एबीपी चैनल में एक कार्यक्रम चल रहा है। घोषणा पत्र। इसमें चैनल के बहादुर पत्रकार निर्भीक पत्रकार एक एक पार्टी के नेता को बैठाकर उनसे सवाल करते हैं। कुछ गोल टेबिलों में और विद्वान बैठे रहते हैं जो आज भी वही सवाल करते हैं जो एक साल पहले करते थे। एक दिन देखा तो राज ठाकरे बैठे थे। उनसे प्रश्न करते समय निर्भीक चैनलिये पत्रकारों के हाथ पैर फूल रहे थे। कांपते हाथों और लड़खड़ाती जबान से प्रश्न पूछे जा रहे थे और राज ठाकरे उसी ठसक से जवाब दे रहे थे जैसे वे मुम्बई के वो हैं जिसे किसी को भी पीटकर सुधारने का हक है। दूसरे दिन आजम खां बैठे थे। उनसे भी सवाल जवाब चल रहे थे लेकिन निर्भीक पत्रकारों को आजम खान कह रहे थे कि तुम मीडिया वाले मोदी के हाथों बिके हुए हो। तुमने मोदी से पैसे लिए हैं। तुम काहे के निष्पक्ष। तुम तो सबके बयान तोड़फोड़कर दिखाते हो। मगर बहादुर पत्रकारों ने कुछ नहीं कहा। तीसरे दिन देखता हूं तो मोदी विराजमान हैं मगर सामने जनता नहीं है। तीन नए पत्रकार विराजमान हैं। वे प्रश्न पूछेंगे। आम जनता ? नहीं पूछेगी। ये तीन सधे सधाये सीखे सिखाये प्रायोजित प्रश्नकर्ता फिर उसी कांपती आवाज में मोदी जी से पहले से तय तारीफ भरे प्रश्न कर रहे हैं। समय की सीमा नहीं। कोई व्यवधान नहीं। कोई प्रतिपश्न नहीं। अभिभूत पत्रकारगण। ये इंटरव्यू न जाने कितनी देर चला एक घंटे से ज्यादा का प्रलाप था।
हद तो तब हुई जब चैनल ने बताया कि ये इंटरव्यू दर्शकों को अभी कई दिनों तक देखना होगा। आज 23 तारीख को फिर इसका प्रसारण चालू है। कल वोटिंग है। प्रचार बंद है। चुनाव आयोग सख्त है। चैनल में इंटरव्यू चालू है।
जब सर्वे आना शुरू हुए थे तभी ये तय हो गया था कि एन डी ए को जब तक पूर्ण बहुमत नहीं मिल जाएगा ये सर्वे वाले चुप न बैठेंगे। पिछले सप्ताह पूर्ण बहुमत आ चुका है। अब जरूरत है कि 12 मई से पहले दो तिहाई या फिर सीधे तीन चैथाई बहुमत दिलवा दिया जाए और इंदिरा गांधी राजीव गांधी का इतिहास दोहरा दिया जाए।
आजकल क्लीनचिट का जमाना है। हर अपराधी के पास एक दो क्लीनचिटें हैं। ज्योंही आप आरोप लगाएंगे कि आप अपराधी हैं अगला कह देगा ये देखो क्लीनचिट। ये मुझे फला तहसील के मजिस्ट्रेट ने दी है। ये देखो मुझे ये तहसीलदार ने दी है। ये देखा ये फलां थानेदार ने दी है। बस इतने से ही काम बन जाता है।
मोदी ने कहा है कि पिछले बारह सालों में गुजरात में दंगे नहीं हुए। इससे भक्तजन बहुत प्रसन्न हुए। मुदितमन से उनका भजन करने लगे। कब्र में गड़े मुर्दों ने कहा कि अब दंगे कहां से होंगे। हम सब तो यहां पड़े हैं। अब हमें कहां से मारोगे।
भारत का वोटर बहुत समझदार है। वो संसद का चुनाव लड़ने वाले से वो प्रश्न करता है जो उसे नगरनिगम पार्षद से करना चाहिए। उसकी अपेक्षा रहती है कि जीतने वाला हर रोज उसके घर आकर उसकी नाली सड़क के बारे में बात करे। उसके लड़के की नौकरी लगा दे। घर आकर उसका फार्म भर दे। वो सांसद से ये नहीं पूछता कि वो कितने दिन संसद गया। उसने वहां क्या किया। किन मुद्दों पर बोला। उसकी पार्टी ने संसद कितने दिन चलने दी कितने दिन रोक दी। वगैरह।
आप पार्टी का एक भी सांसद नहीं है। उसने कहा है कि हमारा कोई भी संसद कभी संसद में अध्यक्ष की कुर्सी के पास नहीं जाएगा। हर बहस में हिस्सा लेगा। सदन की कार्यवाही नहीं रोकेगा। क्या ये कसम बाकी पार्टी के लोग नहीं खा सकते। जिस संसद में जाने के लिए उम्मीदवार इतनी मेहनत और इतना पैसा खर्च कर रहा है उसी में जाने के बाद वहां संसद का बहिष्कार करना, संसद न चलने देना, बहस न होने देना कौन से मजबूत लोकतंत्र की निशानी है ?
और अंत में यू पी ए और एन डी ए चुनाव के कम से कम अंतिम मतदान के पहले ही आम जनता को यह तो बता दें कि देश की आर्थिक नीति, शिक्षा नीति, विदेश नीति, पर्यावरण, जैसे तमाम मुद्दों पर मतभेद कहां कहां हैं ? कहां कहां उनमें कोई मतभेद नहीं है। घोषणा पत्रों से स्पष्ट हो चुका है कि दोनों में रत्ती भर मतभेद नहीं है।
ये शेखो बरहमन के झगड़े सब नासमझी की बातें हैं।
हद तो तब हुई जब चैनल ने बताया कि ये इंटरव्यू दर्शकों को अभी कई दिनों तक देखना होगा। आज 23 तारीख को फिर इसका प्रसारण चालू है। कल वोटिंग है। प्रचार बंद है। चुनाव आयोग सख्त है। चैनल में इंटरव्यू चालू है।
जब सर्वे आना शुरू हुए थे तभी ये तय हो गया था कि एन डी ए को जब तक पूर्ण बहुमत नहीं मिल जाएगा ये सर्वे वाले चुप न बैठेंगे। पिछले सप्ताह पूर्ण बहुमत आ चुका है। अब जरूरत है कि 12 मई से पहले दो तिहाई या फिर सीधे तीन चैथाई बहुमत दिलवा दिया जाए और इंदिरा गांधी राजीव गांधी का इतिहास दोहरा दिया जाए।
आजकल क्लीनचिट का जमाना है। हर अपराधी के पास एक दो क्लीनचिटें हैं। ज्योंही आप आरोप लगाएंगे कि आप अपराधी हैं अगला कह देगा ये देखो क्लीनचिट। ये मुझे फला तहसील के मजिस्ट्रेट ने दी है। ये देखो मुझे ये तहसीलदार ने दी है। ये देखा ये फलां थानेदार ने दी है। बस इतने से ही काम बन जाता है।
मोदी ने कहा है कि पिछले बारह सालों में गुजरात में दंगे नहीं हुए। इससे भक्तजन बहुत प्रसन्न हुए। मुदितमन से उनका भजन करने लगे। कब्र में गड़े मुर्दों ने कहा कि अब दंगे कहां से होंगे। हम सब तो यहां पड़े हैं। अब हमें कहां से मारोगे।
भारत का वोटर बहुत समझदार है। वो संसद का चुनाव लड़ने वाले से वो प्रश्न करता है जो उसे नगरनिगम पार्षद से करना चाहिए। उसकी अपेक्षा रहती है कि जीतने वाला हर रोज उसके घर आकर उसकी नाली सड़क के बारे में बात करे। उसके लड़के की नौकरी लगा दे। घर आकर उसका फार्म भर दे। वो सांसद से ये नहीं पूछता कि वो कितने दिन संसद गया। उसने वहां क्या किया। किन मुद्दों पर बोला। उसकी पार्टी ने संसद कितने दिन चलने दी कितने दिन रोक दी। वगैरह।
आप पार्टी का एक भी सांसद नहीं है। उसने कहा है कि हमारा कोई भी संसद कभी संसद में अध्यक्ष की कुर्सी के पास नहीं जाएगा। हर बहस में हिस्सा लेगा। सदन की कार्यवाही नहीं रोकेगा। क्या ये कसम बाकी पार्टी के लोग नहीं खा सकते। जिस संसद में जाने के लिए उम्मीदवार इतनी मेहनत और इतना पैसा खर्च कर रहा है उसी में जाने के बाद वहां संसद का बहिष्कार करना, संसद न चलने देना, बहस न होने देना कौन से मजबूत लोकतंत्र की निशानी है ?
और अंत में यू पी ए और एन डी ए चुनाव के कम से कम अंतिम मतदान के पहले ही आम जनता को यह तो बता दें कि देश की आर्थिक नीति, शिक्षा नीति, विदेश नीति, पर्यावरण, जैसे तमाम मुद्दों पर मतभेद कहां कहां हैं ? कहां कहां उनमें कोई मतभेद नहीं है। घोषणा पत्रों से स्पष्ट हो चुका है कि दोनों में रत्ती भर मतभेद नहीं है।
ये शेखो बरहमन के झगड़े सब नासमझी की बातें हैं।
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