैसा प्रधानमंत्री मिला। लालू मुलायम शरद तीनों यादव एक बात में एकमत थे कि हम एकदूसरे में से किसी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देंगे। ज्योति बसु के नाम पर सभी सहमत थे। पर सी पी एम ने कहा कि हम देश पर राज नहीं करेंगे। हम संघर्ष करेंगे। ज्योति बसु प्रधानमंत्री नहीं बने। देवगौड़ा देश पर लद गये। सोमनाथ चटर्जी को पार्टी अनुशासन का हंटर मारकर पार्टी से निकाल दिया। कोई तर्क नहीं। तर्क तिरोहित।
इस देश की जनता को अभी भी समझ नहीं आ रहा है कि इस देश में इतनी सारी कम्युनिष्ट पार्टियां क्यों हैं ? एटक और सिटू क्यों हैं ? जनवादी लेखक संघ और प्रगतिशील लेखक संघ क्यों हैं ? ए आई एस एफ और एस एफ आई क्यों हैं ? इनमें क्या सैद्धांतिक मतभेद हैं ? क्यों हर महत्वपूर्ण मौके पर ये पार्टियां गलत निर्णय लेती हैं ? क्यों माफी मांगती हैं ? क्यांे कहती हैं कि गलती हो गई। यदि आपको सत्ता में नहीं रहना है और देश को चलाने की औकात आप में नहीं है तो जनता आपको क्यों चुने ?
राज्य सरकार हो या नगर पालिका इन्हें दलाल और ठेकेदार चलाते हैं। इन्हीं के माध्यम से सारे काम होते हैं चाहे तबादले हों या निर्माण कार्य। इसीलिए राज्य सरकार बदलने का मतलब दलालों और ठेकेदारों की शिफ्टिंग। 34 सालों से जमे हुए संबंध ढ़ीले होंगे फिर टूटेंगे। फिर नए बनेंगे। पांच साल तो लग जाएंगे। तब तक में सी पी एम में भी सफाई हो जाएगी। सी पी एम में बचे हुए असली कार्यकर्ता फिर से पानी के ऊपर निकल आएंगे। कोई आश्चर्य नहीं कि सी पी एम फिर सत्ता में आ जाए। या न भी आए। यही जयललिता जब पिछला चुनाव हारीं थीं तो इनकी केवल दो सीट बची थीं। इनने अपने गोद लिए पुत्र की शादी करोड़ों रूपये खर्च करके की थी। उसी के बाद हुए चुनाव में इन्हीं भ्रष्टाचार के आरोपों के साथ सत्ता से बाहर हुईं थीं। जनता के पास विकल्प क्या है ? नागनाथ सांपनाथ में से एक को चुनना है। तर्क तो है ही नहीं। तर्क तिरोहित। .....................सुखनवर
Wednesday, June 1, 2011
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