Wednesday, May 4, 2011

गुस्सा मोमबत्ती और मशालें

जंतर मंतर से चला आंदोलन छूमंतर हो गया। होना ही था। जब जे पी का आंदोलन चला तब देश में टी वी नहीं था। अब टी वी है। पहले जे पी थे अब अन्ना हजारे हैं। पहले इंदिरा गांधी थीं अब मनमोहन सिंह है। पहले भी अमेरिका था अब भी अमेरिका है। पहले भी भ्रष्टाचार था अब भी भ्रष्टाचार है। जे पी ने आंदोलन शुरू नहीं किया था। सबसे पहले गुजरात में छात्रों का एक आंदोलन शुरू हुआ था नवनिर्माण सेना के नाम से जिसने उस समय के मुख्यमंत्री चिमन भाई को घेरा था। चिमन भाई भ्रष्टाचार के प्रतीक बन गये थे। उस आंदोलन से प्रेरणा लेकर बिहार में पटना में छात्रों का आंदोलन शुरू हुआ। जे पी उस समय पटना में रिटायर्ड जीवन गुजार रहे थे। जे पी सन् 1942 के हीरो थे। समाजवादी विचारों के थे। बुजुर्ग थे तो लोग इज्जत करते थे और उनके पुराने रिकार्ड को याद करते थे। नेहरू के विराट व्यक्तित्व के सामने बड़े बड़े बौने हो जाते थे। जय प्रकाश जी भी उनसे पीड़ित थे। इसीलिए अपने सक्रिय दिनांे में ही रिटायर हो गये। जब पटना में छात्र आंदोलन शुरू हुआ तो कमान समाजवादी युवजनों के हाथ में थी। वो जाकर जयप्रकाश को घर से उठा लाये। जयप्रकाश जी के पास आशीर्वाद देने के अलावा कुछ था नहीं। जब आंदोलन फैलने लगा तो उसके अंदर इंदिरा गंाधी के विरोध की गुंजाइश नजर आई। इंदिरा गंाधी की राजनीति की खासियत ये थी कि जब उन पर हमला होता था तो वो वामपंथ की ओर झुकती थीं। अमेरिका को यह बात क्योंकर पसंद होती। इसीलिए उनके खिलाफ चलते आंदोलन को अमेरिका का आशीर्वाद मिलने लगा। परिणामस्वरूप कुछ ही दिनों में तत्कालीन जनसंघ और आर एस एस उसमें शामिल हो गए। समाजवादियों को कभी फासिस्टोें से परहेज नहीं रहा है। पूरी दुनिया में जब भी मौका आया तो समाजवादी दक्षिणपंथ के साथ नजर आए। हिटलर मुसोलिनी के जमाने से लेकर आज तक। आज भी शरद यादव भाजपा के साथ हैं और समाजवादी भी हैं। नितीश कुमार भाजपा के साथ सरकार चला रहे हैं और नरेन्द्र मोदी को गाली भी देते हैं। यह खोज का विषय है कि समाजवादियों या लोहियावादियों ने सत्ता में आने पर कौन सा ऐसा काम किया जिससे उनका समाजवादित्व दृष्टिगोचर हो। छात्रों के आंदोलन को आशीर्वाद देने का मौका मिलने से जे पी अति प्रसन्न भये और वो सब कुछ बोलने लगे जिससे आंदोलन को बढ़़े और इंदिरा सरकार मुसीबत में आ जाए। सन् 1971 में बंगला देश की विजय के बाद से इंदिरा जी का भी आत्मविश्वास चरम पर था इसीलिए उस समय देश में मंहगाई बेरोजगारी सभी कुछ आसमान छू रहा था और कोई सुनवाई नहीं थी। कांग्रेस के अंदर कोई चंू नहीं कर सकता था। सचाई भी नहीं बता सकता था। तत्कालीन रेलमंत्री ललितनारायण मिश्र की बिहार में हत्या हो गई। स्थितियां अराजक होती गईं। छात्रों का अंादोलन जनता का आंदोलन बन कर पूरे देश में रंग लाने लगा। इसी बीच जार्ज फर्नाडिज ने रेल हड़ताल का आव्हान किया। सरकार ने रेल हड़ताल को रोका। रेल हड़ताल तो असफल हो गई लेकिन जार्ज फर्नांडिज पूरे देश में रेलकर्मचारियांे पर इंदिरा सरकार के जुल्म की कहानियां सुना सुनाकर माहौल बनाते रहे। तीन तीन घंटे उनका भाषण चलता जिसमें जुल्म का आखांे देखा हाल बताया जाता। जनता सुनने को तैयार थी और समाजवादी अपने जोरदार भाषण के लिए ही जाने जाते हैं। कवि सम्मेलन के समान रात रात भर भाषण चलते जिसमें जनता को भावुक कर कुछ कर गुजरने के लिए प्रेरित किया जाता। जे पी नाम के लिए सामने थे। कमान जनसंघ और समाजवादियांे ने सम्हाल ली थी। इसी बीच जबलपुर के सांसद सेठ गोविन्ददास की मृत्यु के कारण उपचुनाव हुआ जिसमें शरद यादव को विरोध पक्ष का साझा उम्मीदवार बनाया गया। वो जीते। कहा गया कि साझा विरोध का प्रयोग सफल रहा।
जनभावनाओं को पूरी उंचाई तक भड़काया जा चुका था। सिंहासन खाली करो कि जनता आती है का नारा बुलंद था कि इंदिरा गांधी ने पूरी दुनिया को चौंका दिया। 26 जून 1975 की रात इमरजैंसी लगाकर पूरी अराजक स्थितियों पर रोक लगा दी। ये और बात है कि इमरजैंसी ने कुछ समय बाद जो दमघोंटू और लोकतंत्र विरोधी माहौल पैदा किया उसका परिणाम इंदिरा जी को सत्ता से हाथ धोना पड़ा।
अन्ना हजारे का पूरा अभियान मीडिया और एन जी ओ संचालित था। भ्रष्टाचार से जनता त्राहि त्राहि कर रही है। पर जनता और सत्ता के बीच में इतनी दूरी बढ़ चुकी है कि जनता केवल त्राहि त्राहि ही कर सकती है। आज जिस सनसनाते आंदोलन की जरूरत है वो कैसे पैदा हो सकता है। जो पापी न हो वो पहला पत्थर मारे। इसीलिए अन्ना हजारे को आगे किया गया। पर उनके पीछे कौन थे ? भाजपा ने काफी झिझक के साथ धीरे धीरे कदम बढ़ाये पर आर एस एस को मंच पर पूरी छूट थी इसीलिए वो निश्ंिचत थे। जो मीडिया बिना पैसा खाए कोई समाचार नहीं दिखाता वो क्रांतिकारी बना अन्ना हजारे के साथ खड़ा था। जब दिल्ली में लाखों मजदूर अपनी मांगों के लिए उतरते हैं तब इस मीडिया के पास दिखाने के लिए एक सेकेण्ड का फुटेज नहीं रहता वही मीडिया कैमरे को सीमित कर कर के कुछ लोगों को लाखों की भीड़ बताता रहा। देश में कमरों और सड़कों पर बैठकर कुछ ईमानदार लोगों ने धरना दिया। मगर इन सबके उपर बैठे अमेरिका को मनमोहन सिंह की सरकार से कोई शिकायत नहीं है। देश के पूंजीपतियों और करोड़पतियों को कोई शिकायत नहीं है। इसीलिए ये आंदोलन फुस्स होना था। फुस्सा हुआ। आजकल जहां लोग गुस्से के मारे मोमबत्ती लेकर चल पड़ें तो समझ लेना चाहिए कि गुस्से से मशालें जलाने वाले अब नहीं हैं। मोमबत्ती जलाओ और रोओ और अंग्रेजी बोलो। ये वो भारत तो नहीं जिसने अंग्रेजों को भगाया था। .........................................सुखनवर

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