हमारे देश में पुरस्कार देने और सम्मान देने, अभिनंदन करने की सुदीर्घ परंपरा है। बड़े शहरों में यह खेल बडे़ स्तर पर होता है पर छोटे शहरों में यह बड़े मनोरंजक स्तर पर होता है। कुछ लोग होते हैं जो किसी न किसी का सम्मान करने की फिराक में रहते हैं। इनका जीवन इसी काम के लिए समर्पित रहता है। ये और कुछ नहीं करते बस सम्मान करते हैं। साल भर इसी टोह में रहते हैं कि किसी का सम्मान कर दें। किसी को पुरस्कार दे दें। ये अपने इस काम के प्रति बहुत श्रद्धा रखते हैं और इसे बड़ा रचनात्मक काम मानते हैं। एक तरह से ये एकल खिड़की सुविधा का पर्याय हैं। इधर आपके मन में विचार आया कि अपना सम्मान करवाया जाए उधर आपने उन्हें खबर की और ये लीजिये काम चालू हो गया। प्रेस में समाचार लग गया। हॉल बुक हो गया। पेंटर कसीदाकारी के साथ सम्मान पत्र लिखने लगा। कार्ड छप गये। कुछ ही दिनों बाद सम्मान के इच्छुक किसी मुख्य अतिथि से बाकायदे सम्मानित हो गये। धीरे धीरे कस्बों और शहरों में एक गिरोह बन जाता है। इसमें बहुत से सम्मानित और भविष्य में सम्मानित होने वाले लोग शामिल होते हैं। घूम घूम कर सम्मान वाली कुर्सी में बैठते जाते हैं। जो आज सम्मानित हो रहा है वो कल सम्मान करता नजर आएगा। जो उसके बारे में कहा जा रहा है। वो कल दूसरों के बारे में कहेगा। इन सम्मान कार्यक्रमों में कुछ लोग मुख्य अतिथि बनने में भी माहिर होते हैं। जैसे आयोजक कार्यक्रम आयोजित करने में माहिर होता है वैसे ही ये मुख्य अतिथि या अध्यक्ष पद का दायित्व संभालने में माहिर होते हैं।
सम्मान कार्यक्रम में शामिल होने वाले लोग न केवल तय होते हैं वरन् उनकी वेशभूषा भी तय होती है। ऐसे मौके पर शर्ट पेंट पहनना तो मानो अपराध ही है। सभी लोग यथाशक्ति अपना नया पुराना कुर्ता धोती या कुर्ता पाजामा पहनते हैं। हर सम्मान कार्यक्रम के लिए नया तो बनेगा नहीं इसलिए आवृत्ति बहुत हो जाती है। हर बार वही पहनना पड़ता है। ठंड के दिन हों तो मुख्य अतिथि को सुविधा हो जाती है वो शॉल ओढ़कर बैठ जाते हैं। इससे गरिमा आ जाती है। कुछ अतिथि बहुत बदमाश होते हैं। वो लापरवाही का प्रदर्शन करते हैं लेकिन उनका इरादा खेल और फोटो बिगाड़ने का होता है। वो मंच पर बंदर टोपा लगा कर बैठ जाते हैं। अतिथि को कुछ कहा भी नहीं जा सकता और फोटो तो बिगड़ ही जाता है।
सम्मान कार्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा सम्मानित के घर परिवार के लोग होते हैं। ये एक कोने में गोल बनाकर बैठा दिये जाते हैं। सम्मानित की पत्नी की स्थिति विचित्र होती है। उसे पकड़कर मंच की तरफ खींचा जाता है। वो जाना नहीं चाहतीं। मगर ले जाई जातीं हैं। उनका भी माल्यार्पण हो जाता है। मंच संचालक भाव विभोर हो जाता है। उसकी भी समझ में नहीं आता कि अब इनका क्या करें। थोड़ी देर इसी असमंजस में कट जाते हैं। फिर कहा जाता है कि सम्मानित आज जो भी हैं इन्हीं के कारण हैं। ये न होतीं तो इनकी रचनाएं इस तरह आसमान को न छूतीं। जमीन पर ही रखी रहतीं। कई रचनाएं तो आज भी आसमान में ही उड़ रही हैं। न जाने कितने बल के साथ आसमान की ओर उछाली गई हैं।
सम्मान कार्यक्रम में दिये जाने वाले भाषण भी तय होते हैं। एक युवा तैयार रखा जाता है जो सम्मानित के बारे में एक सुविचारित निबंध रटे रहता है। वो बोल देता है। इसके बाद तात्कालिक भाषण दिये जाते हैं। इसमें सम्मानित सकुचाया सा बैठा रहता है और उसके मित्र उसके बचपन और अंतरंगता के किस्से सुनाते हैं। लगभग हर भाषणकर्ता अपने व्यक्तिगत संस्मरण सुनाता है। इसका फायदा यह होता है कि उसे सम्मानित की रचना और रचना प्रक्रिया पर कुछ नहीं बोलना पड़ता। एक तो रचनाएं इस लायक नहीं होतीं और दूसरे बोलने वाले ने पढ़ी भी नहीं होतीं। मुख्य अतिथि को बहुत गंभीर भाषण देना होता है। इसीलिए वो बहुत धीरे धीरे बोलना शुरू करता है। उसे गरिमामय होने का अभिनय करना है। उसे अपनी रचनाएं भी सुनाना हैं। वो सम्मानित की रचनाएं भी पढ़कर आया है या मंच पर ही पढ़ ली हैं। उनका उल्लेख करना है। उसे अपनी वरिष्ठता भी स्थापित करना होती है। और ये भी देखना होता है कि आगामी सम्मान कार्यक्रमों में भी उसे ही मुख्य अतिथि बनाया जाए। मुख्य अतिथि बताता है कि सोेहन बचपन से ही प्रतिभाशाली था। वो जब पंाचवीं कक्षा में था तभी अपनी कविता लेकर मेरे पास आ गया इत्यादि। यानी सोेहन आज जो कुछ है वो मेरे ही मार्गदर्शन के कारण है। आज भी मेरा स्वास्थय ठीक नहीं था। कुछ मन उचाट सा था। मगर सोेहन के सम्मान का दबाव था। मैथिली शरण गुप्त या माखनलाल चतुर्वैदी या किसी और महान साहित्यकार की कोई रचना या जीवन की कोई घटना सुनाई जाती है जिससे मुख्य अतिथि की विद्वत्ता प्रमाणित होती है। ये घटना सच्ची हो या रचना सचमुच उक्त महाकवि की हो ऐसा जरूरी नहीं है। फिर अपनी एक दो रचनाएं। फिर सोेहन की एक रचना जिससे उसके विराट दार्शनिक चिंतन के बारे में संकेत मिलता है। मुख्य अतिथि अंतिम रूप से तभी विद्वान माना जाता है जब वो श्रोताओं को बताता है कि गोस्वामी तुलसीदास ने सोहन के सम्मान के संदर्भ में ही मानो ये चौपाई लिखी है। सुनिये तुलसीदास जी कहते हैं। इत्यादि। इस मौके पर यदि संस्कृत के दो तीन न समझ में आने वाले श्लोक सुना दिये जाते हैं तब तो समा ही बंध जाता है।
अब मुख्य कार्यक्रम शुरू होता है। सम्मानित खड़ा है। सभी अतिथि खड़े हैं। अपने पैसे से बनवाया गया विशाल सम्मानपत्र सम्मानित के हाथ मंे है। सभी सामने देख रहे हैं। इतिहास रचा जा रहा है। रचनाकार वह फोटोग्राफर है जो इस क्षण को कैमरे में कैद कर रहा है। फिर माल्यार्पण। एक के बाद एक। मित्रों द्वारा। फिर परिवार जनों द्वारा। फिर उपस्थितों द्वारा। फिर मालाआंे का दूसरा फेरा शुरू हो जाता है। सम्मानित का गला भर जाता है। मालाओं से। वो उतारकर रखता है कि फिर सम्मान का क्रम चालू हो जाता है। जब माला पहनाने वाले थक जाते हैं या हॉल के बाहर चले जाते हैं तभी संयोजक बचे हुए ? सम्मानार्थियों से क्षमा मांगते हुए कार्यक्रम को आगे बढ़ाकर स्वल्पाहार की तरफ ले जाता है। सम्मानित का जीवन सफल हो गया। वो संकल्प लेता है कि हो सका तो साल दो साल बाद कोई बहाना लेकर फिर सम्मानित होउंगा। ....................................................सुखनवर
Thursday, May 12, 2011
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1 comment:
सम्मान के राष्ट्रीय उद्योग पर आपकी अच्छी टिप्पणी है।
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