Wednesday, April 9, 2014

कल को गोली भी चल सकती है

बताइये कितना बढि़या सबकुछ सैट चल रहा था। कहीं कोई दिक्कत नहीं। कोई समस्या नहीं। हम सब एकदूसरे से सहमत थे। कितना झगड़ते थे। एकदूसरे को हराते थे जिताते थे। कोई सिद्धांत आड़े नहीं आता था। कभी आपने सुना कि हमने मारपीट की हो। गाली गुप्तार से आगे कभी बढ़े नहीं। कितना सही बंटवारा था। हिन्दू हमारे मुसलमान तुम्हारे। पिछड़े हमारे अतिपिछड़े तुम्हारे। व्यापारी हमारे मजदूर तुम्हारे। ऐसा तो नहीं था कि हमने किसी नए आदमी को घुसने न दिया हो। भाई ये तो खेल है। आओ तुम भी खेलो। जैसे रेल के डिब्बे में होता है। जब कोई नया यात्री घुसता है तो सबको दुश्मन लगता है। अगला स्टेशन आने तक वो सैट हो जाता है और फिर उसे भी नया यात्री दुश्मन लगने लगता है। स्टेशन आते रहते हैं। लोग उतरते चढ़ते रहते हैं।
देखिये मूल बात है सेवा। लोकतंत्र का मूल मंत्र। हम सब सेवा करना चाहते हैं। जो सेवा करता है उसे मेवा मिलता है। हम सेवा करते हैं। हमें मेवा मिलता है। सब जानते हैं। हर कोई अपने हिस्से का मेवा खा रहा है। हम लोगों में कभी कोई बुराई होती भी है तो मेवे को लेकर ही होती है। कहीं कोई बड़ी सेवा हो गई। बड़ा मेवा मिल गया तो जाहिर है कि बाकी सेवकों को ईष्र्या होती है। तुमने बड़ा हाथ मार लिया। हमें भी खिलाओ। कभी खिला दिया जाता है। कभी आत्म सम्मान आड़े आ जाता है। आपको ठीक नहीं लग रहा होगा मगर हम लोगों का भी आत्म सम्मान होता है जनाब। यूं ही समाजसेवा नहीं करते। जो कुछ करते हैं सरे आम करते हैं। वो कहावत है न कि उंट की चोरी निहुरे निहुरे। सो जब डाका डालते हैं तो उजागर डालते हैं। कहां तक छुपें भाई साब। और छुपें कैसे। एक एक डील आजकल करोड़ों से कम की होती नहीं। पंचायत का छोटा सा ठेका लेने जाओ तो दो चार करोड़ का काम हो जाता है। और ये लोकतंत्र जो है न बड़ी मुसीबत है। जिसको देखो वोई मुंह फाड़े बैठा है। हमें भी खिलाओ। काम कुछ करना नहीं मगर इन्हें भी खिलाओ। पंचायती राज आ गया है तो पंचों, सरपंचों, पंचायत सचिव, सी ई आ,े कलेक्टर, कमिश्नर, राजधानी, आॅडिट, अब कहां कहां तक गिनाएं। इन सबको देने के बाद बचता क्या है ? घंटा। फिर भी अपना ये है कि भाई हम सब राष्ट्रभक्त लोग हैं। चलो देशभक्त भी कहलो। अब ये भी मुश्किल हो गई है साहब कि शब्द तक बंट गए हैं। राष्ट्रभक्त मतलब एक पार्टी और देशभक्त मतलब दूसरी पार्टी। करते हैं सब सेवा, मगर छुपाते ऐसे हैं जैसे किसी को दिखाई नहीं दे रहा हो। हमारा कहना है कि भई जोर से नारा लगाओ ’’हम सब एक हैं’
इस देश में कानून बनाने वालों मालूम नहीं क्या सूझा कि नियम बना दिया हर पंाच साल मंे चुनाव होंगे। अरे पांच साल में होता ही क्या है। आपने देखा नहीं कि पंचवर्षीय योजना लागू नहीं हो पाई क्योंकि योजना ही नहीं बन पाई। जब योजना बनाने में पांच साल कम पड़े तो लागू करने में तो कम पड़ेंगे ही। फिर चुनाव जीतो। आजकल करोड़ों रूपये का काम हो गया है। सरकार बन गई तो ठीक वसूली हो जाएगी वरना विपक्ष में बैठने में क्या मिलना है। जितना छीन झपट लो उतना बहुत है। जब तक कुछ सैट हुआ। कुछ कमाई हुई कुछ सेवा हुई तब तक पांच साल पूरे फिर चुनाव लड़ो। आजकल टिकिट हासिल करना भी एक चुनाव ही है। ऐसा लोकतंत्र मजबूत हुआ है कि सबकुछ पानी की तरह साफ हो गया है। पार्टी का नेता कहता है कि टिकिट चाहिए पैसा दो। झक मारके देते हैं। भई मार्केट के हिसाब से चलना पड़ता है। तुम नहीं दोगे तो दूसरा दे देगा। फिर करते रहना फोकट की सेवा।
तो जनाब जैसी जमाने की रीत है वैसा हम चल रहे थे। मगर इस देश के नागरिक का क्या करें। खुद आकर कहेगा कि भैया तबादला रूकवा दो जितना खर्चा होगा हम देंगे। फिर बाद में कहेगा कि बहुत भ्रष्टाचार है। लड़के की नौकरी लगवा दो। जितना कहोगे दूंगा। बाद में कहेगा बड़ा भ्रष्टाचार है। तो जनाब सबको बड़ा जोश आया कि भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन करेंगे। करो भाई। एक बुढऊ को पकड़ लाए। वो अनशन पर बैठ गए। जब तक सरकार भ्रष्टाचार नहीं खत्म करेगी मैं भूखा रहंूगा। आठ दस दिन वो नौटंकी चली। एक बाबा जी दवाई बेचते थे। वो भी अनशन पर बैठ गए। मगर उन्हें उठाना नहीं पड़ा। वो तीन दिन मंे खुद ही अस्पताल पंहुच गए। वो बहुत बहादुर थे। अपनी धोती फेंक फाक के किसी औरत का सलवार कुर्ता पहन के छुप के भागे। फिर पकड़ भी लिए गए। उनकी धोती के अंदर खाकी हाफ पेंट थी।
यहां तक तो ठीक था। ऐसा जोश आना भी जरूरी है। वो कहा जाता है न कि एक बार कुकर की सीटी बजा दो प्रेशर खत्म हो जाता है। तो कुकर की सीटी बज गई। ये आंदोलन बहुत बढि़या था। चाट फुल्की आइसक्रीम वगैरह के साथ दिल्ली वासियों को खूब मजा आया। टी वी वालों को खूब मजा आया। उनका बढि़या धंधा हुआ। दोनों का स्वार्थ पूरा हुआ। उनका आंदोलन चमक गया। उनका धंधा चमक गया।
बुढऊ तो चले गए अपने गांव मगर ये कुछ लोग जो उनके साथ थे बहुत बदमाश निकले। अभी तक क्या होता था कि ये एनजीओ वालों का काम बहुत अच्छा था। ये विरोध करते थे और अपने घर चले जाते थे। राजनीति से दूर रहते थे। राजनीति हम करते थे। विरोध ये करते थे। मगर ये कुछ बदमाश ज्यादा आगे बढ़ गये। इनने अपनी पार्टी बना ली। हम सबने सोचा चलो कुछ दिन में अपने साथ आ जाएंगे। मगर ये तो सिर पर ही चढ़ने लगे। कहते हैं सिस्टम बदलेंगे। अरे भई क्यों बदलोगे सिस्टम। इस सिस्टम में क्या बुराई है। सब मिलकर खा रहे हैं। कभी हम हीरो हो जाते हैं कभी हम विलेन हो जाते हैं। देश का विकास हो रहा है। हमारा विकास हो रहा है। देश की जनता भोली है। वो किसी चपरासी बाबू अफसर को सौ पचास की घूस दे देती है तो समझती है कि ये भ्रष्टाचार है। उसे मालूम नहीं कि हम लोग राजधानी में बैठकर जो खेल खेलते हैं उस पैसे में कितने जीरो हैं वो नहीं गिन पायेंगे। ये फटेहाल क्या जाने विकास क्या होता है। एक डिफेंस डील कितने की होती है। किसी को कहदो कि लिखो बेटा - एक लाख करोड़। अच्छा भला एम बी ए लड़का न लिख पाये ऐसे विकास के आंकड़े।
तो भाई साहब अब हम कुछ गारंटी नहीं दे सकते। अभी तो जूते, चांटा चल रहे हैं। कल को गोली भी चल सकती है। फिर बैठना राजघाट पर। बड़े आए सिस्टम बदलने वाले। 

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